गौतम नवलखा, बीमार और वयोवृद्ध, शायद काल कोठरी की सलाखों के पीछे दम तोड़ देते. उनके वकीलों ने यह दलील दी थी कि उनकी दिनों-दिन गिरती सेहत को देखते हुए जेल में उनके दुरुस्त होने की उम्मीद बहुत कम है.
जुलाई 2021 में जब फादर स्टेन स्वामी ने आखिरी सांसें लीं, तब वह विचाराधीन कैदी थे. बीमार होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था. अगस्त 2022 को 33 वर्ष के अपराधी पांडु नरोटे को गंभीर बीमारी हो गई और वह जेल में इतना बीमार पड़ गया कि अस्पताल में भर्ती होने के कुछ समय बाद ही उसकी भी मौत हो गई.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कम से कम, नवलखा को बचा लिया. खासतौर से जस्टिस के एम जोसफ और ह्रषिकेष रॉय की बेंच ने नवलखा को हाउस अरेस्ट की इजाजत दे दी. इसके बावजूद कि सरकार ने उन्हें जेल में ही रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया था.
शुक्रवार, 19 मई को उसी सरकार के प्रतिनिधियों ने जस्टिस जोसफ को ‘दबे हुए स्वर में विदाई’ दी. जैसा कि टीओआई की एक रिपोर्ट में धनंजय महापात्र ने लिखा था.
महापात्रा ने लिखा था कि उस दिन सेरोमोनियल बेंच में दो दूसरे जजों की बड़ाई की गई, और उनसे गर्मजोशी से मुलाकात भी. लेकिन अटॉर्नी जनरल ने जस्टिस जोसफ को कुल 20 सेकेंड दिए, और सॉलिसिटर जनरल ने 10 सेकेंड.
लेकिन ऐसा क्यों हुआ?
आलोचकों का कहना है कि जस्टिस जोसफ के साथ यह रूखा व्यवहार, उनके सरकार के प्रति सख्त रवैये का नतीजा है. बेशक, जस्टिस जोसफ सरकार की ताकत के आगे झुकने को तैयार नहीं थे.
खुद से पहले रिटायर होने वाले लोगों से अलग, जस्टिस जोसफ ने न तो कभी आला सरकारी ओहदेदारों की तारीफ के पुल बांधे थे और न ही किसी दूसरे पक्ष को उनसे कमतर माना था. साफ शब्दों में कहा जाए तो वह ताकतवर कार्यकारिणी के सामने भी निष्पक्ष रहकर फैसले सुनाते थे.
यही वजह थी कि जस्टिस जोसफ लोकतांत्रिक आदर्शों के आधार पर दृढ़ता से आदेश जारी करते थे, भले ही वे सत्ताधारी सरकार के खिलाफ हों.
मुख्य फैसले
1. एक संविधान पीठ के फैसले में प्रमुख राय, जिसमें यह कहा गया कि भारत के चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति एक पैनल की सलाह से की जानी चाहिए जिसमें भारत के प्रधानमंत्री, भारत के चीफ जस्टिस और विपक्ष के नेता शामिल होंगे. अगर विपक्ष का कोई नेता न हो तो लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता इस पैनल में शामिल किया जाएगा.
इससे पहले, चुनाव आयोग के मुख्य अधिकारी की नियुक्ति में सिर्फ केंद्र सरकार की मर्जी चलती थी, क्योंकि राष्ट्रपति ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर नियुक्तियां की थीं, जो देश के प्रधानमंत्री के काबू में होती है.
2. सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को हेट स्पीच के मामलों में स्वतः संज्ञान (यानी औपचारिक शिकायत का इंतजार किए बिना) के आधार पर कार्रवाई करने का निर्देश.
इसके अलावा, जस्टिस जोसेफ और बीवी नागरत्ना की बेंच ने "यह स्पष्ट करना" उचित समझा कि कार्रवाई संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनुरूप होनी चाहिए.
3. उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को खत्म करना (उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के तौर पर पारित आदेश)
उनकी अगुवाई वाली डिविजन बेंच ने कहा था कि ऐसी कार्रवाई करते समय सरकार से ‘पूरी तरह पक्षपात रहित’ होने की उम्मीद की जाती है और केंद्र की तरफ से राष्ट्रपति शासन लगाना ‘एपेक्स कोर्ट के निर्धारित नियम के एकदम खिलाफ था’.
डिविजन बेंच ने यह भी कहा था:
हालांकि, यह निर्णय हमेशा केंद्र सरकार के अनुकूल नहीं रहा. और कानून के जानकारों का मानना है कि इसी वजह से केंद्र को जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट पहुंचाना मुफीद नहीं लगा, जब तक कि कोलेजियम ने इस बात को दोहराया नहीं.
लेकिन लोग यह भी कहते हैं कि उस दौरान, जब जस्टिस जोसफ की नियुक्ति को लेकर अनिश्चितता कायम थी, उन्होंने अपना बड़प्पन दिखाया, न तो नाराजगी जताई और न ही बेचैनी.
लेकिन सिर्फ उनके फैसलों के चलते खलबली नहीं मची थी. अदालत में उनकी बातचीत, और संवाद से भी एक सख्त न्यायिक व्यक्तित्व की झलक मिलती थी जो किसी शक्तिमान के असर में न आता हो. दूसरी तमाम वजहों के साथ-साथ इस वजह से भी मीडिया के कुछ तबके उनकी टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं की कई बार गलतफहमी से, और कभी-कभी जानबूझकर गलत व्याख्या करते थे.
लेकिन जस्टिस जोसफ बेफिक्र थे. इसके बावजूद कि उन्होंने नफरत भरे भाषणों के लेकर सरकारों को चेतावनी दी थी. पक्षपात करने वाले मीडिया को लताड़ा था और धार्मिक आधार पर खेमाबंदी को खारिज किया था.
वह इस बात की परवाह नहीं करते थे कि दूसरे उनके बारे में क्या सोचते हैं. अपनी वाकपटुता दिखाते हुए उन्होंने कहा था (कानूनी अधिकारियों की मूक विदाई, और दूसरे लोगों की प्यारी यादों के बाद)-
"आपने जो कुछ भी कहा है, मैं उसे तहेदिल से मंजूर करता हूं और जैसे कि परंपरा है, और अगर मैं इस पर कोई शक करूं तो यह मेरी सरल मति होगी... आपने जो कुछ भी कहा है और शायद आपने जो नहीं कहा है, उसके लिए धन्यवाद."
लेकिन भले ही उनके लिए यह मायने न रखता हो कि कोई उनके बारे में क्या कहता है, फिर भी जस्टिस जोसफ तब परेशान हो जाते थे, जब उन्हें उनका काम करने से रोका जाता था.
'यह मेरे साथ नाइंसाफी है'
बिलकिस बानो ने गुजरात सकार के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें सरकार ने राज्य में दंगों के दौरान सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषियों की समय से पहले रिहाई की इजाजत दी थी. बिलकिस की याचिका पर जस्टिस जोसेफ और नागरत्ना की एक बेंच फैसला सुनाने वाली थी. लेकिन लाइव लॉ के मुताबिक, मामले की अंतिम सुनवाई नहीं हो सकी, क्योंकि दोषियों की तरफ से पेश होने वाले कुछ वकीलों ने बिलकिस के एफिडेविट के बारे में विवाद खड़ा कर दिया था (कि उसने नोटिस सर्विस नहीं किया).
इस पर जस्टिस जोसेफ ने पेशकश की कि वह रिटायरमेंट से पहले छुट्टियों में इस मामले की सुनवाई कर सकते हैं. लेकिन सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और प्रतिवादियों के वकील कथित तौर पर इस बात पर राजी नहीं हुए.
इस पर जस्टिस जोसेफ ने कहा:
"यह साफ है कि यहां क्या कोशिश की जा रही है. मैं 16 जून को रिटायर हो जाऊंगा. चूंकि इस दौरान छुट्टियों होंगी, तो मेरा आखिरी वर्किंग डे, शुक्रवार 19 मई है. जाहिर है, आप नहीं चाहते कि यह बेंच मामले की सुनवाई करे. लेकिन, यह मेरे साथ नाइंसाफी है..."
शायद वह कोई और वक्त होता, जब के एम जोसफ जैसे जज को इस मामले की सुनवाई का मौका दिया जाता- उनके फैसले का इंतजार होता और सच्चे इंसाफ के तौर पर चारों ओर उसका स्वागत किया जाता.
अलबत्ता, जस्टिस जोसफ की विरासत अमूल्य है. संवैधानिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा का प्रतीक है. वह इंसाफ के ऐसे रखवाले हैं, जिसने किसी ताकतवर के चंगुल में फंसना मंजूर नहीं किया.
अगर जस्टिस जोसफ को इंसाफ की और ऊंची कुर्सी मिलती तो वह और बेहतर करते. वह और अच्छा करते, अगर उन्हें समय पर फैसले सुनाने दिए जाते. उनका इंसाफ एडजर्नमेंट्स की मार न झेलता. अगर उनके सफर में इतनी रुकावटें न आतीं, तो वह और बेहतर करते. लेकिन हम यह सोचकर भी तसल्ली कर सकते हैं कि शायद ये रुकावटें, उनके अच्छे कामों के चलते ही पैदा हुईं, जो वह पहले से ही कर रहे थे.
बेशक, रुखसती पर यह रूखापन ज्यादती है. लेकिन के एम जोसफ ने भी तो ऐसे कितने ही आघातों को झेलकर एक दमदार शख्सियत पाई है.
(टीओई, लाइव लॉ और बार एंड बेंच के इनपुट्स के साथ)
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