ADVERTISEMENTREMOVE AD

बेबस और हताश विचार है रेपिस्ट की लिंचिंग

लिचिंग क्या पहले से कम हो रही है कि लिंचिंग की एक और जमात पैदा की जाए?

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

राज्यसभा में जया बच्चन ने बलात्कारियों के लिए लिंचिंग की मांग कर दुनिया को चौंका दिया है. इकलौता विरोध भी सदन में नहीं दिखा, यह जया बच्चन के बयान से भी अधिक चौंकाने वाली घटना है.

जब विरोध कठोर शब्दों में होने लगे, तो समझिए कि बेबसी अपनी सीमाएं लांघ रही है. एक बेबस इंसान अक्सर ऐसी ही ऊंची आवाज में अपनी बेबसी का इजहार करता है. जया बच्चन और उनके साथ खामोश सदन आज कुछ ऐसी ही बेबसी में दिखाई पड़े.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

रेपिस्ट से लड़ेंगे लिंचर, लिंचर से लड़ेगा कौन?

जया बच्चन की मांग इस बात का ऐलान है कि प्रशासन से लेकर शासन व्यवस्था और समाज बलात्कारियों के आगे विफल और प्रभावहीन हो चुका है. क्या ऐसे ही विफल और निस्तेज समाज की भीड़ से इंसाफ की उम्मीद नहीं कर रही हैं जया बच्चन? लिचिंग क्या पहले से कम हो रही है कि लिंचिंग की एक और जमात पैदा की जाए? कभी 'डायन' कहकर, कभी 'बच्चा चोर' कहकर अधिकतर मामलों में महिलाओं की ही लिंचिंग हुई है. किसी लड़की ने मोहब्बत कर ली, तो भी सजा लिंचिंग ही रही है.

जया बच्चन के सुझाव को हम इस तरह से भी कह सकते हैं कि बलात्कारी तो हमसे डर नहीं रहे और हम लिंचर पैदा करना चाहते हैं? क्या एक के चंगुल से छूटने के लिए दूसरे के चंगुल में जाना चाहते हैं?

अन्याय को अपनाकर अन्याय क्या दूर किया जा सकता है? सवाल ये है कि रेपिस्ट से अगर लिंचर लड़ेंगे, तो लिंचर से कौन लड़ेगा? इतने सारे सवालों को सुनकर एक सवाल जेहन में पैदा होता है कि तब करें क्या?

रेप के लंबित मामलों पर क्यों नहीं बनता ट्रिब्यूनल?

बलात्कार और हत्या की घटना के बाद उस एक घटना के बारे में सिर्फ न सोचें. विगत की ऐसी तमाम घटनाओं के बारे में सोचें. हमने उन घटनाओं में क्या किया? या फिर तुरंत क्या करने की जरूरत है? बलात्कार या फिर बलात्कार के साथ हत्या के सभी लम्बित मामलों को एक निश्चित समयावधि में निबटाना और दोषियों को मौजूदा कानून के तहत दंडित करना पहला कदम होना चाहिए.

देश में करीब डेढ़ लाख बलात्कार के मामले अदालतों में लम्बित हैं. क्यों नहीं एक ट्रिब्यूनल बनाकर इन मामलों को तेजी से निपटाने का फैसला लिया जाता है? ऐसा करने पर हम भविष्य में ऐसी ही डेढ़ लाख की संख्या को नियंत्रित कर पाएंगे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

चार में तीन रेपिस्ट को ही मिल पाती है सजा

बलात्कार के मामलों में सजा की दर घटती चली गई है. 1973 में 44.3 फीसदी बलात्कारियों को सजा मिल रही थी. 2012 में यह 24.2 फीसदी पर आ गई. एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 में 38,947 बलात्कार के मामले सामने आए. इनमें से सिर्फ 4,739 को ही सजा मिल पाई. सजा की दर 25.5 फीसदी रही.

इसका मतलब ये हुआ कि सिर्फ चार में से एक आरोपी ही बलात्कारी साबित हो पाया. सांसद जया बच्चन की भावना का खयाल करें, तो आरोपमुक्त हो चुके चार में से तीन आरोपियों को यह अवसर नहीं मिलता, अगर उन्हें भीड़ के हवाले कर दिया जाता.

सवाल यह है कि जिन तीन आरोपियों के विरुद्ध आरोप साबित नहीं हो सके, उसके लिए गुनहगार कौन है? उन्हें क्यों नहीं भीड़ के सुपुर्द किए जाने की मांग भी उठ पाती है? हालांकि यह मांग भी उतनी ही गलत होगी. मगर आरोपों से बरी होने के लिए आरोपी को जिम्मेदार नहीं बताया जा सकता. इसका जवाब तो अभियोजन प्रक्रिया में ही तलाशा जा सकता है.

जब आरोपी को पता है कि उसके विरुद्ध आरोप साबित होने की गुंजाइश महज 25 फीसदी है, तो अपराध के प्रति उसका आकर्षण क्यों कम होगा?
ADVERTISEMENTREMOVE AD

एक सच्चाई ये भी है

एडीआर ने एक आंकड़ा 2018 में सामने रखा था, जिसमें 1581 सांसद-विधायकों में 51 पर महिलाओं के विरुद्ध बलात्कार, अपहरण, जोर-जबरदस्ती जैसे आरोप थे. राजनीतिक दल धड़ल्ले से बलात्कार के आरोपियों को न सिर्फ उम्मीदवार बनाते हैं बल्कि मंत्री भी बनाते रहे हैं. कई एक पर तो विधायक, सांसद या मंत्री बनने के बाद आरोप लगते रहे हैं.

2018 में संसद में 12 साल से छोटी उम्र की बच्ची से गैंगरेप के मामले में फांसी की सजा का कानून बना. 12 साल से अधिक उम्र के मामले में बलात्कार के बाद मौत होने पर यह प्रावधान है. हाल की चर्चित घटनाएं इन दोनों कानूनों की परिधि में आते हैं. सवाल ये है कि इन कानूनों के रहते जब घटनाएं हो रही हैं, तो भीड़ के हाथों आरोपियों को सौंप देने से क्या बलात्कार जैसी घटनाएं रुक जाएंगी? मौजूदा कानूनों की असफलता का यह ऐलान तो हो सकता है, लेकिन समाधान कतई नहीं हो सकता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

रेप से पहले की सक्रियता अधिक जरूरी

बलात्कार की घटना के बाद सक्रियता इसलिए जरूरी है ताकि समाज में डर घर नहीं कर जाए. इसके उलट अपराधी खौफ में रहें. यह खौफ समाज, प्रशासन और कानून का होना चाहिए. आरोपी की धर-पकड़ से लेकर उसे सजा दिलाने तक यह खौफ अपराधी के लिए पैदा किया जा सकता है.

जरूरत इस बात की है कि बलात्कार की घटना से पहले की सक्रियता पर ध्यान दिया जाए. अक्सर यह सक्रियता अहतियात के तौर पर होती है और वह भी सिर्फ संभावित पीड़िता यानी महिलाओं के लिए होती है. महिलाएं को इस समय या उस समय निकलना या नहीं निकलना चाहिए, यहां या वहां जाना या नहीं जाना चाहिए, ये या वो या फिर ऐसे या वैसे कपड़े पहनना या नहीं पहनना चाहिए. सेल्फ डिफेंस जैसी सलाह भी दे दी जाती है. वास्तव में इन उपायों से जहां महिलाओं में डर पैदा होता है, वहीं महिलाओं के प्रति अपराध करने वाले बेखौफ होते चले जाते हैं, जबकि उनकी तैयारी भी साथ-साथ चल रही होती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

संदिग्ध पुरुष की पहचान, निगरानी व सुधार का सिस्टम बने

महिलाओं के प्रति अपराध कर सकने वाले पुरुषों को निगरानी में लाने की जरूरत है. उन्हें नैतिक रूप से मजबूत किया जाए. जीवन के मकसद को वे पहचानें. रचनात्मकता से वे जुड़ें. शिक्षा को सिर्फ रोजगार से जोड़ने के बजाए परोपकार से जोड़ें. बुरी प्रवृत्ति वाले युवाओं की पहचान का एक सिस्टम बनाया जा सकता है. इसके लिए सूचनाएं आमंत्रित करने की व्यवस्था हो सकती.

किसी शख्स की बुरी प्रवृत्ति के बारे में दो-तीन शिकायतें मिलते ही उसे निगरानी में लेना भी एक एहतियात हो सकता है. ऐसा करके उसे सुधार की ओर प्रवृत्त किया जा सकता है. यह एक ऐसा चक्र है कि 25 फीसदी काम के 100 फीसदी नतीजे मिल सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्यों नहीं है पुलिस पर यकीन

पीड़िता हर घटना में बेबस, डरी हुई, मदद से दूर और अंजाम भुगतने को अभिशप्त रही हैं और आगे भी रहेंगी. इन स्थितियों से बचने की उसके पास योजना नहीं होती. योजना हो तो अवसर नहीं होता. अवसर हो तो मदद न होती. मदद इसलिए कि वह परिस्थिति का शिकार होती है और इसलिए कमजोर होती है. तभी उससे जबरदस्ती होती है. बगैर मदद के वह अपने बचाव की सोच भी नहीं पाती.

हैदराबादा में वेटनरी डॉक्टर से गैंगरेप और फिर उन्हें जिंदा जलाए जाने के मामले में तेलंगाना के गृहमंत्री के उस बयान की आलोचना जरूरी है कि पीड़िता की जान बच जाती, अगर उसने अपनी बहन के बजाए पुलिस को फोन किया होता. यह बयान उल्टे पीड़िता को ही घटना का जिम्मेदार ठहराता है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

डरपोक होते हैं अपराधी, समाज निडर बना देता है

डरा हुआ अपराधी भी होता है. तभी वह सबूत मिटाता है. छिपता है, भागता है. मगर अपराध करने का जुनूनी भी होता है वह. डर और जुनून के बीच अपराध करते लोगों को समय रहते रोकने का काम ही जरूरी है. अगर समाज का डर हावी हो गया, तो अपराध का जुनून ठंडा पड़ जाएगा. मगर किसी भी सूरत में अपराध हो जाने के बाद अपराधी की मॉब लिंचिंग समस्या का इलाज नहीं है. यह सुझाव डिप्रेशन में जा चुके समाज की आवाज जरूर हो सकती है. किसी संवेदनशील समाज की आवाज नहीं हो सकती.

(प्रेम कुमार जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्‍व‍िंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×