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प्रियंका गांधी के आने को आप ‘इंदिरा रिटर्न्‍स’ भी कह सकते हैं

क्या प्रियंका गांधी पूर्वी यूपी में कांग्रेस की साख को बचा पाएंगी

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सियासी हलकों में खद्दरधारी इसे 'तुरुप का पत्ता' मान रहे हैं, तो किसी की नजर में ये 'पॉलिटिकल पैंतरा' है. लेकिन असल में कांग्रेस के लिए ये बेसब्र इंतजार के वरदान में तब्दील होने जैसा है. इंतजार प्रियंका गांधी वाड्रा का. वरदान प्रियंका गांधी वाड्रा को सीधे तौर पर सियासत में उतारने का.

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आज से पहले प्रियंका सिर्फ अमेठी और रायबरेली तक बेटी और बहन की शक्ल में कमान संभाले दिखाई पड़ती थीं. अब प्रियंका कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव भी हैं और उत्तर प्रदेश के पुरबिया हिस्से यानी पूर्वांचल की सुप्रीमो भी.

कांग्रेस आलाकमान के इस ऐलान भर से फिक्रमंदी की लकीरें अपने माथे पर समेटे कांग्रेसी खुद को 2019 से पहले 2009 के नतीजों तक लेकर उड़ गए हैं. एसपी-बीएसपी की जोड़ी कागज कलम लेकर गठबंधन का आंकलन करने पर आमदा है. और तो और, अगले कुछ महीनों में होने वाले चुनावी वर्ल्ड कप में चौके-छक्के उड़ाने का डंका पीट रही बीजेपी के लिए भी डेकवर्थ लुइस के पेचीदा नियमों को फिर से एक बार पढ़ने पर मजबूर तो होना ही पड़ेगा.

फूलप्रूफ पॉलेटिकल पैकेज. सबकुछ दांव पर और पुरबिया भाषा में सारे घोड़े खोल देना. कुछ इस अंदाज में कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को उतारा है. इंतजार तो यूं भी आकर्षक होता है और प्रियंका गांधी में तो कांग्रेसी ही नहीं, बाकी लोग भी इंदिरा गांधी को देखते हैं.

प्रियंका का मुस्कुराते रहना, मुस्कुराकर हर बात का जवाब देना. दादी की ही साड़ियां पहनना और ये कहना कि 'लोग मुझमें इंदिरा जी को देखते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि मैं पापा की तरह दिखती हूं.'

कोई शक नहीं पूरी कांग्रेस को राहत मिली है. उन कांग्रिसयों को, खासकर जो राहुल की जगह प्रियंका को ही चेहरे के तौर पर देखना चाहते थे. ये वो लोग हैं, जिन्होंने बरसों प्रियंका को चेहरा बनाने को पोस्टर लगाए हैं, नारे लगाए हैं और मन से माना है कि प्रियंका ही कांग्रेस का बेड़ा पार कर सकती हैं.

कुल मिलाकर, अब दोनों ही तरह के कांग्रेसियों को राहुल की मजबूरी प्रियंका की मजबूती दिखाई दे रही है, क्योंकि पिछले 5 सालों में सोशल मीडिया पर बीजेपी तंत्र ने राहुल को सिर्फ मजाक का पात्र बना डाला है.

बहुत कम लोग जानते हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस का गठबंधन सिर्फ और सिर्फ प्रियंका गांधी की देन थी.

सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी ने नारा दिया था, 'एक ही जादू, दूरदृष्टि, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, अनुशासन'. प्रियंका ने इसे पूरा कर के दिखाया. मैं खुद गवाह था इस गुप्त मिशन का.

सपा के राष्ट्रीय महासचिव किरणमय नंदा ने प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर कह दिया था कि गठबंधन नहीं होगा. लेकिन स्काइप पर लगातार अखिलेश यादव से बात करने वाली प्रियंका गांधी को देखकर साफ तय था कि कोई कुछ भी कहे, गठबंधन तो होकर रहेगा.

गठबंधन हुआ भी और एक नया नारा लगा, ‘यूपी के लड़के...यूपी को साथ पसंद है’. इससे साफ होती है प्रियंका की इच्छाशक्ति, सशक्त नजरिया और हर हाल में हल करने की क्षमता.

इस मर्तबा एसपी और बीएसपी का गठबंधन हो चुका है. कांग्रेस साथ नहीं है, लेकिन प्रियंका के उतर जाने से चौबीस कैरेट कोहरा छट चुका है. दुविधा से सराबोर कांग्रेस का पुराना परंपरागत अगड़ा वोट शायद अब प्रियंका के आने से दुविधा के कुहासे से बाहर आ सकेगा.

आजादी के बाद पहली बार मुसलमानों को एहसास हुआ कि कोई सरकार उनके वोट के बिना भी बन सकती है. इस नजरिये से मुसलमान नहीं चाहेगा कि अब वो खुद को तितर-बितर करे. दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है और इस रास्ते को साफ करने के लिये मुस्लिम वोट शायद यूपी नहीं, बल्कि दिल्ली देखेगा. और जब दिल्ली देखेगा, तो उसे कांग्रेस नजर आएगी और अब तो उसे कांग्रेस में भी प्रियंका नजर आने लगी हैं. वो भी आधिकारिक तौर पर.

वोट अगर इस तरफ बहे, तो मन में ‘मोदी हटाओ’ का नारा लगा रहे दलित और पिछड़े भी जिताऊ उम्‍मीदवार और पार्टी की तरफ स्विंग कर सकते हैं. प्रियंका उन लोगों के लिए भी एक जवाब हैं, जो ये कहते हैं कि आखिर विकल्प क्या है, तो विकल्प की शक्ल में कांग्रेस उनको नजर आती है, क्योंकि इस बार कांग्रेस ने प्रियंका को पर्दे के पीछे से निकालकर ठीक सामने लाकर खड़ा कर दिया है.

प्रियंका गांधी को पूर्वांचल सौंपने का अर्थ ये नहीं कि वो सिर्फ पूरब की 26-27 सीटों तक सिमटकर रह जाएंगी, बल्कि मैसेज क्लियर है कि यूपी की 40 सीटों की कमान प्रियंका को सौंपी गई है और चालीस सीटों की कमान राहुल गांधी की जानिब से ज्योतिरादित्य सिंधिया संभालेंगे.

प्रियंका की चालीस सीटों में पूर्वांचल के साथ सेंट्रेल यूपी भी शामिल रहेगा, जबकि सिंधिया की चालीस सीटों में पश्चिमांचल और एनसीआर शामिल है. अगर इसे खालिस पूर्वांचल माना जाए, तो पूरब की भौगोलिक राजधानी कहलाने वाली काशी यानी बनारस में प्रियंका सीधे नरेन्द्र मोदी के किले में मौजूद होंगी.

प्रियंका गोरखपुर में वो यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को चुनौती देंगी और अपने ननिहाल यानी इलाहाबाद में डिप्टी सीएम केशव मौर्या तक के खिलाफ ताल ठोंकेंगी. गौर करने वाली बात ये भी है कि पूर्वांचल में प्रियंका का दखल बढ़ा, तो भोजपुर बेल्ट की 12 और सीटों तक प्रियंका का असर होगा, जो बिहार में मौजूद हैं.
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2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के स्टार प्रचारक के तौर पर नरेन्द्र मोदी ने मंच से कहा था, “ये सवा सौ साल बूढ़ी कांग्रेस देश का भला क्या करेगी.”

मैंने प्रियंका गांधी को मुसलसल कवर किया है. न जाने कितने सालों, कितने चुनावों में. राहुल गांधी भले ही कट जाते हों, लेकिन प्रियंका आंखें पढ़कर खुद सवालों का सामना करने आगे आ जाती थीं.

इलाका मलिक मोहम्मद जायसी का था, जिसे जायस कहते हैं. प्रियंका एक छोटी सी सभा से जैसे ही निकलीं, मैंने उनकी तरफ बढ़ते हुए एक सवाल की गुजारिश की. प्रियंका आईं और मैंने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि कांग्रेस सवा सौ साल बूढ़ी हो चुकी है. मुझे लगा कुछ सोचेंगी और तब जवाब देंगी. लेकिन माइक्रोसेकेंड में उन्होंने तपाक से अपने दोनों हाथों से अपनी ही तरफ इशारा करते हुए कहा, “क्या मैं बूढ़ी दिखती हूं”.

इस बात का जिक्र इसलिये जरूरी है, ताकि समझा जा सके कि प्रियंका के जेहन में जुबान है और जुबान पर जवाब. 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेन्द्र मोदी ने कहा था, “प्रियंका मेरी बेटी की तरह हैं” तो प्रियंका का जवाब था, “मेरे पिता का नाम स्वर्गीय राजीव गांधी है.”

बीजेपी सांसद वरुण गांधी जब जहरीले बोलों के लिए जेल तक गए, तब भी प्रियंका से सवाल लाजि‍मी था. आखिर वरुण गांधी उनके चचेरे भाई थे. लगा कि प्रियंका हिचकिचा जाएंगी, लेकिन उन्होंने झट से जवाब दिया, “वरुण को रामायण पढ़नी चाहिए.” राजीव गांधी के हत्यारे लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन को भी माफ करने की बात शायद रोशनी की रफ्तार से कोई दे सकता है तो प्रियंका.

यानी अब विपक्ष के सवालों का जवाब ही नहीं, बल्कि समाधान सामने आ गया है और उस समाधान का नाम है प्रियंका गांधी वाड्रा. प्रियंका के आते ही 2019 की जगह खुद को 2009 के नतीजों पर मानने वाली कांग्रेस दावा कर रही है. उसने बिना किसी लहर के यूपी में न सिर्फ 22 सीटें जीती थीं, बल्कि 2009 के फिरोजबाद उप चुनाव में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को भी राज बब्बर ने हरा दिया था.

तब प्रियंका ने कमान संभाल रखी थी और राहुल गांधी के साथ साथ सोनिया गांधी भी 100 फीसदी सक्रिय थी. लेकिन कांग्रेसियों को ये भूलना नहीं चाहिये कि मोदी लहर के आगे 2014 में कांग्रेस सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई, वो भी अमेठी से राहुल गांधी और रायबरेली से सोनिया गांधी.

आज हालात थोड़े से बदले हैं. फिलहाल कोई लहर उछलती तो नहीं दिख रही है. लेकिन ये तय है कि बीजेपी का प्रहार अब राहुल की तरफ से कम होता हुआ रॉबर्ट वॉड्रा की तरफ जरूर उछलेगा. हाईकोर्ट ईडी को रॉबर्ट की पेशी के आदेश दे ही चुका है. ऐसे में रॉबर्ट वॉड्रा की शक्ल में प्रियंका पर बीजेपी हमलावर हो सकती है.

अब प्रियंका को तय करना है कि वो इस वार से कैसे खुद को बचाती है और अपने अंदाज में विपक्ष पर हमलावर हो सकती हैं. कांग्रेस के लिए भी ये कड़े इम्तिहान की घड़ी है, क्योंकि उसने अपना आखिरी दांव इस बात कर खेल दिया है कि लोगों को प्रियंका का इंतजार था. लेकिन कहावत ये भी है कि इंतजार ज्यादा लंबा हो जाए, तो आंखें पथरा जाती हैं और पथराई आंखें अक्सर वो नहीं देख पातीं, जो वो देखना चाहती हैं.

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