17 फरवरी को जम्मू और कश्मीर पुलिस ने उन लोगों के खिलाफ एक केस रजिस्टर किया, जिन्होंने केंद्र शासित प्रदेश में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने की कोशिश की. सरकार की ओर से टेलीकॉम प्रतिबंधों के उल्लंघन की यह कोशिश थी.
पुलिस प्रवक्ता ने न्यूज एजेंसी पीटीआई को बताया, “लगातार खबरें आ रही थीं कि शरारती तत्व अलगाववादी विचारों को प्रसारित करने और गैरकानी गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया साइट का दुरुपयोग कर रहे हैं.” उन्होंने आगे कहा कि ऐसे ‘शरारती तत्वों’ की ओर से वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क्स (वीपीएनएस) के जरिए किए गये सोशल मीडिया पोस्ट का संज्ञान लेते हुए एफआईआर दर्ज करायी गयी है.
हालांकि, क्षेत्र में सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर बैन है, जम्मू-कश्मीर पुलिस की कार्रवाई की वैधता पर सवाल उठ रहे हैं क्योंकि वे ड्रैकोनियन अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेन्शन) एक्ट (यूएपीए) के साथ-साथ इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के सेक्शन 66 ए का इस्तेमाल कर रहे हैं. (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया था.)
क्या जम्मू-कश्मीर में VPNS के जरिए सोशल मीडिया साइट का उपयोग गैर-कानूनी है?
जम्मू कश्मीर सरकार ने इलाके में प्रतिबंधों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुपालन के लिए निलंबित टेलीकॉम सेवाओं का पुनरीक्षण किया था और 14 जनवरी एवं 18 जनवरी को टेलीकॉम सर्विस (सार्वजनिक आपातकाल या सार्वजनिक सुरक्षा) रूल्स 2017 को तात्कालिक रूप से निलंबित करने के आदेश जारी किए थे ताकि केंद्र शासित प्रदेश में इंटरनेट सेवा नियमित हो सके.
संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद इन आदेशों के तहत जो पहले दिए गये आदेशों के बदले में हैं, बहुत सीमित संख्या में वेबसाइट को ‘वाइट लिस्ट’ में रखा गया है जिन्हें एक्सेस किया जा सकता है. इनमें सरकार की वेबसाइट्स, आवश्यक सेवाएं, ई बैंकिंग और अन्य शामिल हैं. इस सूची को धीरे-धीरे बढ़ाया जाना था ताकि सारे वेबसाइट्स इस सूची आ सकें. समयबद्ध आधार पर आदेश की समीक्षा और उसका नवीकरण भी होना था.
बहरहाल, शुरू से ही आदेशों में यह साफ है कि सारे सोशल मीडिया साइट्स आगे भी उपयोग नहीं किए जा सकेंगे. इस पर आगे निर्णय जम्मू-कश्मीर का गृहमंत्रालय लेता जिसने कथित तौर पर संकेत दिया था कि “अलगाववादी/राष्ट्रविरोधी तत्व” फेक न्यूज और मनमाफिक संदेश फैला कर लोगों को उकसा रहे हैं.
14 जनवरी के आदेश में यह खुलकर उल्लेख किया गया है कि “सोशल मीडिया एप पर पूरी तरह प्रतिबंध रहेगा जबकि व्यक्ति से व्यक्ति संवाद और तत्काल वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क एप की अनुमति दी गयी थी.”
क्या पुलिस आईटी एक्ट का उल्लंघन करने पर यूएपीए/सेक्शन 66ए के तहत केस दर्ज कर सकती है?
श्रीनगर में साइबर पुलिस स्टेशन (कश्मीर जोन) में दर्ज पहला एफआईआर इन प्रावधानों के तहत दर्ज है :
- सेक्शन 13, गैर कानूनी गतिविधि (निषेध) कानून 1967
- सेक्शन 66 ए (बी), सूचना तकनीक एक्ट 2000
- सेक्शन 188 और 505, इंडियन पेनल कोड 1860
कश्मीर में रहने वाले पत्रकार अहमद अली फैय्याज के मुताबिक, यह केस करीब 200 लोगों के खिलाफ दर्ज किया गया. प्रेस को दिए एक बयान में कश्मीर में इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस विजय कुमार ने भी आम लोगों से वीपीएनएस के जरिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं करने की अपील की है.
मूल सवाल यह है कि जिन लोगों पर केस दर्ज हुए हैं वे लोग वही हैं जिन्होंने भारत के एक हिस्से में अलगाववाद फैलाने के मकसद से पोस्ट किए, जिस कारण उन्हें यूएपीए के सेक्शन 13 की जद में लाया जाए जो ‘गैरकानूनी गतिविधियों’ के लिए दंड देता है.
गैर-कानूनी गतिविधियां यूएपीए के तहत इस रूप में परिभाषित हैं कि कोई भी कार्रवाई (बयान समेत) जिसका मकसद भारत में अलगाववाद फैलाना (या इसका समर्थन/इस मकसद से उकसाने जैसा) है या जिससे यह खुलासा होता है कि यह भारत की अखण्डता और एकता पर सवाल उठाता है या इसमें बाधक है (या बाधा बनने का इरादा दिखाते हैं).
चूंकि इसमें अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध शामिल है, संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के साथ इस प्रावधान को देखने की जरूरत है. और इस मुताबिक ऐसे पोस्ट से “भारत की अखण्डता और संप्रभुता, राज्य की सुरक्षा” को वास्तविक खतरा होना जरूरी है.
इसी तरीके से आईपीसी की धारा 505 (जनता की शरारत) के आरोप को न्यायसंगत बनाने के लिए यह दिखाना जरूरी होगा कि ये पोस्ट जनता में भय पैदा करने के मकसद से किए गये या इसके जरिए सांप्रदायिक हिंसा या फिर समुदायों में शत्रुता फैलाने की कोशिश की गयी.
छद्म या वीपीएन के जरिए महज सोशल मीडिया साइट के एक्सेस करने से सरकारी आदेश के बावजूद कोई यूएपीए या आईपीसी के सेक्शन 505 के तहत नहीं आ जाता है.
अधिक से अधिक इस तरह के एक्सेस आईपीसी के सेक्शन 188 का उल्लंघन हो सकते हैं जो किसी नौकरशाह की ओर से जारी वैधानिक आदेश की अवज्ञा के लिए है. टेलीकॉम सस्पेंशन रूल्स 2017 में किसी सजा का प्रावधान नहीं है.
आईटी एक्ट का सेक्शन 66ए क्या है?
किसी भी सूरत में इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी एक्ट के सेक्शन 66 ए (बी) के तहत केस रजिस्टर करने का कोई औचित्य नहीं दिखता क्योंकि यह समूचा प्रावधान सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में श्रेया सिंघल मामले में (देखें पैरा 119) खारिज कर दिया था.
सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि सेक्शन 66ए अस्पष्ट और जरूरत से ज्यादा व्यापक है, इसमें ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया गया है जिसका गलत मतलब निकालना और दुरुपयोग करना आसान है और इसलिए यह असंवैधानिक है.
नतीजे के तौर पर सोशल मीडिया पोस्ट के लिए इस प्रावधान के तहत लोगों पर केस दर्ज करना सरासर गैरकानूनी है और अगर इस केस को ट्रायल के लिए ले जाया जाता है तब भी उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.
दिलचस्प बात यह है कि अगर कर्नाटक हाईकोर्ट के उदाहरण का पालन करें तो जिन पुलिस अधिकारियों ने यह केस इस प्रावधान के तहत रजिस्टर किया है उनके विरुद्ध ही यह धारा लग सकती है. जनवरी में अदालत ने सेक्शन 66ए के तहत एफआईआर दर्ज करने वाले दो पुलिस अफसरों पर 10-10 हजार रुपये का जुर्माना यह कहते हुए लगाया कि “यह कुछ और नहीं बल्कि नागरिकों को परेशान करने केल ए कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग है.”
सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कहा है कि फैसले का उल्लंघन करने वाले पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तार भी किया जा सकता है.
इन आरोपों में दर्ज लोगों के लिए क्या सजा है?
सेक्शन 188, आईपीसी
- अगर आदेश की अवज्ञा के कारण आदेश पारित करना वाला सरकारी सेवक “बाधित, खीज या घायल” होता है तो आईपीसी के सेक्शन 188 के उल्लंघन की अधिकतम सजा एक महीने की कैद और 200 रुपये का जुर्माना है.
- अगर इस वजह से आगे कोई दंगा होता है या कलह होता है तो छह महीने के दंड और 1000 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है.
सेक्शन 505, आईपीसी
- आईपीसी के सेक्शन 505 के तहत अपराध की अधिकतम सजा तीन साल की कैद और जुर्माना है.
सेक्शन 13, यूएपीए
- यूएपीए के सेक्शन 13 के तहत दोषी पाए जाने पर एक व्यक्ति को जुर्माने के साथ-साथ 7 साल तक की सज़ा हो सकती है.
- अगर यूएपीए के तहत किसी पर केस दर्ज होता है तो सजा से पहले भी जमानत के वक्त उसे बुरे अंजाम भुगतने पड़ सकते हैं. ऐसे व्यक्ति को अग्रिम जमानत नहीं मिलती. गिरफ्तारी के बाद जमानत पाना लगभग असम्भव है क्योंकि सेक्शन 43 डी (5) कहता है कि कोई अदालत किसी को जमानत पर नहीं छोड़ सकती है अगर प्रथम दृष्टि में उसके विरुद्ध मामला बनता है.
- यूएपीए का सेक्शन 43डी (2) पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति की हिरासत की अवधि को भी (30 दिन तक) दो गुणा बढ़ा सकता है और उन मामलों में जिनमें केवल 60 दिन की न्यायिक हिरासत हो सकती है, 90 दिन की न्यायिक हिरासत की अनुमति दे सकता है.
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