27 फरवरी 2002 भारतीय राजनीति के इतिहास में एक ऐसा दिन था जिसे सिर्फ अतीत की एक घटना के रूप में ही नहीं देखा जा सकता बल्कि इसने योजनाबद्ध सांप्रदायिक हिंसा के एक सबसे रक्तरंजित अध्याय को भी शुरू किया. उस दिन की हिंसक घटना एक निर्धारक क्षण था क्योंकि, रामजन्मभूमि विवाद के बीच उस वक्त दो समुदायों के बीच ये एकमात्र और सबसे बड़ा नरसंहार था.
तब अयोध्या में राम मंदिर बनाने का 18 साल पुराना आंदोलन और इसे लेकर शुरू हुआ विवाद अपनी ऊर्जा खोने लगा था.
आमतौर पर लोगों में ये समझ बनी कि बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने ने नफरत के एक निशान को मिटा दिया और इसने साल 1989 से 1992 के बीच सामूहिक लामबंदी को रोकने में मदद की.
साल 2002 तक इस आंदोलन को भारतीय जनता पार्टी भी राजनीतिक रूप से असुविधाजनक मानने लगी. पार्टी और संघ परिवार में मौजूद कई कट्टवादियों ने कहा कि बीजेपी नेताओं ने राजनीतिक शक्ति के लिए सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का सौदा कर लिया.
मुसलमानों को अलग दिखाने की प्रक्रिया को फिर से शुरू करना
मार्च 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गठबंधन के मुखिया के तौर पर इसी शर्त पर शपथ ली कि तीन महत्वपूर्ण मुद्दे यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना, आर्टिकल 370 को हटाना और सबसे अहम राम मंदिर का निर्माण, ये सभी सरकार के एजेंडे में शामिल नहीं होंगे. बीजेपी ने इन तीनों को लेकर सहमति दी थी जबकि ये सभी मुद्दे बीजेपी के पार्टी कार्यक्रम का हिस्सा थे.
गोधरा नरसंहार की घटना और उसके बाद हुए दंगों ने एक बार फिर ये तय कर दिया कि अयोध्या मुद्दा फिर सामने है और ये तभी सुलझेगा जब उस जगह पर राम मंदिर बनेगा, जहां दिसंबर 1992 तक बाबरी मस्जिद थी.
इन दो घटनाओं ने एक बार फिर ये सुनिश्चित कर दिया कि अयोध्या विवाद भारत के राजनीतिक संवाद में मतभेद का एक केंद्रीय मुद्दा है.
इसके साथ ही मुसलमानों को अलग करके दिखाने की प्रक्रिया भी फिर से शुरू हो गई. जो कथित तौर पर हमेशा से राम मंदिर विवाद की एक प्रमुख मंशा थी, लेकिन ये मुद्दा बैक सीट पर चला गया था क्योंकि, बीजेपी पर भी दबाव था कि वो मध्यमार्गी सामाजिक राजनीति के विकल्प को चुने.
राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय
गोधरा गुजरात हिंसा और दंगे न सिर्फ अगले दशक और इसके आगे के लिए राजनीतिक विभाजन का आधार और निरंतर संदर्भ का बिंदु बने, बल्कि इसने राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के उद्भव को भी प्रोत्साहित किया. हालांकि ये छवि एंटी हीरो वाली थी.
साल 2013 में प्रधानमंत्री की बायोग्राफी में मैंने इस बात पर बहस की और कई मौकों पर ये बार बार दोहराया कि अगर गोधरा की घटना और इसके बाद जो हिंसा का तांडव नहीं हुआ होता, नरेंद्र मोदी वो नहीं होते जो इस घटना के बाद वो बने..
इस तर्क को समझने के लिए आपको 30 सितंबर 2001 को हुए घटनाक्रम पर दोबारा नजर डालनी होगी. जब वाजपेयी ने मोदी को बताया था बीजेपी आरएसएस ने तय किया है कि केशुभाई पटेल को हटाकर नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया जाए.
नरेंद्र मोदी के राजनीतिक उत्थान का ये रास्ता जब बन रहा था, तब वो उस वक्त किसी के दाह संस्कार में शामिल होने गए थे. उस दिन उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में एक विमान दुर्घटना हुई थी जिसमें माधव राव सिंधिया और कुछ लोगों के साथ चार पत्रकार भी मारे गए थे.
इन्हीं में से एक पत्रकार के अंतिम संस्कार में नरेंद्र मोदी शामिल होने गए थे, जब उनके पास तत्कालीन पीएम वाजपेयी के कार्यालय से फोन आया और उन्होंने अपनी नई जिम्मेदारी के बारे में बताया गया.
एक नए मुख्यमंत्री का उदय
इसकी पृष्ठभूमि थी, राज्य में बीजेपी का डूबता सितारा. पार्टी उस वक्त साबरमती में बहुत ही महत्वपूर्ण उपचुनाव हार गई थी जो लंबे समय तक बीजेपी का गढ़ रहा था. उसी साल गणतंत्र दिवस के दिन आए विध्वंसकारी भूकंप के बाद ये लोगों का निकम्मी सरकार के प्रति गुस्सा था. इसके अलावा भ्रष्टाचार और प्रशासनिक मामलों में पटेल परिवार की दखलंदाजी के भी आरोप लगे.
गोधरा हादसे के पहले करीब साढ़े चार महीनों तक मोदी पार्टी को गिरने से रोकने में नाकाम रहे. जिसका नतीजा उप चुनाव में तीन विधानसभा सीटों पर देखने को मिला. मोदी जिस सीट से लड़े वो छोड़कर बीजपी बाकी दोनों सीटें कांग्रेस से हार गई.
फरवरी 2003 में गुजरात में विधानसभा चुनाव होने थे और नरेंद्र मोदी के पास इतना समय नहीं था कि वो पार्टी की जीत को सुनिश्चित कर पाते.
फरवरी महीने की उस सुबह जब साबरमती एक्सप्रेस पर सुबह 8 से 8.20 के बीच हमला किया. मोदी ने आधिकारिक जांच कमेटियों को कहा कि उन्हें हादसे का पता सुबह 9 बजे चला और उन्हें इसके बाद अधिकारियों और मंत्रियों की बैठक बुलाने में अगले डेढ़ घंटे लगे. इस बीच अत्यंत महत्वपूर्ण समय बर्बाद हो गया था.
बीजेपी के नेता रहे केएन गोविंदाचार्य ने नरेंद्र मोदी की बायोग्राफी लिखते समय एक इंटरव्यू के दौरान मुझसे कहा था कि इसमें निश्चित तौर पर कुछ हद तक ढिलाई दिखाई गई थी और इसलिए दंगों की तीव्रता इस हद तक बढ़ी.
ये ढिलाई प्रशासनिक स्तर पर हुई या नरेंद्र मोदी की पब्लिक ऑफिस में अनुभव की कमी की वजह से ये निर्णय करना अटकलों का मामला है. लेकिन सच ये है कि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि गोधरा हिंसा और इसके बाद हुए दंगों के बाद मोदी का उद्भव कभी संशय में नहीं रहा.
क्या इस तरह की सांप्रदायिक सनसनी आज भी चुनावी पसंद पर असर डालती है?
गोधरा गुजरात की तबाही वाले दोहरे एपिसोड की चुनावी क्षमता का आकलन नरेंद्र मोदी ने बहुत जल्दी कर लिया था. तब कैम्पेन के दौरान बीजेपी का जोर साफ तौर पर सरकार की परफॉर्मेंस पर नहीं था, जिसे बेहतर करने के लिए नरेंद्र मोदी को लाया गया था. इसकी जगह नफरत ने ले ली थी.
उस वक्त राज्य के सहयोग से चल रहा कैम्पेन और समय के साथ सरकार के सहयोग से ऐसे कैम्पेन चलाए गए और ऐसे काम किए गए जो मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक पक्षपात को बढ़ावा देते हों और लोगों की चुनावी पसंद को तय करने का सबसे प्रमुख मानदंड बन गया. विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में हिस्सा लेकर अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों से भरी ट्रेन पर हमले के बाद नरेंद्र मोदी ने तुरंत ये अंदाजा लगा लिया कि मुसलमानों पर गहराता अविश्वास तीन घटनाओं की वजह से और ज्यादा आसान हो गया है. ये घटनाएं थीं, 9/11 टेरर अटैक, भारतीय संसद पर 13 दिसंबर को आतंकी हमला और ऑपरेशन पराक्रम.
इन घटनाक्रमों ने गोधरा हिंसा को पृष्ठभूमि दी जिसमें एक खास समुदाय के लोगों पर बदले की कार्रवाई को सही ठहराया गया.
इन दो क्रूर और भयानक घटनाओं ने बीजेपी को ये अधिकार दे दिया कि वो मुस्लिम समुदाय के हर आदमी को इस तरह दिखाने की कोशिश करे कि जिससे लोगों को डरना चाहिए और ऐसा कोई जो देश को खतरे में डालने की कोशिश कर रहा है और जिसने सीमा पार के दुश्मनों और आतंकियों के ग्लोबल नेक्सस से हाथ मिलाया हुआ है.
इन गैर मुस्लिम राजनीतिक विरोधियों में राजनीतिक दल, सिविल सोसायटी और मीडिया को भी जोड़ लिया गया. ये गठजोड़ 2013 से आजतक मोदी के लिए कारगर साबित हो रहा है. ये बात गवाह है कि कैसे 27 फरवरी 2022 का गोधरा कांड आज भी देश की राजनीति को आकार दे रहा है.
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