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जनधन स्कीम से जुड़ने वाले जन के लिए धन कहां है?

जनधन योजना का मकसद सिर्फ नए बैंक खाते खोलना नहीं था.

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चार साल पहले जनधन स्कीम के ऐलान के बाद करीब 31 करोड़ लोग बैंकिंग सिस्टम से जुड़ चुके हैं. क्या इसका जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए?

हां, अगर सिर्फ संख्या की बात करें, तो मानना पड़ेगा कि कमाल हुआ था.

बिल्कुल नहीं, अगर ऐलान के पहले और बाद में जो हुआ, उस पर नजर डालें, तो दूसरी ही कहानी सामने आती है.

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जनधन योजना से जुड़े इन आंकड़ों पर नजर डालकर आप खुद ही फैसला कर सकते हैं:

- इस योजना से पहले भी जीरो बैलेंस खाते खोले जा रहे थे और गरीबों को बैंकिंग सिस्टम से जोड़ा जा रहा था. वर्ल्ड बैंक फाइनेंशियल इनक्लूजन इनसाइट्स के हवाले से इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) के एक रिसर्च पेपर में बताया गया है, ‘साल 2011 में 15 साल से अधिक उम्र वर्ग में बैंक खाते रखने वालों की संख्या 35 पर्सेंट थी, जो 2014 में बढ़कर 53 पर्सेंट हो गई थी.

वहीं, फाइनेंशियल इनक्लूजन इनसाइट्स के हालिया सर्वे से पता चलता है कि ऐसे लोगों की संख्या अब 62 पर्सेंट पहुंच गई है.’

इसमें कोई शक नहीं है कि जनधन योजना के बाद बैंक खातों की संख्या बढ़ी है, लेकिन इस मामले में बड़ी तरक्की इससे पहले के दो सालों में भी हुई थी.

- क्या इस योजना से लोगों का बैंकिंग सिस्टम से जुड़ाव बढ़ा है? जनधन योजना के तहत 5 करोड़ नो फ्रिल्स अकाउंट ऐसे हैं, जिनमें कुछ भी रकम जमा नहीं है. करीब 20 पर्सेंट अकाउंट ऐसे हैं, जिनमें पिछले दो साल में एक भी ट्रांजेक्शन नहीं हुआ है.

इसका मतलब यह है क्या कि जहां लोगों की बैंक तक पहुंच बढ़ी है, वहीं उनमें से ज्यादातर लोगों के लिए बैंकिंग ट्रांजेक्शन अफोर्डेबल नहीं हैं?

जनधन योजना का मकसद सिर्फ नए बैंक खाते खोलना नहीं था.

- जनधन खाताधारकों से जो दूसरे वादे किए गए थे, उनका क्या हुआ? 5,000 रुपये तक के ओवरड्राफ्ट की सुविधा सिर्फ 1 पर्सेंट खाताधारकों को मिली, जबकि योजना लागू होने के बाद महज 1,875 रुपये का इंश्योरेंस क्लेम का निपटारा हुआ. इसका मतलब यह है कि खाताधारकों से जो दूसरे वादे किए गए थे, वो कागजी ही रह गए.

वित्तीय छुआछूत खत्म हुई?

जनधन योजना का मकसद सिर्फ नए बैंक खाते खोलना नहीं था. इसे ‘वित्तीय छुआछूत’ खत्म करने के लिए लाया गया था, यानी बैंकों तक बड़ी आबादी की पहुंच बनाकर उनके लिए वित्तीय समावेश के दरवाजे खोलना था. इस मामले में प्रदर्शन कैसा रहा है?

इसका एक पैमाना यह हो सकता है कि क्या इन लोगों को बैंकों से ज्यादा कर्ज मिल रहा है? ईपीडब्ल्यू के पेपर के मुताबिक:

‘प्रधानमंत्री जनधन योजना के खाताधारकों को बैंकों से अधिक कर्ज मिलने के संकेत नहीं दिखे हैं.’

इस पेपर में बताया गया है कि 1999 में ग्रामीण क्षेत्रों में क्रेडिट-डिपॉजिट रेशियो 41 था, जो 2016 में बढ़कर 66.9 हो गया था. इसमें भी ज्यादा बढ़ोतरी जनधन योजना के लागू होने से पहले हुई थी.

ईपीडब्ल्यू के पेपर के मुताबिक, यूपीए 1 के कार्यकाल के दौरान 2004 में यह 43.6 था, जो 2009 में बढ़कर 57.1 पहुंच गया था. 2014 के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में यह कमोबेश स्थिर रहा है, जबकि छोटे शहरों और कस्बों में 2014 के 58.2 से यह घटकर 2016 में 57.7 रह गया था.

क्रेडिट-डिपॉजिट रेशियो का मतलब यह है कि किसी वर्ग के हर 100 रुपये के डिपॉजिट पर उसमें से कितना पैसा उसकी खातिर कर्ज के लिए उपलब्ध रहता है. ग्रामीण इलाकों में कम क्रेडिट-डिपॉजिट रेशियो का मतलब यह है कि उन क्षेत्रों में जितना पैसा बैंकों में जमा कराया गया, उसका छोटा हिस्सा ही उन्हें कर्ज के रूप में मिला.

कहा गया था कि जनधन योजना से ग्रामीण लोगों को खासतौर पर फायदा होगा, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि यह मकसद हासिल नहीं हो पाया है. ईपीडब्ल्यू के पेपर में बताया गया है कि सबसे गरीब तबके में अगर 6 परिवार को बैंकों से कर्ज मिला, तो 12 को वित्तीय जरूरत पूरी करने के लिए महाजनों के पास जाना पड़ा.

काफी गरीब परिवार अब भी महाजनों के चंगुल में फंसे हैं. हर पांच में से एक गरीब परिवार महाजनों से बहुत ही ऊंची दर पर कर्ज लेने को मजबूर है. इसका मतलब यह है कि बैंक खाते खुलने से गरीबों को महाजनी कुचक्र से मुक्ति नहीं मिल पाई है.
जनधन योजना का मकसद सिर्फ नए बैंक खाते खोलना नहीं था.
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बैंकों का प्रभाव

इसमें दो राय नहीं है कि बैंकिंग सिस्टम के दायरे में हर किसी को लाना बहुत अच्छा आइडिया है. हालांकि जब भी किसी आइडिया को लागू किया जाता है, तो उसके नफा-नुकसान भी देखे जाते हैं. इस मोर्चे पर जनधन योजना कितना खरा उतरा है?

इस योजना से कुछेक लोगों को लाभ तो हुआ है, लेकिन करोड़ों नए खाते खुलने से बैंकिंग सिस्टम पर बोझ काफी बढ़ गया. अक्सर जैसा होता आया है, इस मामले में भी सरकारी बैंकों पर मार ज्यादा पड़ी. खबरों के मुताबिक, सिर्फ 3 पर्सेंट जनधन खाते ही निजी बैंकों में खुले.

ब्लूमबर्गक्विंट की रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसा एक खाता खोलने की लागत 200 से 350 रुपये है और उसे मैनेज करने के लिए बैंक को साल में 50 रुपये खर्च करने पड़ते हैं.

यानी बैंक हर साल जनधन खातों को मेंटेन करने पर 1,600 करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं!

क्या यह सब जानने के बाद हम कह सकते हैं कि जनधन योजना सफल रही है? वैसे हमें यह नहीं पता है कि सरकारी योजनाओं का पैसा सीधे बैंक खातों में भेजने से जनधन योजना के लाभार्थियों की जिंदगी में कितना बदलाव आया है.

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