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जम्मू-कश्मीर: मुर्मू के जाने की कहानी और मनोज सिन्हा की चुनौतियां

नेता बंद लेकिन घाटी में थी खामोशी, केंद्र ने खो दिया बदलाव का मौका  

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जम्मू-कश्मीर में 25 महीने से लागू राज्यपाल शासन में नये उपराज्यपाल मनोज सिन्हा राजभवन में चौथे प्रशासक हैं. इससे पता चलता है कि सरकार सोची समझी रणनीति के बजाए भूल-सुधार के रास्ते पर चल रही है.

राज्यपाल जो इस दौर में मुख्य कार्यकारी भी रहे हैं, उन्हें इतना सक्षम होना चाहिए कि वे ठोस तरीके से और खास विजन के साथ सोच-समझकर योजनाओं को लागू कर दिखाते. लेकिन प्रशासन को इस तरह बांध दिया गया है कि वे बुनियादी नीतियों का खाका भी तैयार नहीं कर सकते.

नेता बंद लेकिन घाटी में थी खामोशी, केंद्र ने खो दिया बदलाव का मौका  
जम्मू और कश्मीर : लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा की फाइल तस्वीर.
(तस्वीर : आईएएनएस)  
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जल्दबाजी में जीसी मुर्मू का जाना

माना जाता है कि सिंह के पहले के एलजी जीसी मुर्मू हाई स्पीड इंटरनेट जैसी चीजों पर प्रतिबंधों में ढील देना चाहते थे लेकिन नई दिल्ली में नौकरशाहों की ताकतवर लॉबी और उनके संरक्षक बाधा डाल रहे थे.

नेता बंद लेकिन घाटी में थी खामोशी, केंद्र ने खो दिया बदलाव का मौका  
गिरीश चंद्र मुर्मू 
(तस्वीर : पीटीआई)  
स्नैपशॉट
  • जम्मू-कश्मीर में सोची-समझी रणनीति पर चलने के बजाए केंद्र भूल-सुधार के रास्ते पर चल रही है.
  • जीसी मुर्मू की जगह मनोज सिन्हा जम्मू-कश्मीर के एलजी बने हैं.
  • मुर्मू नये सीएजी बनने जा रहे हैं जिन्हें मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर के लिए चुना गया था. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को उन पर पूरा भरोसा है.
  • कहा जाता है कि मुर्मू की अपने मुख्य सचिव केवीआर सुब्रह्मण्यम के साथ खटपट थी, जिनके दिल्ली में मजबूत लिंक और व्यापक नेटवर्क हैं.
  • एनएन वोहरा के बाद कोई भी राज्यपाल या उपराज्यपाल ऐसे नहीं रहे जो जम्मू-कश्मीर को उतना समझते हों.
  • बहरहाल सिन्हा मतभेदों को दूर करने में अधिक सक्षम हो सकते हैं और एक टीम के रूप में सबको साथ जोड़ कर चल सकते हैं.
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जम्मू-कश्मीर में बदलाव से यह बात साफ हो रही है कि अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल अदालत में यह बात क्यों कह रहे थे कि उन्हें इस बात को पुख्ता करने के लिए ‘कुछ समय’ दिया जाए कि हाई स्पीड इंटरनेट बहाल की जा सकती है या नहीं.

जब अदालत ने 5 अगस्त तक का समय देने की राय रखी तो केंद्र ने जम्मू और कश्मीर को केंद्र ने कहा कि ऐसा 370 हटाए जाने का एक साल पूरे होने का हवाला दिया और 7 अगस्त का सुझाव रखा. याचिकाकर्ता के वकील को इसमें कोई शक-शुबहा नहीं हुआ और वे राजी हो गये. उन्हें इस बात की बिल्कुल जानकारी नहीं रही होगी कि तब तक नये उपराज्यपाल आ जाएंगे.

जम्मू-कश्मीर में दिल्ली की ‘पसंद’ से भिड़ंत

संयोग से श्री मुर्मू का इस्तीफा कश्मीर से 370 हटाये जाने के ठीक एक साल बाद हुआ. वे अमरनाथ यात्रा के अंत तक वहां बने रहे. हालांकि इसे 3 अगस्त को पूर्णिमा के दिन समय से पहले रोक दिया गया. मुर्मू नये सीएजी बनने जा रहे हैं जिन्हें मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर के लिए चुना गया था. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का उन पर पूरा भरोसा है चूंकि उन्होंने गुजरात में तब बेहद संवेदनशील मामलों से अच्छी तरह से निबटा था जब ये दोनों क्रमश: गुजरात के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री थे. मुश्किल यह थी कि पिछले साल एक अन्य शीर्ष अधिकारी ऐसी ही व्यक्तिगत वफादारी और निर्भरता की वजह से इसी मकसद के लिए चुने गये थे.

मुख्य सचिव बीवीआर सुब्रह्मण्यम तब प्रधानमंत्री के पर्सनल सेक्रेट्री थे जब श्री मोदी ने पहली बार साउथ ब्लॉक में कार्यभार संभाला था. उपराज्यपाल और मुख्य सचिव दोनों को विश्वास था कि सबसे ज्यादा पसंदीदा वही हैं. सुब्रह्मण्यम ने टकराव मोल लिया. पहले राज्यपाल एनएन वोहरा से, जिनके साथ उन्होंने काम किया था, अहम की लड़ाई जीती. उसके बाद से अगले राज्यपाल सत्यपाल मलिक और राज्यपाल के सलाहकार, जिन्हें मंत्री का दर्जा होता था, मुख्य सचिव से सलाह लेकर ही काम करने लगे थे.

नेता बंद लेकिन घाटी में थी खामोशी, केंद्र ने खो दिया बदलाव का मौका  
जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव बीवीआर सुब्रह्मण्यम
(फोटो-IANS)

मुर्मू यह सब करने को राजी नहीं हुए. लेकिन, उन्होंने खुद को असहाय पाया क्योंकि सुब्रहमण्यम के पास दिल्ली में ताकतवर संबंधों का व्यापक नेटवर्क था. सुब्रह्मण्यम की ख्याति एक ऐसे नौकरशाह के रूप में बनी कि उन्होंने छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को धो डाला. शायद इसी बैकग्राउंड की वजह से वे हाईस्पीड इंटरनेट बहाल करने की मुर्मू की इच्छा का विरोध कर पाए.

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नयी दिल्ली का भूल-सुधार जारी

सत्यपाल मलिक के विभिन्न बयानों से पता चलता है कि जब उनकी नियुक्ति हुई तो प्रधानमंत्री के निर्देश बहुत सामान्य थे. उनमें न कोई ब्योरा था और न ही इतना अवसर मिला कि कश्मीर की उस समय की जटिल समस्याओं पर ध्यान दिया जा सके. मलिक के लिए जिन्हें पद छोड़ने को कहा गया वे थे श्री एएन वोहरा. राज्य के बारे में उनकी समझ बेहतरीन थी. वे प्रधानमंत्री आइके गुजराल के गृहसचिव, रक्षा सचिव, प्रधान सचिव रह चुकने के साथ-साथ केंद्र की ओर से अलगाववादियों से बातचीत करने को नियुक्त वार्ताकार भी रहे थे. और फिर, वे करीब एक दशक से थोड़ा कम समय तक वहां राज्यपाल भी रहे थे.न तो मलिक और न ही मुर्मू (न सिन्हा जिन्हें लगता है कि एक हफ्ता पहले बताया गया था) को यह लाभ था. अलग-अलग तरीकों से दोनों पर ही पेचीदगियां हावी रहीं.

वास्तव में, महत्वपूर्ण मौकों पर कई बार ऐसा लगा मानो मलिक किसी नयी दुनिया में आ गये हों और निर्दोष भाव से कुछ खोज रहे हों. जम्मू-कश्मीर बैंक में नियुक्तियों के दौरान हुए भ्रष्टाचार की बात उन्हें तब पता चली जब खारिज कर दिए आवेदकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने उनसे मुलाकात की. राज्य को बेहतर समझने वाला कोई और होता, तो वह जान पाता कि तमाम तरह की नियुक्तियां अमूमन तय होती हैं और बैंक में जो सड़ांध है वह केवल नियुक्ति तक सीमित नहीं है.

जम्मू-कश्मीर के लिए खत्म हुए अवसर

नये केंद्र शासित प्रदेश को चमकाने का वादा, जिस बारे में मलिक ने प्रेस को बताया था कि प्रधानमंत्री ने उन्हें यह सुनिश्चित करने को कहा है, अब राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय बन चुका है. लेकिन, केंद्र सरकार ने जब से जम्मू-कश्मीर को 20 जून 2018 के बाद सीधे अपने प्रभार में लिया है, 777 दिनों के बाद भी स्थिति जस की तस है और इससे आशाओं एवं संभावनाओं को धक्का लगा है. राज्य में बदलाव लाने का यह शानदार अवसर था क्योंकि नेताओं को हिरासत में लिया गया तो आम तौर पर चुप्पी थी. वास्तव में मोटे तौर पर लोग तत्कालीन नेताओं को लॉक अप में देखकर खुश थे और यह चौंकाने वाली बात थी. ऐसे में केंद्र के पास जो मौका था, उसे देखते हुए ये दुखद है कि सरकार ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन में समस्याएं खड़ी होने दीं.

सरकार को उन लोगों पर भरोसा करना चाहिए था और उन्हें आजादी से काम करने देना चाहिए था जिन्हें जम्मू कश्मीर की जिम्मेदारी दी गई थी. केंद्र के पास सत्ता में आने के बाद स्थिति को बदलने के लिए पांच साल का समय था. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने उसी वक्त संदेश दे दिया था जब मोदी सरकार बनी थी कि योजना यही है. वास्तव में विवेकानंद फाउंडेशन में रणनीतिकार कई सालों से लगे रहे थे कि कार्य को किस तरह से अंजाम देना है.

योजना बनाने के लिए इतना वक्त रहने के बाद भी यह सिर्फ बहानेबाजी ही कही जाएगी कि भूल-सुधार के जरिए कार्य को अंजाम दिया जा रहा है. जमीनी स्तर पर राजनीतिक एकजुटता की बात छोड़ दीजिए, आर्थिक बदलाव और सामाजिक एकजुटता के लिए कोई खास योजना नहीं दिखी, जिसे तैयार रहना चाहिए था.

सिन्हा का अनुभव स्थिति में बदलाव लाएगा?

23 साल की उम्र में जब वे बनारस हिन्दू विश्वविद्याल के अध्यक्ष हुए तब से लेकर तमाम तरह के अनुभवों के साथ एक राजनेता के तौर पर सिन्हा मतभेदों को हल करने के लिए सक्षम हो सकते हैं और एक टीम के रूप में हर किसी को साथ ले सकते हैं. जम्मू-कश्मीर प्रशासन के साथ एक समस्या यह रही है कि ताकतवर राजनेताओं के हितों को अलग-अलग लॉबी आगे बढ़ाती हैं.

एक या दूसरे क्षेत्र कई बार एक-दूसरे के खिलाफ काम करती नजर आते हैं. हालांकि, मुर्मू प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के विश्वस्त सहयोगी रहे थे. लेकिन, उनके पास विभिन्न विवादों, कई बार परस्पर विरोधी विवादों को हल करने का अनुभव या फिर टांग खिंचाई और दबावों को झेलने का अनुभव नहीं था. सिन्हा को बीएचयू के समय से जानने वाले एक उच्च पदस्थ अधिकारी कहते हैं कि तब मनोज सिन्हा में वो काबिलियत थी कि उनके दोस्त हर छात्र संगठन में थे, कांग्रेस में भी और यहां तक कि वामपंथी आइसा में भी.सिन्हा को जो नयी जिम्मेदारी दी गयी है उसकी चुनौतियों से जूझने में यूपी की राजनीति और एक केंद्रीय मंत्री के तौर पर सफल अनुभव के साथ यह अनुभव भी निस्संदेह उपयोगी होगा.

(लेखक नेThe Story of Kashmir’ औरThe Generation of Rage in Kashmir’ पुस्तकें लिखी हैं. उनसे ट्विटर पर @david_devadas पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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