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JNU में फीस पर बवाल: शिक्षा पर सब्सिडी खैरात नहीं, देश की जरूरत है

डेनमार्क कॉलेज स्टूडेंट्स की सब्सिडी पर अपनी जीडीपी का 0.6% खर्च करता है.

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यह मजेदार खबर है कि अमेरिका में 30 साल से कम उम्र के हर तीन में एक व्यक्ति पर स्टूडेंट लोन है. क्योंकि अमेरिका में कॉलेज में पढ़ाई करना सबसे महंगा है. ओईसीडी की 2011 की रिपोर्ट का कहना है कि अमेरिका के पब्लिक कॉलेजों की औसत वार्षिक ट्यूशन फीस 6,000 डॉलर से ज्यादा है. किताबें और दूसरे खर्चों को जोड़ा जाए तो वहां पब्लिक यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स को साल में औसत 25,000 डॉलर से ज्यादा चुकाने पड़ते हैं.

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अपने देश के हिसाब से यह 18 लाख रुपए से भी ज्यादा होते हैं. अमेरिका में शिक्षा विलासिता की वस्तु है. भारत भी इसी राह पर है. कॉलेज, यूनिवर्सिटीज की फीस और बाकी खर्चे बढ़ाए जा रहे हैं.

जेएनयू उबल रहा है. देश के बाकी शहर भी. देहरादून से लेकर मुंबई तक. स्टूडेंट्स लगातार इस बात के लिए संघर्ष कर रहे हैं कि शिक्षा उनकी पहुंच से दूर न हो जाए. लगभग साढ़े दस हजार रुपए प्रति व्यक्ति की आय वाले देश में शिक्षा विलासिता न बन जाए. इस पर सरकारी सब्सिडी कायम रहे. दूसरी तरफ सब्सिडी का विरोध करने वाले तमाम तरह के तर्क दे रहे हैं. उनका कहना है कि सब्सिडी देकर सरकारी खर्च बढ़ता है. लोग सब्सिडी का दुरुपयोग करते हैं. स्टूडेंट्स राजनीति करते हैं- पढ़ाई नहीं.

सस्ती शिक्षा खैरात नहीं, हक है

आर्थिक उदारीकरण के बाद से ही सब्सिडी की नीति पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, परिवहन, ईंधन जैसी बुनियादी वस्तुओं पर सब्सिडी का विरोध किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि सब्सिडी किसी भी अर्थव्यवस्था पर दबाव की तरह होती है. यह दावा आर्थिक मंदी के दौरान कॉरपोरेट टैक्स में कटौती पर बगलें झांकना शुरू कर देता है.

सवाल ये है कि मुफ्त या कम कीमत पर सुविधाएं मुहैया कराना सरकारों का नैतिक कर्तव्य क्यों नहीं होना चाहिए? आखिर शिक्षा पर सब्सिडी क्यों गलत है? क्योंकि शिक्षा को अर्थव्यवस्था में निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए.

अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज की किताब ‘एन एन्सर्टेन ग्लोरी: इंडिया एंड इट्स कॉन्ट्राडिक्शंस’ स्पष्ट करती है कि विकास और सामाजिक प्रगति पर शिक्षा का बहुत असर होता है. शिक्षा हमें बेहतर जीवन जीने की क्षमता देती है. हमारे लिए रोजगार और आर्थिक प्रगति के रास्ते खोलती है. इससे हमें राजनीतिक आवाज मिलती है.

बेहतर स्वास्थ्य सेवा हासिल करने में मदद मिलती है. हम अपने कानूनी हक समझते हैं. इसके जरिए वर्ग विभाजन और गैर बराबरी में कमी आती है. सबसे बड़ी बात यह है कि शिक्षा मानवाधिकार है, खैरात नहीं. जाहिर सी बात है, स्वस्थ और शिक्षित मजदूर ही किसी अर्थव्यवस्था की आधारशिला होता है.

शिक्षा सस्ती करने के बहुत से लाभ हैं

बांग्लादेश में एक अध्ययन से यह बात साफ होती है. ढाका यूनिवर्सिटी में बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन विभाग के प्रोफेसर मुक्तदैर अल मुकीत ने 1995 से 2009 के दौरान देश में शिक्षा पर व्यय और आर्थिक विकास के बीच तुलना की. इस पर उन्होंने एक पेपर लिखा- ‘पब्लिक एक्सपेंडिचर ऑन एजुकेशन एंड इकोनॉमिक ग्रोथ: द केस ऑफ बांग्लादेश.‘

पेपर में मुकीत का कहना है कि सरकार अगर शिक्षा पर एक प्रतिशत अधिक खर्च करती है तो प्रति व्यक्ति जीडीपी में 0.34% का इजाफा होता है. इस खर्च में बजट आवंटन से लेकर इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना और सबसिडी देना, सभी शामिल हैं. ऐसी ही रिसर्च पश्चिम अफ्रीकी देशों में भी किए गए. सभी ने शिक्षा और आर्थिक विकास के बीच मजबूत संबंध होने की पुष्टि की.

हायर स्टडीज करने वाले पहले ही कम

जेएनयू प्रकरण के बाद उच्च शिक्षा में सब्सिडी पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. विडंबना यह है कि हमारे देश में उच्च शिक्षा में दाखिले यूं भी कम हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2017-18 के अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण में कहा गया है कि देश में सिर्फ 26% लोग यूनिवर्सिटीज में दाखिला लेते हैं. अंडर ग्रेजुएट स्तर पर सबसे ज्यादा 79.2% दाखिले लिए जाते हैं. इसके बाद पोस्ट ग्रेजुएट स्तर तक यह 11.2% रह जाता है.

सर्वेक्षण कहता है कि अंडर ग्रेजुएट स्तर के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दाखिलों की संख्या कम होती जाती है. यानी लोग हायर स्टडीज से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं. इसका एक दूसरा पहलू भी है. सरकार खुद शिक्षा पर कम से कम खर्च करती है. 2019-20 के बजट में शिक्षा पर केवल 3% आवंटन किया गया है. इसमें उच्च शिक्षा क्षेत्र के हाथ तो सिर्फ 1% लगा है. इसके चलते यूनिवर्सिटीज में संसाधनों का अभाव है.

यूजीसी का करीब 65% अनुदान सेंट्रल यूनिवर्सिटीज को मिलता है जबकि स्टेट यूनिवर्सिटीज को 35% पर तसल्ली करनी पड़ती है. इन्हीं स्टेट यूनिवर्सिटीज और उनसे संबद्ध कॉलेजो में सर्वाधिक दाखिले लिए जाते हैं.
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दुनिया के कई देशों में शिक्षा मुफ्त है

अपने यहां सरकार के उदासीन रवैये के बावजूद अगर युवाओं में उच्च शिक्षा के प्रति आग्रह दिखाई देता है तो इस पर आप खुश हो सकते हैं. सवाल फिर वहीं है- शिक्षा को सब्सिडाइज क्यों न किया जाए?

दुनिया के कई देशों में शिक्षा, खास तौर से उच्च शिक्षा मुफ्त और सस्ती है. स्वीडन में सरकारी और निजी कॉलेजों में कोई ट्यूशन फीस नहीं लगती. वहां 68% युवा यूनिवर्सिटीज में पढ़ते हैं. हर स्टूडेंट पर सरकार औसत 20 हजार डॉलर से ज्यादा खर्च करती है.

  • डेनमार्क कॉलेज स्टूडेंट्स की सब्सिडी पर अपनी जीडीपी का 0.6% खर्च करता है.
  • फिनलैंड अपने स्टूडेंट्स को स्कॉलरशिप और अनुदान देता है ताकि वे पढ़ाई-लिखाई के अलावा अपना दूसरा खर्चा चला सकें.
  • आयरलैंड 1995 से अपने फुलटाइम अंडर ग्रैजुएट स्टूडेंट्स को ट्यूशन फीस देता है.
  • आइसलैंड की सरकार हर स्टूडेंट पर औसत 10,419 डॉलर खर्च करती है और वहां 77% युवा यूनिवर्सिटीज में पढ़ते हैं.
  • नार्वे सरकार अपनी कुल जीडीपी का 1.3% हिस्सा कॉलेज सबसिडी पर खर्च करती है.
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हमें समस्या यह है कि सब्सिडी पर पलने वाले स्टूडेंट्स राजनीति करते हैं. सब्सिडी मिल रही है तो मुंह बंद करके पढ़ो. क्योंकि राजनीति और शिक्षा, दोनों को अलग-अलग बाइनरी में देखा जाता है. लेकिन शिक्षा का उद्देश्य ही यह है कि आप सवाल करें. सवाल करें और सवालों के जवाब भी तलाशें. अपने हक की बात करें. ये राजनीति नहीं है- असली शिक्षा है.

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