Lok Sabha Election 2024: 4 अगस्त 2019 की रात को, कश्मीर स्थित लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपनी दूरियां खत्म कीं और धारा 370 को रद्द किए जाने का संयुक्त रूप से विरोध करने के लिए एक साथ आए. लगभग सात दलों के नेता गुप्कर की तलहटी में पहुंचे. यह श्रीनगर में एक समृद्ध झील के किनारे का इलाका है जहां अधिकांश पूर्व मुख्यमंत्री रहते हैं. उन्होंने यहां एक साथ मार्च किया, और उन महत्वपूर्ण निर्णयों पर अपनी नाराजनी व्यक्त की और उन्हें अस्वीकार कर दिया जो संसद में अगले दिन लिए जाने थे.
इस तरह की राजनीतिक पहल एक व्यापक आधार वाली एकता का संकेत दे रही थी. इससे लगा कि बीजेपी के लिए मामले जटिल हो जाएंगे क्योंकि वह इस पूर्ववर्ती राज्य की स्वायत्त स्थिति को खत्म करने के लिए आगे बढ़ी थी.
लेकिन फिर भी चार साल से अधिक समय के बाद, ऐसी एकता लगभग समाप्त हो गई है. अब इस केंद्र शासित प्रदेश में 2019 के बाद से पहला बड़ा चुनाव हो रहा है.
जम्मू-कश्मीर चुनावी मौसम में प्रवेश कर चुका है और अब क्षेत्र में राजनीतिक परिदृश्य बहुत अधिक मतभेदों से घिर गया है. राजनीतिक जानकारों का सुझाव है कि भले ही यह स्थिति जटिल है लेकिन यह पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं थी.
जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में बिखराव वहां की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी- नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) के निर्णय से और भी बदतर हो गया है. दोनों ने फैसला किया है कि गठबंधन में चुनाव लड़ने के बजाय दोनों अलग-अलग लड़ेंगे. लेकिन स्थिति यहां तक कैसे पहुंची?
जम्मू-कश्मीर में पांच संसदीय सीटें हैं. इनमें से दो हिंदू-बहुल जम्मू क्षेत्र में और तीन मुस्लिम-बहुल कश्मीर में हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान, बीजेपी ने जम्मू की दो सीटें जीती थीं जबकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीर में तीन सीटें जीतीं.
लेकिन तब से कश्मीर में परिसीमन के बाद चुनावी नक्शा बदल गया है. इससे नए निर्वाचन क्षेत्र बने और मौजूदा निर्वाचन क्षेत्रों को नया रूप दिया गया. इस वजह से राजनीतिक समीकरण, जिस पर पारंपरिक पार्टियां भरोसा करती थीं, व्यावहारिक रूप से निष्क्रिय हो गया है.
शोपियां और पुलवामा जैसे दक्षिण कश्मीर सीट के कुछ इलाके, जो परंपरागत रूप से PDP के गढ़ रहे हैं, उन्हें मध्य कश्मीर सीट में मिला लिया गया है.
श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र के कुछ क्षेत्र, जैसे बीरवाह और बडगाम (दोनों NC के गढ़) अब उत्तरी कश्मीर सीट में हैं. इसी तरह, राजौरी और पुंछ क्षेत्र जो जम्मू निर्वाचन क्षेत्र का हिस्सा थे, उनको दक्षिण कश्मीर से जोड़ दिया गया है. यहां भी बीजेपी पहाड़ी आबादी को आरक्षण का लाभ देकर अपने साथ जोड़ रही है.
यह एकमात्र परिवर्तन नहीं है जो हुआ है. कम से कम दो नई पार्टियों के आने के साथ जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक कैनवास भी व्यापक हो गया है. इसमें से एक का नेतृत्व पूर्व कांग्रेस नेता, गुलाम नबी आजाद कर रहे हैं और दूसरे का नेतृत्व पीडीपी के दलबदलू और पूर्व मंत्री अल्ताफ बुखारी कर रहे हैं.
और सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (PC) के भी मैदान में होने से, जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक क्षितिज में अब बहुत सारे चमकदार सितारे हैं.
NC की राजनीतिक रणनीति
बीजेपी ने अनुमान लगाया, और शायद सही भी, कि इस पैमाने पर एक बड़ा फेरबदल जम्मू-कश्मीर में विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास को विफल कर सकता है. वजह है कि घटक दल अपने-अपने हितों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं.
इस साल 16 फरवरी को ठीक ऐसा ही हुआ जब NC अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने घोषणा की कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ेगी. पीडीपी दो समूहों – INDIA अलायंस और पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकर डिक्लेरेशन के माध्यम से NC से जुड़ी हुई थी. लेकिन फारूक के इस फैसले ने उसे आश्चर्य की स्थिति में डाल दिया था.
PDP के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री नईम अख्तर ने द क्विंट को बताया, “हम इस चुनाव में एक एकीकृत चेहरा सामने रखने की उम्मीद कर रहे थे. कश्मीर के सबसे वरिष्ठ राजनेता के रूप में फारूक अब्दुल्ला ने अगर इस क्षण को सफलतापूर्वक देखा होता, तो उन्होंने खुद को गौरवान्वित महसूस कराया होता.''
PDP उम्मीद कर रही थी कि उसके सहयोगी (इसे NC पढ़ें) दक्षिण कश्मीर सीट छोड़ देंगे जहां पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को सीधे बीजेपी से मुकाबला करना था.
लेकिन NC ने यहां से अपने खुद के उम्मीदवार मियां अल्ताफ को उतार दिया है, जो खानाबदोश गुज्जर समुदाय के सम्मानित धार्मिक नेता हैं. उन्हें मैदान में उतारने के पीछे का समीकरण यह है कि पुंछ और राजौरी क्षेत्र में गुज्जर आबादी काफी है और वहां उनका नाम मतदाताओं के बीच गूंजता है. अब यह दोनों क्षेत्र दक्षिण कश्मीर सीट का हिस्सा हैं.
क्या बीजेपी प्रॉक्सी उम्मीदवारों पर भरोसा कर रही है?
बीजेपी ने अपनी ओर से दक्षिण कश्मीर सीट पर कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है. हाल ही में एक इंटरव्यू में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट रूप से सुझाव दिया कि पार्टी जम्मू की दो सीटों पर ध्यान केंद्रित करेगी.
उन्होंने कहा, ''कश्मीर में हमारे पास चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है. लेकिन हमारे पास पर्याप्त धैर्य है. हमें कश्मीर में अपने संगठन के निर्माण, विस्तार और मजबूती में अधिक समय लगाने की जरूरत है. हम काम करते रहेंगे और इंतजार करेंगे कि लोग खुद-ब-खुद बीजेपी को गले लगा लें.''
इसके बजाय, कश्मीर में बीजेपी के अनौपचारिक सहयोगी अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व वाली पार्टी ने पहाड़ी उम्मीदवार जफर इकबाल मन्हास को मैदान में उतारा है. इनमें से प्रत्येक जिले में पहाड़ी बहुसंख्यक हैं, और बीजेपी का अनुमान है कि पहाड़ी बीजेपी या उसके सहयोगी किसी भी उम्मीदवार को वोट देंगे क्योंकि सरकार ने उन्हें हाल ही में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया है.
श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए घमासान
श्रीनगर संसदीय सीट पर NC ने प्रमुख शिया मुस्लिम नेता आगा सैयद रुहुल्लाह मेहदी को मैदान में उतारा है. एक बार फिर, यहां उम्मीदवार का चयन परिसीमन के कारण उत्पन्न नई चुनावी वास्तविकताओं से प्रेरित प्रतीत होता है.
रुहुल्ला का प्रभाव मध्य कश्मीर जिले बडगाम के शिया-बहुल इलाकों में है. यह इलाके पहले श्रीनगर का हिस्सा थे, लेकिन अब उत्तरी कश्मीर (बारामूला) में शामिल हो गए हैं, जिसे आम तौर पर सज्जाद लोन की पार्टी, पीसी का गढ़ माना जाता है.
पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने गियर बदलने का फैसला किया है, और बड़ी-दांव वाली लड़ाई को सज्जाद लोन के घरेलू मैदान में ले जाने का फैसला किया है. उमर अब्दुल्ला उत्तरी कश्मीर (बारामूला) से चुनाव लड़ रहे हैं.
सीनियर एडिटर और विश्लेषक जफर चौधरी ने बताया, "NC के दृष्टिकोण से, श्रीनगर में जीत तय है.. पार्टी ने रूहुल्ला को श्रीनगर से मैदान में उतारकर उनका सम्मान किया है, और अब उनके शिया मतदाता, जिनमें से एक बड़ा प्रतिशत उत्तरी कश्मीर के कुछ हिस्सों में फैला हुआ है, उमर को वोट देंगे. कम से कम एनसी इसे इसी तरह देखता है.”
जफर चौधरी ने आगे कहा कि यह एकमात्र फैक्टर नहीं है जिसके एनसी को उनके पक्ष में काम करने की उम्मीद है. पार्टी ने अब तक श्रीनगर सीट के लिए हुए 13 चुनावों में से लगभग 10 और उत्तरी कश्मीर सीट के लिए हुए 12 चुनावों में से 9 में जीत हासिल की है.
उन्होंने कहा, "जब अब्दुल्ला जैसे वरिष्ठ नेता उत्तर से चुनाव लड़ने का फैसला करते हैं, तो पूरी पार्टी के कार्यकर्ता मतदाताओं से जुड़ने और चुनावी कैंपेन को ऊर्जा देने के अपने प्रयासों को खुद से दोगुना कर देते हैं."
महबूबा मुफ्ती के पास कोई विकल्प नहीं बचा
इससे महबूबा मुफ्ती दक्षिण में NC के मियां अल्ताफ के साथ आमने-सामने की लड़ाई में फंस गई हैं. जबकि उनकी पार्टी ने एक प्रभावशाली युवा नेता वहीद रहमान पारा को श्रीनगर से मैदान में उतारा है, जिन्हें मोदी सरकार ने आतंकवाद के आरोप में जेल में डाल दिया था और अब वो जमानत पर बाहर हैं.
पारा को यहां से उम्मीदवार बनाए जाने को इस तथ्य से भी समझाया जाता है कि पुलवामा के कुछ हिस्से, जो पहले दक्षिण कश्मीर सीट का हिस्सा थे, अब श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र के साथ हैं. इसी में उनका गृहनगर तहाब भी शामिल है.
जबकि उत्तरी कश्मीर में पार्टी पूर्व सांसद मीर मोहम्मद फैयाज को उम्मीदवार बना रही है.
एक आश्चर्यजनक कदम उठाते हुए गुलाम नबी आजाद अंतिम क्षण में चुनावी दौड़ से बाहर हो गये. ऐसा लगता है कि मैदान में अन्य दो पार्टियां, बुखारी की अपनी पार्टी (AP) और सज्जाद लोन की PC ने एक-दूसरे के साथ एक मौन सहमति बना ली है. सज्जाद लोन जहां केवल उत्तरी कश्मीर सीट (बारामूला) से चुनाव लड़ रहे हैं, वहीं बुखारी ने दक्षिण कश्मीर के अलावा श्रीनगर में भी एक उम्मीदवार खड़ा किया है.
राजनीति पहले से कहीं अधिक बंट गई है
कश्मीर स्थित एक राजनीतिक विश्लेषक ने बताया, "1996 तक, जम्मू-कश्मीर में पार्टियां अपने दम पर सरकारें बनाती थीं.. NC ने बहुत अधिक उग्रवाद के बीच 1996 के चुनावों में भाग लिया और जम्मू-कश्मीर की खत्म हुई स्वायत्तता को बहाल करने का वादा किया. इसने विधानसभा में ऐसा एक प्रस्ताव भी पारित किया."
उन्होंने कहा कि NC के स्वायत्तता वाले प्रस्ताव ने नई दिल्ली को इस हद तक भयभीत कर दिया कि उसने संकल्प लिया कि भविष्य में किसी भी एक पार्टी को अपने दम पर बहुमत सीटें नहीं जीतनी चाहिए. इसका सबूत वरिष्ठ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी के संस्मरण, माई कंट्री, माई लाइफ से मिलता है, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि कैसे "26 जून 2000 को राष्ट्र स्तब्ध रह गया था" जब प्रस्ताव अपनाया गया था.
विश्लेषक ने कहा, “उसके बाद, हमने PDP का उदय देखा. और NC धीरे-धीरे 2002 में 40 सीटों से घटकर 28 और फिर 2014 में 15 सीटों पर आ गई. उसके बाद से जम्मू-कश्मीर में सभी बाद की सरकारें गठबंधन सरकारें रही हैं.''
राजनीतिक विशेषज्ञों ने कहा कि क्षेत्रीय दलों के बीच एक बढ़ती एकता को रोकने की यह प्रवृत्ति बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की नीतियों में सक्रियता से रही है.
सीनियर एडिटर और संपादक और विश्लेषक चौधरी ने कहा, “कश्मीर को स्थायी संघर्ष का स्थल बनाने में एक प्रमुख कारक सत्ता की राजनीति रही है. इसका मतलब यह है कि आप कैसे एक मुद्दा बनाने और राजनीतिक लाभ के लिए इसका फायदा उठाने में सक्षम हैं.. 1953 से ऐसा ही हो रहा है."
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