एक ऐसी पार्टी जिसका परचम पूरब से पश्चिम तक लहरा रहा है. जिसके पास 'चक्रवर्ती' चेहरा है. जिसके एजेंडे पर 303 लोकसभा सीटों का दिल आया है, वो अपने दुश्मनों से तो छोड़िए, दोस्तों तक से निपट नहीं पा रही. महाराष्ट्र में 30 साल से बीजेपी की साथी शिवसेना अलग हो गई. ये खबर अभी सुर्खियों से हटी भी नहीं थी कि झारखंड से चौंकाने वाली खबरें आ गईं. झारखंड में 19 साल से बीजेपी की सहयोगी आजसू पार्टी अलग हो गई. दो और सहयोगी भी ताल ठोंक रहे हैं. परेशानी सिर्फ इतनी नहीं है. बीजेपी के लोग पार्टी छोड़-छोड़कर जा रहे हैं. पार्टी को अपने ही नेताओं पर भरोसा नहीं रहा. तो आखिर झारखंड में हुआ क्या है?
काफी समय से NDA का हिस्सा रही आजसू पार्टी ने बगावत का बिगुल बजा दिया. जिस पार्टी के नेता मोदी सरकार में मंत्री हैं, उस LJP ने झारखंड में बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. बिहार में नीतीश ‘मोदी के मित्र’ हैं, झारखंड में वो भी अपनी राह चल पड़े हैं.
बिछड़े सभी बारी-बारी
- आजसू पार्टी ने 12 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. गठबंधन टूटने के बाद बाकी सीटों पर भी करेगी
- बीजेपी के बागी राधाकृष्ण किशोर ने छतरपुर से आजसू के टिकट पर नामांकन कर दिया
- LJP ने 81 में से 50 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है
- जेडीयू ने भी झारखंड में अलग चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. पार्टी ने अब तक 13 उम्मीदवारों के नाम बता दिए हैं
NDA के झारखंड कुनबे में किचकिच क्यों?
बीजेपी ने आजसू को दस सीटों का प्रस्ताव दिया था. साथ ही तीन अन्य सीटों पर फ्रेंडली फाइल की डील दी थी. लेकिन आजसू ने इसे मानने से साफ इंकार कर दिया. पार्टी इस बात से खफा है कि 'बड़े भाई' बीजेपी ने 'छोटे भाई' से अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने से पहले पूछा तक नहीं.
ये कैसा गठबंधन है जिसमें सीट शेयरिंग पर बात बनी नहीं और पार्टी लिस्ट जारी कर देती है.सुदेश महतो, आजसू प्रमुख
एलजेपी की झारखंड में कुछ खास पकड़ नहीं है, लेकिन फिर भी उसे बीजेपी का रवैया बर्दाश्त नहीं हुआ. एलजेपी ने छतरपुर से शशिकांत, पांकी से रामदेव यादव, भवनाथपुर से रेखा देवी और हुसैनाबाद से आनंद प्रताप सिंह को चुनाव मैदान में उतार दिया है.
बीजेपी बातचीत करती तो कुछ सीटों पर सहमति बन सकती थी लेकिन पार्टी को 2014 की तरह एक सीट मंजूर नहीं. भाजपा को सहयोगियों को भी तरजीह देनी चाहिए.चिराग पासवान, LJP अध्यक्ष
कुल मिलाकर हर सहयोगी की यही राय है कि बीजेपी ने उनकी कद्र नहीं की. टूटन महागठबंधन में भी है. झारखंड विकास मोर्चा ने 46 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं. कांग्रेस के प्रदीप बालमुचू आजसू चले गए हैं. लेकिन जिस दौर में यूपीए के घटक दलों से बीजेपी जाना आम बात लगने लग गई है वहां ये लड़ाई झगड़े चौंकाते नहीं हैं.
झारखंड में और भी दुख हैं बीजेपी के लिए
छतरपुर से बीजेपी विधायक राधाकृष्ण किशोर ने टिकट न मिलने पर आजसू का दामन थाम लिया है. लेकिन बागवत की कहानी यही खत्म नहीं होती. बीजेपी के टिकट बंटवारे में दस मौजूदा विधायकों का टिकट कट गया है. ये सारे नेता बागी तेवर दिखा रहे हैं.
- बीजेपी के पूर्व मंत्री वैद्यनाथ राम जेएमएम में चले गए हैं.
- बरही के उमाशंकर अकेला कांग्रेस के साथ हो गए हैं.
- ताला मरांडी, फूलचंद मंडल, गणेश गंझू और अनंत प्रताप देव निर्दलीय चुनाव लड़ सकते हैं
अपनों पर भरोसा नहीं, 'आयात' से उम्मीद
जो बीजेपी राज्य में सत्ता में है, जिसे लोकसभा चुनाव में भी यहां जमकर जीत मिली उसका आलम देखिए. पहले चरण में 13 सीटों पर चुनाव होने हैं. इनमें से 12 सीटों पर बीजेपी ने उम्मीदवार उतारे तो तीन को छोड़कर बाकी सारे दूसरी पार्टियों से आए नेता हैं.
- विश्रामपुर से रामचंद्र चंद्रवंशी राजद से आए थे
- गढ़वा - सत्येंद्र नाथ तिवारी झारखंड विकास मोर्चा से आए
- छतरपुर- पुष्पा देवी झारखंड विकास मोर्चा से आईं
- भवनाथपुर- भानु प्रताप शाही ने अपनी पार्टी का विलय बीजेपी में किया
- पांकी - शशि भूषण मेहता झारखंड मुक्ति मोर्चा से आए
- डालटेनगंज - आलोक चौरसिया झारखंड विकास मोर्चा से आए
- लातेदार- प्रकाश राम झारखंड विकास मोर्चा से आए
- लोहरदगा- सुखदेव भगत कांग्रेस से आए
- छपरा- जनार्दन पासवान राजद से आए
इन तमाम जगहों के बीजेपी के कार्यकर्ता-नेता पूरे दिल से पार्टी के लिए काम करेंगे, पार्टी सिर्फ उम्मीद ही कर सकती है, गारंटी से नहीं कह सकती. ताज्जुब की बात ये है कि अपने विरोधियों को साधने और साथियों को साथ रखने के 'रसायन शास्त्र' में कथित तौर पर 'पीएचडी' कर चुकी पार्टी अपनों को ही क्यों नहीं समझा पा रही? जिस दौर में बीजेपी को अजेय मान लिया गया है, वहां इस छोटे से राज्य में बीजेपी की रणनीति बिखर क्यों गई है.
दरअसल बीजेपी को 303 से आगे और अभी वो जिन राज्यों में सीधे या सहयोगियों के साथ सत्ता में है वहां अपनी टैली और आगे बढ़ाना है तो उसे विरोधियों से ज्यादा सहयोगियों की जमीन खिसकानी होगी. सहयोगी पार्टी में तोड़फोड़ से लेकर ज्यादा सीटें हथियाने का कोई मौका बीजेपी छोड़ती नहीं. तो क्या उसके दोस्त इसी बात से पैनिक में हैं? क्या महाराष्ट्र में यही हुआ है, झारखंड में यही हो रहा है?
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