नारा था 65 पार, लेकिन हो गया बंटाधार. झारखंड में पिछली बार 37 सीटें जीतकर AJSU पार्टी के साथ सरकार बनाने वाली बीजेपी इस बार 26 सीटोंं पर सिमट गई. पहली नजर में लग सकता है कि ये तो सिर्फ एक राज्य में हार का मामला है. लेकिन सच्चाई है कि ये हार एक कड़ी है, जो शुरू कहीं और से हुई थी, और शायद खत्म कहीं और होगी. इस हार का बोझ इतना बड़ा है कि बीजेपी के लिए उठाना मुश्किल हो सकता है. दांव पर एक राज्य की सरकार नहीं, बीजेपी की पूरी चुनावी रणनीति है?
वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज
ये हार है बड़ी
जरा कल्पना कीजिए जिस देश में विपक्ष का कोई नामलेवा नहीं है, जिसकी खबरें सुर्खियां नहीं बनतीं. जिसके नेता टीवी चैनलों से पलायन करने पर मजबूर कर दिए गए हैं, उस विपक्ष को झारखंड में प्रचंड जीत मिली है. 81 सदस्यों वाले झारखंड विधानसभा में बहुमत के लिए 41 सीटें चाहिए लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-आरजेडी के गठबंधन को इससे कहीं ज्यादा 46-47 सीटें मिल गईं. तो लग रहा है कि ये विपक्ष की बड़ी जीत के बजाय, बीजेपी की बड़ी हार है. उसकी नीतियों की हार है, उसकी रणनीतियों की हार है.
झारखंड का चुनाव उस संक्रमण काल में हुआ है जिसके पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव थे और बाद में दिल्ली, बंगाल और बिहार में चुनाव हैं. ऐसे में अब बीजेपी के सामने बड़ी समस्या ये है कि उसके परखे हुए जो तीर झारखंड में फुस्स हो गए, वो आगे भी नाकाम तो नहीं हो जाएंगे?
तरकश के सारे तीर नाकाम?
आप पूरे झारखंड चुनाव प्रचार में पीएम मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और राजनाथ सिंह की रैलियां याद कर लीजिए. हर रैली में हिंदुत्व के एजेंडे का जोर था, राष्ट्रवाद का शोर था. रैली दर रैली ये बात कही कि गई कि हमने मंदिर के काम को मुकाम तक पहुंचा दिया. ये हुंकार था कि अब CAA लाए हैं, NRC भी लाएंगे, घुसपैठियों को देश से निकलना होगा. कश्मीर में दिखाए गए आर्टिकल 370 नाम के ‘शौर्य’ का जिक्र था. उससे पहले तीन तलाक पर नया कानून था. लेकिन लग रहा है कि इनमें से कोई तीर निशाने पर नहीं लगा. इसी तरह ध्रुवीकरण का एक और जांचा परखा नुस्खा भी काम न आया. रुझान बताते हैं कि आदिवासियों और मुसलमानों ने बीजेपी से मुंह मोड़ लिया.
राज्य के आदिवासी जल-जमीन-जंगल पर अपना हक मांग रहे थे. संविधान ने आदिवासी बहुल क्षेत्रों को जो अधिकार दिए हैं, आदिवासी वो हक मांग रहे थे. लेकिन आपने क्या दिया? आपने रांची के करीब खूंटी में दस हजार आदिवासियों को ‘पत्थलगड़ी’ के लिए देशद्रोही करार दे दिया. केस दर्ज करा दिया. रांची में जब भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा खंडित की गई तो आदिवासी आग बबूला हुए. परिणाम सामने है. आदिवासी-गैर आदिवासी के बीच ध्रुवीकरण की कोशिश फेल हो गई.
जिस पश्चिमी सिंहभूम में आपके उम्मीदवार देवेंद्र नाथ सिंह कांग्रेस के बन्ना गुप्ता से हारे हैं, इसी पश्चिमी सिंहभूम के सरायकेला में तबरेज अंसारी को मारा गया था.
महाराष्ट्र में भी मराठाओं के खिलाफ गैर मराठाओं को एकजुट करने की नीति फेल हो चुकी है. इससे पहले हरियाणा में भी जाट - नॉन जाट के बीच लड़ाई में हार मिल चुकी है.
झारखंड की हार इसलिए बड़ी है क्योंकि बीजेपी को अब आगे आने वाले चुनावों में राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और जातीय आधार पर ध्रुवीकरण की रणनीति से परे कुछ और नीति अपनानी होगी. समस्या ये है कि-- क्या?
राज्यों में मोदी काम न आएंगे
चुनाव कहीं भी हों बीजेपी की सरकारों और लोकल सरदारों को मोदी-शाह का सहारा रहता है. झारखंड चुनाव के लिए मोदी-शाह की 9-9 रैलियां हुईं. पीएम मोदी ने अपनी 9 रैलियों में 33 विधानसभा क्षेत्रों को टारगेट किया. वहीं अमित शाह ने अपनी रैलियों से 27 विधानसभा सीटों को कवर किया. इसके अलावा राजनाथ सिंह और आदित्यनाथ योगी ने भी रैलियां की. लेकिन बीजेपी को न तो 30 सीटें भी नहीं मिली. संदेश क्या है? संदेश ये है कि मोदी जी का चेहरा दिखा-दिखाकर आप लोकल चुनाव कब तक जीतेंगे.सीएम रघुवर दास समेत बीजेपी सरकार के चार मंत्री चुनाव हार गए.
- रघुवर खुद पूर्वी जमशेदपुर से हारे.
- जुगसलाई सीट से सिंचाई मंत्री रहे रामचंद्र सहिस हारे.
- दुमका सीट से समाज कल्याण मंत्री लुईस मरांडी हारीं
- मधुपुर से श्रममंत्री राज पलिवार हारे.
महाराष्ट्र में फडणवीस सरकार के खिलाफ गुस्सा था. मोदी का चेहरा काम न आया. हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार के खिलाफ नाराजगी थी, मोदी के नाम पर बहुमत वाली जीत न मिली. अब झारखंड में रघुवर दास सरकार के खिलाफ गुस्सा था, नतीजा सामने है.
बीजेपी के लिए ये हार इसलिए बड़ी है क्योंकि मोदी है तो राज्यों में भी मुमकिन है, ये आइडिया काम आता नहीं दिख रहा.
दलबदलुओं का भी आसरा नहीं
कर्नाटक, महाराष्ट्र से लेकर झारखंड तक में बीजेपी की एक रणनीति ये रही कि दलबदलुओं के सहारे चुनाव जीता जाए. कर्नाटक में जोड़तोड़ और कानूनी लड़ाई के बाद ये कारगर साबित हुआ, लेकिन महाराष्ट्र के बाद झारखंड में भी ये टोटका बेकार साबित होता दिख रहा है. महाराष्ट्र में उदयनराजे भोंसले जैसे दलबदलू बीजेपी के काम न आए. झारखंड में कई दिग्गज नेताओं ने ऐन चुनावों के वक्त पार्टी बदली लेकिन अपनी नई पार्टी को क्या ताकत देते, खुद हार गए.
- लोहरदगा से सुखदेव भगत कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में गए थे, बुरी तरह हारे. यहां कांग्रेस ही जीती.
- बरही सीट पर लड़ने वाले मनोज यादव कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में गए थे, हार गए. यहां कांग्रेस ही जीती.
- चतरा सीट से राजद को छोड़कर बीजेपी में गए जनार्दन पासवान हार गए. यहां आरजेडी ही जीती.
- कांग्रेस के पुराने नेता प्रदीप बालमुचू आजसू गए, लेकिन दूसरे नंबर पर भी नहीं आ सके, यहां जेएमएम के रामदास सोरेन जीते.
- छतरपुर सीट पर लड़ने वाले बीजेपी से आजसू में गए राधा किशोर सिंह भी हार गए. यहां बीजेपी ही जीती.
संदेश साफ है
- मंदिर पर कम और मंदी पर ज्यादा ध्यान दीजिए. प्याज पर पॉलिटिक्स नहीं हो रही क्योंकि प्याज के सालन की याद किसे है, जब रोटी पर बन आई है.
- नागरिकता किसे मिले, इसपर कम ध्यान दीजिए, नागरिक कैसे जी रहे हैं, इसपर ज्यादा.
- राष्ट्रवाद से ज्यादा राष्ट्र के लोगों की चिंता कीजिए.
- समाज के एक बड़े वर्ग को ठेंगा दिखाकर जीत नहीं मिल सकती है. सबका साथ-सबका विकास ही सही लाइन है..इसे छोड़िए मत.
- क्षेत्रिय पार्टियां लोकल मुद्दों को पकड़ें, लोकल चुनाव में यही काम आएंगे. जीत मिली है तो काम कीजिए, रोजगार लाइए, तरक्की लाइए, क्योंकि ये चुनाव आखिरी नहीं हैं.
- और विपक्ष, खासकर कांग्रेस ये समझे कि बिना मेहनत उसे वोटर बुला रहा है, तो जमकर मेहनत करे. जनता मौका दे रही है तो अनादर मत कीजिए..सिर्फ ट्विटर पॉलिटिक्स से काम नहीं चलेगा.
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