आरजेडी के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने शंकराचार्य के पद के लिए आरक्षण की वकालत की है. उन्होंने कहा है कि एक ही जाति के लोग शंकराचार्य क्यों बन रहे हैं? सनातन धर्म सभाएं इसका विरोध कर रही हैं. सनातनी हिंदू कह रहे हैं कि इससे तो हिंदू धर्म नष्ट हो जाएगा. हालांकि लालू प्रसाद यादव खुद बेहद धार्मिक व्यक्ति हैं, लेकिन उनके सुझाव को लेकर धर्म सभाएं असहज हैं. नाराज हैं.
धर्म चूंकि सत्ता का प्रमुख स्रोत है, इसलिए इस पर जिनका नियंत्रण है, वे इसे अपने आप छोड़ देंगे, इसकी कल्पना या कामना करना उचित नहीं है. धर्म सभाओं की नाराजगी को इसी तरह देखा जाना चाहिए. धर्म की सत्ता इतनी बड़ी है कि एक राजा से ऊंचा दर्जा पुरोहित को मिलता है. इसलिए वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण का दर्जा क्षत्रीय से ऊपर है. धर्मग्रंथों के मुताबिक, ब्राह्मण मुंह से पैदा होता है और क्षत्रीय बाजू से.
यह सिर्फ भारत की समस्या नहीं है. रोम साम्राज्य में नीच समुदाय के लोग यानी प्लेबियन अपना जनप्रतिनिधि तो चुनते थे, लेकिन उसे संसद में प्रवेश तभी मिलता था, जब डेल्फी की देवी के पुरोहित उसे इसके योग्य करार देते थे. डेल्फी के पुरोहित हमेशा पेट्रीशियन यानी उच्च वर्ग के लोग होते थे, इसलिए रोम की संसद में नीच समुदाय का वही प्रतिनिधि पहुंच पाता था, जो पेट्रीशियन लोगों का चापलूस हो. इस तरह सदियों तक रोम में नीच समुदाय, अपने हितों के खिलाफ काम करने वाला जनप्रतिनिधि चुनता रहा. वे डेल्फी के पुजारियों का विरोध नहीं करते थे, क्योंकि वे भी मानते थे कि पुजारियों के पास ईश्वरीय सत्ता है और वे सही फैसला करते हैं.
ऐसे में पुजारी कौन हो और कौन नहीं, यह सिर्फ धार्मिक मसला नहीं रह जाता. इसका सामाजिक और राजनीतिक महत्व है. आखिर कोई कैसे भूल सकता है कि शिवाजी महाराज को राजा कहलाने के लिए एक पुजारी से तिलक करवाना पड़ा था. हालांकि इससे जुड़ा प्रसंग काफी अपमानजनक है, इसलिए उसके विस्तार में न जाना ही उचित है. आज भी नौसेना के किसी जहाज के जलावतरण से पहले या किसी विमान को वायुसेना में शामिल करने से पहले पुजारी पूजा करते हैं. इसके बाद शायद इस विवाद की गुंजाइश नहीं रह जाती कि भारतीय सत्ता संरचना में पुजारी पद की कितनी महिमा है.
इसे जानते हुए, संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पुजारियों की नियुक्तियों के संबंध में एक व्यवस्था दी थी. इसका विस्तृत ब्योरा 1936 के उनके भाषण ‘जाति का विनाश’ या ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में पढ़ा जा सकता है. भारत सरकार ने इसे प्रकाशित किया है.
यह भाषण जाति-पात तोड़क मंडल की सभा में देने के लिए लिखा गया था, लेकिन मंडल चाहता था कि आंबेडकर जातिवाद की आलोचना में नरमी बरतें. बाबा साहेब इसके लिए तैयार नहीं हुए और यह भाषण कभी नहीं दिया गया. यह भाषण सवर्ण हिंदुओं की सभा में देने के लिए तैयार किया गया था. इस भाषण में बाबा साहेब बताते हैं कि हिंदुओं की सभा में वे आखिरी बार कोई भाषण देने वाले हैं. साथ ही, वे इसमें पहली बार बताते हैं कि उन्होंने हिंदू धर्म को छोड़ने का इरादा बना लिया है.
बहरहाल, बाबा साहेब इसमें (पेज-45) कहते हैं कि वे धर्म की जरूरत से इनकार नहीं करते, लेकिन चाहते हैं कि
- हिंदू धर्म की सिर्फ एक किताब हो, और बाकी किताबों पर रोक लगा दी जाए. बाकी किताबों को मानने और प्रचार करने को दंडनीय बना दिया जाए.
- बेहतर होगा कि हिंदू धर्म में पुजारियों की व्यवस्था खत्म हो जाए. अगर यह मुमकिन नहीं है तो इसे वंशानुगत न रहने दिया जाए. यानी यह न हो कि पुजारी का बेटा पुजारी बने. जो भी हिंदू धर्म में विश्वास रखता हो, उसे पुजारी बनने का अधिकार हो.
- ऐसा कानून बने कि सरकार द्वारा निर्धारित परीक्षा पास किए बगैर कोई भी हिंदू पुजारी न बने और सरकारी सनद होने पर ही कोई आदमी पुजारी का काम कर पाए.
- सरकारी सनद यानी अधिकार-पत्र के बिना अगर कोई शख्स किसी तरह का कर्मकांड (व्याख्या-जैसे विवाह) कराए तो उसकी कानूनी मान्यता न हो. जो कोई भी सरकारी सनद के बिना कर्मकांड कराए, वह दंड का भागी बने.
- पुजारियों की संख्या कानून द्वारा तय हो. ठीक उसी तरह जैसे सिविल सेवा के अफसरों की संख्या तय होती है.
- डॉक्टर के लिए अपने काम की दक्षता होनी चाहिए, इंजीनियर को अपना काम आना चाहिए, वकीलों को अपने पेशे का ज्ञान होना चाहिए. पेशे का ज्ञान होना सभी पेशों के लिए सच है. लेकिन पुजारियों के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं है. उन पर कोई नैतिक नियम भी लागू नहीं होता. मानसिक रूप से एक पुजारी हिला हुआ हो सकता है. सुजाक जैसे यौन रोगों का मरीज हो सकता है, नैतिक रूप से पतित हो सकता है. इसके बावजूद वह कर्मकांड करा सकता है, मंदिर के गर्भगृह में जा सकता है, पूजा करवा सकता है.
- यह सब इसलिए मुमकिन है क्योंकि हिंदू धर्म में पुजारी बनने के लिए उसका ब्राह्मण पैदा होना काफी है. इसलिए पुजारी न किसी कानून से बंधा है, न किसी नैतिकता से. उसका कोई कर्तव्य भी निर्धारित नहीं है.
इसलिए बाबा साहेब सुझाव देते हैं कि पुजारियों के पेशे को कानून के दायरे में लाया जाए.
लालू यादव 2017 में जो बात कह रहे हैं, उसके बारे में बाबा साहेब 1936 में लिखते हैं- ‘अगर पुजारी बनने के रास्ते हर किसी के लिए खोल दिए गए, तो इससे इस पेशे का लोकतांत्रिकरण होगा. इससे ब्राह्मणवाद को मिटाने और जाति को खत्म करने में मदद मिलेगी. ब्राह्मणवाद एक जहर है, जिसने हिंदूवाद को बर्बाद कर दिया है. आप ब्राह्मणवाद को मिटाकर ही हिंदूवाद को बचा सकते हैं.’ लालू यादव ने ठीक वही कहा है, जिसकी वकालत बाबा साहेब आठ दशक पहले कर गए हैं.
क्या भारत सरकार इसके लिए तैयार है?
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