क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 2019 आम चुनाव के लिए आकार ले रहे गैर-बीजेपी महागठबंधन की नई सूत्रधार हैं? अगर पिछले कुछ समय के सियासी घटनाक्रम पर बारीक नजर डालें, तो इस सवाल का जबाव लगता है ‘हां’.
‘दीदी’ खुद को लगातार ऐसी नेता के तौर पर प्रोजेक्ट कर रही हैं, जिसकी सभी विपक्षी दलों तक पहुंच है और वो बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने की मुहिम में अपनी भूमिका सिर्फ पश्चिम बंगाल की सियासत तक सीमित नहीं रखना चाहतीं.
‘सबकी ममता’
दिल्ली में उपराज्यपाल के मुद्दे पर केंद्र सरकार के खिलाफ खम ठोक रहे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 17 जून को शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से समर्थन की गुजारिश की. सूत्रों के मुताबिक, बीजेपी के खिलाफ बीजेपी के ही एक साथी से समर्थन मांगने की ये ‘चतुर’ सलाह ममता बनर्जी ने ही केजरीवाल को दी थी.
14 मई, 2018 को कर्नाटक के त्रिशंकु नतीजों के बाद ममता ने ‘विजेता को बधाई’ देते हुए कहा था कि अगर कांग्रेस पार्टी ने कुमारस्वामी की जेडीएस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन कर लिया होता, तो नतीजे कुछ और ही होते.
इसके फौरन बाद कांग्रेस ने ज्यादा सीटों के बावजूद मुख्यमंत्री पद कुमारस्वामी को देते हुए गठबंधन सरकार बनाने का फैसला कर लिया.
मार्च, 2018 में हुए राज्यसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के समर्थन के बावजूद बीएसपी का उम्मीदवार नहीं जीत पाया. लेकिन मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन जारी रखने की घोषणा कर दी. उस पर ममता ने ट्वीट किया, हम देश के इस मिशन में पूरी तरह उनके और अखिलेश के साथ हैं.
ममता बनर्जी ने एनडीए से अलग होने के चंद्रबाबू नायडू के कदम का समर्थन किया. मार्च, 2018 में अररिया और जहानाबाद उपचुनाव जीतने पर आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को बधाई दी.
यानी दीदी बीजेपी को मात देने या दे सकने वाले हर राजनीतिक घटनाक्रम से खुद को जोड़ रही हैं, चाहे वो देश में कहीं भी हो रहा हो.
ममता की ताकत
लोकसभा में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी के 34 सांसद हैं, जो बीजेपी (273), कांग्रेस (48) और AIADMK (37) के बाद सबसे ज्यादा हैं. राज्यसभा में भी टीएमसी के 13 सदस्य हैं. पार्टी की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल में राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में समर्थन के लिए कांग्रेस के अहमद पटेल ने ममता बनर्जी से मुलाकात की.
ममता का एजेंडा
ममता बनर्जी बीजेपी को हर हाल में सत्ता से बाहर रखना चाहती हैं, केंद्र में भी और पश्चिम बंगाल में भी. लेकिन वो राष्ट्रीय स्तर पर एंटी-बीजेपी मोर्चे का स्वाभाविक नेता खुद को मानती हैं. इसीलिए वो लगातार ये संदेश देती हैं कि कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों को वो सम्मान नहीं देती, जिसके वो काबिल हैं.
मई, 2018 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में अपनी पारंपरिक विरोधी सीपीएम की मौजूदगी के बावजूद ममता ने शिरकत की. लेकिन सोनिया गांधी के साथ उन्होंने वो नजदीकियां नहीं दिखाईं, जो बीएसपी नेता मायावती ने दिखाईं.
ममता के इरादे साफ हैं कि 2019 में अगर गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेसी थर्ड फ्रंट बनता है, तो वो उसकी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हों. पहले गैर-बीजेपी मोर्चे की ओर से नीतीश की दावेदारी मजबूत दिख रही थी, लेकिन उनके एनडीए में शामिल होने के बाद ममता के सामने वो चुनौती भी खत्म हो गई.
लेकिन साथ ही ममता सभी विकल्प खुले रखना चाहती हैं. तभी तो पिछले दिनों सोनिया गांधी के डिनर और हाल में राहुल गांधी के इफ्तार में वो खुद तो नहीं गईं, लेकिन अपनी पार्टी के नुमाइंदों को जरूर भेजा.
चुनाव के आखिरी साल में राजनीति की चकरघिन्नी बहुत तेज घूमती है. हाल में कर्नाटक में ज्यादा सीटों के बावजूद मुख्यमंत्री पद छोड़ने की दरियादिली दिखाकर राहुल गांधी की कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए वो ‘झुकने’ को तैयार हैं. ऐसे में अगले साल होने वाले आम चुनावों तक ममता बनर्जी का हर सियासी कदम पूरे विपक्ष के लिए काफी अहम होगा.
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