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प्रशांत भूषण अवमानना केस से चर्चा में आए जस्टिस मिश्रा कौन हैं?

जस्टिस मिश्रा के लिए ‘प्रतिष्ठा’ और ‘छवि’ के क्या मायने हैं

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सुप्रीम कोर्ट का नीति वाक्य है- यतो धर्म ततो जय. न्यायिक प्रक्रिया में भगवद गीता के इस श्लोक का अर्थ है- जहां धर्म या सच्चाई है, जीत वहीं होती है.

जस्टिस अरुण मिश्रा ने इस नीति वाक्य को खुद के संदर्भ में और समूची न्याय प्रणाली के लिए कई बार इस्तेमाल किया है. अरुण मिश्रा ने उस तीन सदस्यीय बेंच की अगुवाई कर रहे थे, जिसने वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में फैसला सुनाया. इस मामले में प्रशांत भूषण पर 1 रुपये का जुर्माना लगाया गया है.

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बहस के दौरान कि प्रशांत भूषण को कितनी और क्या सजा होनी चाहिए, इसपर जस्टिस मिश्रा ने ‘लक्ष्मण रेखा’ की बात कही थी, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी के दौरान भी पार नहीं किया जा सकता. फिर उन्होंने कहा था कि उनके 21 साल के करियर में उन्होंने किसी को ‘अवमानना के लिए सजा नहीं दी है.’

जस्टिस मिश्रा के लिए ‘प्रतिष्ठा’ और ‘छवि’ के क्या मायने हैं

जब प्रशांत भूषण ने कहा था कि वह किसी भी सजा के लिए तैयार हैं, लेकिन माफी नहीं मांगेगे तो जस्टिस मिश्रा ने उन्हें अपने फैसले पर दोबारा विचार करने का मौका दिया था और कहा था कि वे अपना ‘कानूनी दिमाग’ न लगाएं.

हालांकि कानूनी बिरादरी में प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के मामले की काफी आलोचना हुई है, लेकिन इस मामले और बेंच के फैसले को दरअसल अदालत की छवि और एक संस्थान के रूप में न्याय प्रणाली में जनता के भरोसे का सवाल बताया गया है.

ऐसा कई बार हुआ है, जब जस्टिस मिश्रा ने किसी अहम मामले की सुनवाई के दौरान अपनी छवि और प्रतिष्ठा का जिक्र किया है.

जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जजों ने तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के खिलाफ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. तब जस्टिस मिश्रा ने ‘साथी जजों द्वारा गलत तरीके से निशाना साधने’ पर दुख जताया था. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, जस्टिस मिश्रा ने कहा था कि, ‘अपने जीवन में मैंने सिर्फ इज्जत कमाई है और आप लोग उसी पर हमला करने की कोशिश कर रहे हैं.’ इसके बाद सुबह रोजाना की मीटिंग के दौरान तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा की मौजूदगी में जस्टिस मिश्रा भावुक हो गए थे. बाद में सीजेआई ने उन्हें शांत किया था.

भूमि अधिग्रहण के एक मामले से खुद को अलग करने से इनकार करते हुए जस्टिस मिश्रा ने अपनी अंतरात्मा की बात कही थी. साथ ही सही और गलत की भावना का भी जिक्र किया था. उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें इस बात की जरा भी आशंका होती कि वह इस मामले से न्याय नहीं कर पाएंगे तो खुद ही इससे अलग हो जाते.

3 दिसंबर 2019 को जस्टिस मिश्रा ने भूमि अधिग्रहण मामले की सुनवाई के दौरान सीनियर वकील गोपाल शंकरनारायण से कहा था कि अगर उन्होंने लगातार बहस करना बंद नहीं किया तो उनके खिलाफ अवमानना का मामला बन सकता है और इसके लिए उन्हें सजा हो सकती है. शंकरानारायण इस चेतावनी के बाद कोर्ट रूम से चले गए थे. बार ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी. इसके बाद जस्टिस मिश्रा ने सीनियर वकीलों के एक समूह के सामने कहा था कि वह ‘हाथ जोड़कर 100 बार माफी मांग सकते हैं.’

विवादों से लंबा नाता है

20 साल तक वकील रहे जस्टिस मिश्रा का बार के साथ अच्छा संबंध रहा है. लेकिन जुलाई 2014 में जब वह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, उसके बाद से कई विवादास्पद मामलों के कारण अपनी ही बिरादरी की आलोचनाओं का शिकार हुए. हाल के कई मामलों के चलते जस्टिस मिश्रा को काफी टीका टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है.

जस्टिस मिश्रा उस विशेष बेंच का हिस्सा थे जिसने 20 अप्रैल 2019 को सीजेआई गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले की सुनवाई की थी. ऐसे किसी मामले में चीफ जस्टिस का शामिल होना, बड़े विवाद का विषय था.

जस्टिस मिश्रा सीजेआई गोगोई और जस्टिस दीपक गुप्ता की तीन सदस्यों वाली बेंच के दूसरे सबसे सीनियर जज थे. इसके बाद सीजेआई गोगोई ने उनकी अध्यक्षता में एक नई बेंच का गठन किया जो इस दावे की जांच कर रही थी कि यौन उत्पीड़न के आरोप ज्यूडीशियरी को नुकसान पहुंचाने के ‘षडयंत्र’ का हिस्सा हैं. इस बेंच ने एक साल में एक भी सुनवाई नहीं की जबकि जस्टिस (रिटायर्ड) ए के पटनायक ने सितंबर 2019 में ही अपनी जांच जजों को सौंप दी थी.

फरवरी 2019 में जस्टिस मिश्रा की अगुवाई में तीन जजों की बेंच ने आदिवासियों और वनवासियों की बेदखली के आदेश दिए थे. अनुसूचित जाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) अधिनियम, 2006 के अंतर्गत भूमि पर इन लोगों के दावे को खारिज कर दिया गया. देशभर के एक्टिविस्ट्स और वकीलों ने इस आदेश की आलोचना की क्योंकि इस आदेश के कारण दस लाख आदिवासी अपनी जमीनों से बेदखल हो जाते. जब बड़े पैमाने पर इस आदेश का विरोध हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर स्टे लगा दिया.

अक्टूबर 2019 में जस्टिस अरुण मिश्रा ने पांच जजों की बेंच से अलग होने से इनकार कर दिया था जोकि उनके पिछले फैसले की जांच कर रही थी (नए भूमि अधिग्रहण कानून के मुख्य प्रावधानों की व्याख्या में परिवर्तन). इसकी किसान संगठनों सहित कई तबकों ने आलोचना की थी.

अगस्त 2019 में सीनियर वकील दुष्यंत दवे ने तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को लिखा था कि एक खास कॉरपोरेट समूह के खास मामलों को जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच को सौंपा जाता है जोकि अदालत के अपने नियमों का उल्लंघन है. अपने पत्र में दवे ने दो मामलों का जिक्र किया था जिन्हें रजिस्ट्री द्वारा गर्मियों की छुट्टियों में कथित रूप से लिस्ट किया गया जोकि पूरी प्रक्रिया का उल्लंघन है.

बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार से करीबी का आरोप

कई हाई प्रोफाइल मामलों में कानूनी बिरादरी ने ही जस्टिस मिश्रा को निशाना बनाया. इसके अलावा उन्हें बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार से अपनी कथित करीबी के चलते भी विरोध का सामना करना पड़ा.

2017 में जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता में दो सदस्यीय बेंच ने सहारा बिड़ला डायरी की जांच की मांग करने वाली याचिका ठुकरा दी थी.

सीबीआई को आदित्य बिड़ला समूह के दफ्तरों में छापों के दौरान कुछ दस्तावेज मिले थे जिसमें नेताओं को करोड़ों रुपये दिए जाने की बात लिखी गई थी.

जनवरी 2018 में जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस मोहन शांतनागौदर की दो सदस्यीय बेंच के सामने जज बीएच लोया की मौत की जांच की मांग करने वाली दो याचिकाएं पेश की गईं. इन याचिकाओं में कहा गया था कि जज लोया की रहस्यमयी मौत की जांच अदालत की निगरानी में की जाए. जज लोया ने मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ समन जारी किया था और उसके कुछ ही दिनों बाद नागपुर के एक होटल में 'दिल का दौरा पड़ने से' उनकी मौत की सूचना मिली थी. उस समय वह सोहराबुद्दीन शेख के 'मुठभेड़' मामले की सुनवाई कर रहे थे.

जनवरी 2018 में जब चार सीनियर जजों ने एक ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, तब इस बात पर भी चिंता जताई थी कि किस तरह राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों को ‘पसंदीदा बेंचों’ को सौंपा जाता है. तब जस्टिस गोगोई ने पत्रकारों से कहा था कि वे जिन मामलों के बारे में बात कर रहे थे, उनमें से एक जज लोया का मामला भी था जिसे जस्टिस मिश्रा की बेंच को सौंपा जाना था.

फरवरी 2020 को जस्टिस मिश्रा ने एक ज्यूडीशियल कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री मोदी की खुलकर तारीफ की थी जिस पर बाद में कानूनी बिरादरी और लीगल कमेंटेटर्स ने कड़ी आपत्ति जताई थी.

रिटायर्ड जजों ने उनकी टिप्पणियों को ‘बहुत अनुपयुक्त’, ‘मौजूदा जज के लिए अशोभनीय’ बताया , और चेतावनी दी कि इनसे न्याय व्यवस्था की आजादी पर बुरा असर होता है. बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने उन्हें यहां तक कहा है कि सरकार के खिलाफ सभी मामलों से उन्हें खुद को हटा लेना चाहिए.

फुल टाइम वकील और लेक्चरर भी

3 सितंबर, 1955 को जन्मे और ग्वालियर से अपना करियर शुरू करने वाले जस्टिस मिश्रा के पिता भी एक प्रसिद्ध जज थे. उनका नाम हरगोविंद मिश्रा था, और वह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में जज थे. जस्टिस अरुण मिश्रा ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच में 1978 से 1999 तक संवैधानिक, दीवानी, औद्योगिक, अपराधी और सेवा मामलों में प्रैक्टिस की.

उन्हें 25 अक्टूबर 1999 को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के एडिशनल जज के तौर पर, और 24 अक्टूबर 2001 को स्थायी जज के रूप में नियुक्त किया गया. सितंबर 2010 में उनका तबादला राजस्थान हाई कोर्ट में हुआ और वह नवंबर 2010 में राजस्थान के चीफ जस्टिस बने. दिसंबर 2012 में उन्हें चीफ जस्टिस के तौर पर कलकत्ता हाई कोर्ट भेज दिया गया.

जस्टिस मिश्रा फुल टाइम वकील होने के साथ-साथ शिक्षा क्षेत्र से भी जुड़े रहे हैं.

1986 से 1993 के दौरान वह पार्ट टाइम लेक्चरर रहे और 1991 से 1996 तक ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय में फैकेल्टी ऑफ लॉ के सदस्य रहे. उन्हें 1998 में बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के युवा चेयरमैन के तौर पर चुना गया.

बीसीआई में अपने कार्यकाल के दौरान वह बेंगलुरु की नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी की जनरल काउंसिल के चेयरमैन थे. 5 साल का अंडरग्रेजुएट लॉ कोर्स जस्टिस अरुण मिश्रा की ही देन है.

उन्होंने 1961 के एडवोकेट्स एक्ट के अंतर्गत फॉरेन लॉ डिग्री रेकॉग्निशन रूल्स 1997 का मसौदा तैयार किया और उसे लागू किया.

(सहस्रांशु महापात्रा दिल्ली के पत्रकार और सीएलसी, दिल्ली यूनिवर्सिटी के एल्यूमनस हैं. वह कानूनी और राजनीतिक मुद्दों पर लिखते हैं और @sahas हैंडल से ट्वीट करते हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं. क्विंट न तो इनकी पुष्टि करता है और न ही इनकी जिम्मेदारी लेता है.)

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