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एक एडवोकेट की कहानी, जो कहता था- कोर्टरूम में बैठे जजों से मत डरो

एडवोकेट कंडाला गोपालास्वामी कन्नाबीरन पर आई नई किताब को कानून के स्टूडेंट और आम लोग, दोनों को पढ़ना चाहिए

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“दूसरों की असहमति पर क्रोधित नहीं होना चाहिए.

हर किसी के पास ह्रदय है और हर ह्रदय का अपना एक झुकाव.

उनके सच हमारे लिए गलत हैं, और हमारे सच उनके लिए”.

“सावधान हो जाएँ. ऐसा न हो कि बाजार राज्य की तरह कार्य करने लगे और राज्य बाजार की तरह”. 1991 के आर्थिक उदारीकरण के दौर में पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयपाल रेड्डी की यह पंक्ति काफी चर्चित हुई थी. इसमें संदेह नहीं कि बाजार और राज्य के बीच का फासला काफी हद तक घट गया है. इसे ऐसे महसूस किया जा सकता है कि पहले समाज में बाजार हुआ करता था अब बाजार में समाज साँसे ले रहा है. इस फासले के घटने के दूरगामी प्रभाव पड़े हैं.

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सामाजिक संस्थाओं में आमूल-चूल बदलावों के साथ-साथ सांविधानिक संस्थाओं ने भी अपना महत्व खोया है. बीते कुछ दशकों में न्यायपालिका समेत अन्य तमाम संस्थाओं का लगातार पतन हुआ है. इन संस्थाओं के पतन से आम आदमी के अधिकारों और उसके गरिमापूर्ण जीवन में भी तेजी से गिरावट हुई है. साथ ही राजकीय संसाधनों का वितरण भी इतना असंतुलित और अन्यायपूर्ण हुआ कि देश के एक बड़े हिस्से में गरीबी, भूखमरी और अशिक्षा समेत अनगिनत सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ भी बढती गई

ऐसे ही सवालों और मुद्दों के लिए समर्पित योद्धा थे एडवोकेट कंडाला गोपालास्वामी कन्नाबीरन. कुछ ही दिन पहले उनपर एक किताब आई है- ‘इन्सर्जेंट कंसस्टीउजनलिस्म, ट्रांसफोर्मटिव कोर्टक्राफ्ट’ (2022). यह किताब ‘के. जी. कन्नाबीरन लेक्चर, 2020-21’ से लिए गए चुनिन्दा व्याख्यानों का संकलन है और जिसका संपादन प्रसिद्ध मानवाधिकार लेखिका कल्पना कन्नाबीरन ने किया है.

ये व्याख्यान हैं उपेन्द्र बक्सी, जस्टिस के चंद्रू, जस्टिस चेलमेश्वर, मिहिर देसाई, कोलिन गोंसाल्वेस, जितेन्द्र बाबू, नलिन कुमार, बी.बी. मोहन, नित्या रामकृष्णन, वी. रघु, जस्टिस सुदर्शन रेड्डी, हेनरी तिफंगे, और जस्टिस जैक याकूब के. कन्नाबीरन के व्यक्तित्व और उनके अवदानों को बताने के लिए उन्होंने उनके साथ के व्यक्तिगत अनुभवों को साझा किया है जो रोचक भी है और कानून और समाजविज्ञान में रूचि रखने वाले लोगों के लिए उपयोगी भी.

9 नवम्बर 1929 को जन्में, और हैदराबाद व नेलोर में बचपन बिताने के बाद कन्नाबीरन आगे की पढाई के लिए मद्रास विश्विद्यालय चले गये और वहाँ से कानून की पढाई की. पढाई पूरी करने के बाद पुनः हैदराबाद लौटकर वे वकालत में लग गए. लेकिन उनका वकालत महज कोर्टरूम में ही नहीं हुआ. वकालत उनके लिए एक राजनीतिक परियोजना थी- अधिकारों और न्याय की

वे सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए अपनी आवाज अनेक मंचों से उठाते रहे. वे आम आदमी की आजादी, अधिकारों और गरिमा की लड़ाई पूरे जीवन लड़ते रहें. अपनी राजनीतिक सक्रियता के दौर में वे ‘पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज कमिटी’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष (1995-2009) भी रहें. साथ ही ‘आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमिटी’ के भी अध्यक्ष (1978-93) के रूप में अपना योगदान दिया

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कोर्ट के बाहर और भीतर, दोनों ही जगह मानवीय स्वतंत्रता के वे एक बड़े प्रतिनिधि थे. वर्ष 2010 में कन्नाबीरन का देहांत होता है, लेकिन उनकी कीर्ति उनके कार्यों और योगदानों के कारण आज भी है.

अपने व्याख्यान ‘डेथ ऑफ़ डेमोक्रेटिक इंस्टीट्युसन’ में सुदर्शन रेड्डी ने नव-उदार राजनीतिक अर्थव्यवस्था में संस्थाओं के अवसान पर चर्चा के सन्दर्भ में राज्य द्वारा संविधान के नीति निर्देशक सिधान्तों को त्यागे जाने पर प्रकाश डाला है. साथ ही उन्होंने याद किया कि कैसे कन्नाबीरन संस्थाओं की स्वायत्ता के घनघोर पक्षधर थे और कैसे लोकतान्त्रिक समाज में इसके बिना मानवीय गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा नहीं की जा सकती.

एक प्रचलित विमर्श है कि एशियाई समाजों के लिए लोकतंत्र एक आयातित और अव्यवहारिक अवधारणा है इसलिए इसमें इतनी शक्ति नहीं कि एक वास्तविक सामाजिक लोकतंत्र का निर्माण कर सकें. लेकिन लगता है ऐसा दावा करने वाले एशिया के इतिहास के प्रति गंभीर नहीं या फिर जाने-अनजाने निरंकुश शासन की वकालत कर रहें हैं.

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वे भूल जाते हैं कि एशियाई समाजों में लोकतान्त्रिक चेतना बहुत ही पुरानी है. यहाँ की मिट्टी में लोकतंत्र की सुगंध है. ये अलग बात है कि कई ऐतिहासिक कारणों से अलग-अलग कालखंडो में इसमें पराभव हुआ है. सुदर्शन रेड्डी, अमर्त्य सेन की किताब ‘आईडिया ऑफ़ जस्टिस’ के हवाले से अनेक ऐसे उदाहरण देते हैं जो एशियाई समाजों में इसकी जड़ो की पड़ताल के लिए पर्याप्त है

जैसे मौर्य शासन के वैभव काल में बौद्ध संघ, दक्षिण-पश्चिम ईरान के शुशान नगर के चुने गए प्रतिनिधि, एथेनियन लोकतंत्र, सातवी सदी में जापान के राजकुमार शोतोकू के संविधान के ‘सेवन आर्टिकल’ आदि.

सेन का मानना था कि दार्शनिक स्तर पर लोकतान्त्रिक चेतना एशियाई समाजों में पश्चिम से बहुत पहले से रही है. इस सन्दर्भ में ‘सेवन आर्टिकल’ की पंक्तियों पर भी विचार किया जा सकता है- “महत्वपूर्ण विषयों पर केवल एक व्यक्ति की राय नहीं ली जानी चाहिए, इसपर अन्य लोगों से भी पूछा जाना चाहिए”.

एक अन्य पंक्ति है- “दूसरों की असहमति पर क्रोधित नहीं होना चाहिए. हर किसी के पास ह्रदय है और हर ह्रदय का अपना एक झुकाव. उनके सच हमारे लिए गलत हैं, और हमारे सच उनके लिए”.

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यहाँ तक कि अम्बेडकर ने भी भारतीय लोकतंत्र के ऐतिहासिक विरासत पर चर्चा करते हुए मुण्डक उपनिषद के सूक्तों का हवाला दिया है- ‘अहम् ब्रम्हास्मि’ और ‘तत्वमसि’. अर्थात ‘विश्व को अपने आप में और अपने आप को विश्व में देखता हूँ’

अम्बेडकर का यह भी मानना था कि भारत अपने राजतन्त्रकालीन शासनों में भी पूरी तरह से ‘निरंकुश’ (एब्सोल्युट) नहीं था, बल्कि राजा या तो चुने जाते थे या फिर उनपर नियंत्रण के तंत्र विकसित थे.

लोकतंत्र का दर्शन वस्तुतः ऐसे ही सन्दर्भों से युक्त एक चेतना है. अपने सच की सीमा को समझना और दूसरों के गलत के विस्तार को भी महत्व देना लोकतन्त्र का मूल दर्शन है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में स्थिति उलट गई है. सबका अपना एक अंतिम सच है और वह दूसरों के सच को स्वीकारने की स्थिति में नहीं है.

यह अलोकतांत्रिक होते समाज का चरित्र है, जहाँ संवाद ठहर गया है. रेड्डी ने कुछ घटनाओं के संदर्भ में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के कमजोर होने की चर्चा की है जैसे, प्रियंका रेड्डी के बलात्कार और हत्या का मामला. यह घटना निश्चय ही जघन्यतम थी. दोषियों को कठोरतम दंड मिलना चाहिए था, लेकिन संविधानिक प्रावधानों के तहत, परन्तु ऐसा नहीं हुआ.
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एक “फर्जी मुठभेड़” में आरोपियों को पुलिस के द्वारा मार डाला गया. बिना न्यायिक प्रक्रियाओं के यह “फर्जी मुठभेड़” मूलतः संविधानिक संस्थाओं की हत्या थी. एक तरह से यह मुठभेड़ संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 से था. अनुच्छेद 14 जिसके तहत कानून के सामने बराबरी का अधिकार था, और अनुच्छेद 21 जिसके तहत बिना वैधानिक प्रावधानों के किसी के जीवन और उसके अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता

उसे पूरी तरह से किनारे कर दिया गया. निश्चय ही सस्ती-राजनीति (पॉपुलर पॉलिटिक्स) की विकसित होती वैश्विक परम्परा इसके लिए अधिक जिम्मेवार है जो भीड़ को ध्यान में रखकर निर्णय ले रही है न कि सांविधानिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को. नव-उदारवादी अर्थतन्त्र में वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र और इसकी संस्थाओं की मृत्यु की घोषणा कोई अतिरंजना नहीं

बेलगाम पूंजी के प्रवाह में अगर यह मरा नहीं है तो कम से कम अधमरा तो जरुर कर दिया गया है

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“मैं नहीं जानता माई लार्ड कि मैं कोठा दास के मुकदमे की पैरवी कर रहा हूँ या एक भावी मुख्यमंत्री की”. यह जवाब था कन्नाबीरन का जब एक मुकदमे में जस्टिस अल्लादी कुप्पुस्वामी ने कन्नाबीरन से कहा –“महोदय कन्नाबीरन, आप कोठा दास जैसे अपराधी की वकालत कर रहें हैं!

बी. नलिन कुमार ने अपने व्याख्यान ‘ए लॉयर विद हाई प्रिन्सिपल’ में ऐसे ही रोचक प्रसंगों से कन्नाबीरन को याद किया है. उन्होंने एक ‘जूनियर’ के तौर पर उनके साथ कार्य किया था, और इसलिए अपने संबोधन में वे उन्हें ‘सीनियर’ कहते हैं.

उनके अनेक मुकदमों और कार्य करने के तरीके को उन्होंने करीब से देखा था इसलिए अपने संस्मरण में उन्होंने अनेक प्रसंगों की चर्चा की है जिससे कन्नाबीरन की बौद्धिक और मानवीय विशालता का परिचय मिलता है.

1975 के चर्चित सिकंदराबाद षड्यंत्र मुक़दमे के मुख्य अभियुक्त “क्रांतिकारी” लेखक वरवर राव और कवि भास्कर रेड्डी की पैरवी करीब पंद्रह वर्षों तक उन्होंने की.इस मुक़दमे की पैरवी के लिए उन्होंने किसी भी प्रकार का शुल्क भी नहीं लिया था. इसी तरह रामनगर षड्यंत्र मामले और बंगलूर षड्यंत्र मामले की भी उन्होंने पैरवी की थी

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आमतौर पर उन्हें नागरिक अधिकारों और आपराधिक मामलों के अधिवक्ता के रूप में जाना जाता था, लेकिन उनके अनुभव और ज्ञान का दायरा व्यापक था. उन्होंने सांविधानिक कानून, कम्पनी कानून, मानवाधिकार, संपत्ति कानून, श्रम कानून जैसे विषयों में भी अपना अमूल्य योगदान दिया

उनके लिए कानून लोकसेवा का एक माध्यम था, न कि अर्थोपार्जन का जरिया. 1970 के दशक में खासकर आपातकाल के समय पुलिस बर्बरता और फर्जी मुठभेड़ो के विरुद्ध उन्होंने जोरदार आवाज उठाई.

इसी तरह हैदराबाद में चार मीनार के निकट की सड़कों को चौड़ा करने के लिए जब आसपास के छोटे-छोटे दुकानदारों को हटाया गया तो उन्होंने इसके विरुद्ध भी मजबूत और सफल पहल की. उन्होंने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय में ‘रिट’ दायर किया, परिणामस्वरूप ‘लोकल अर्बन अथॉरिटी’ को विस्थापित हुए दुकानदारों के लिए अलग जगह मुहैया करानी पड़ी.

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एक मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने सरकारी वकीलों के बारे में बोला- “ये सरकारी वकील क्या कहेंगे माई लार्ड! ये ‘याचिकर्ता’ तो सरकार के मुखौटे हैं”. कोर्टरूम में ठहाका लगने लगा. निश्चय ही उनमें एक चमत्कारी हास्यबोध रहा होगा.        

अपने व्याख्यान ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ प्रिवेंटीव डिटेंशन’ में मिहिर देसाई ने राजनीतिक सन्दर्भों में कन्नाबीरन की राजनीतिक मुखरता पर लिखा है. चुंकि कन्नाबीरन हमेशा से मानवधिकार और नागरिक अधिकारों के पैरोकार रहे थे, इसलिए ‘प्रिवेंटीव डिटेंशन’ के नाम पर बने तमाम कानूनों के वे विरोधी थे.

यद्यपि, संविधान के अनुच्छेद 22 में ‘प्रिवेंटीव डिटेंशन’ के प्रावधान हैं, लेकिन इसकी अनेक सीमाएं हैं, जैसे तीन महीने से अधिक समय के लिए कैद नहीं किया जा सकता, इससे अधिक समय तक के लिए एक ‘रिव्यु कमिटी’ की रिपोर्ट जरुरी है, ‘रिव्यु कमिटी’ कम से कम हाई कोर्ट के जज के नेतृत्व में गठित होना चाहिए आदि.

“किसी इमारत पर आक्रमण करना, चाहे वह इमारत संसद भवन ही क्यों न हो, (राज्य के विरुद्ध) जंग छेड़ना ही नहीं होता”. ‘संसद अटैक केस 2001’ के सन्दर्भ में कन्नाबीरन ने यह कहा. हालाँकि इस मामले में इस बात को पूरी तरह नहीं स्वीकार किया गया, लेकिन फिर भी न्यायालय ने इस बहस को कई अलग-अलग सन्दर्भों में प्रयुक्त किया.

अपने व्याख्यान ‘जस्टिस मीजर्ड आउट इन कॉफ़ी स्पून’ में नित्या रामकृष्णन ‘संसद अटैक केस 2001’ के सिलसिले में कन्नाबीरन के ऐसे ही अहम् बहसों के हवाले से उन्हें याद करते हैं.कन्नाबीरन के बहस और क्रॉस चेक करने का तरीका भी कमाल का था.

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इसी मामले में जब उन्होंने एक DCP से क्रॉस प्रश्न करने शुरू किये तो उस ‘मासूम/अल्पबुद्धि’ (poor) DCP को यह पता ही नहीं चला कि कब वह उनके भाषाई चंगुल में फंस गया, और वह सबकुछ कह गया जो कन्नाबीरन उससे कहलवाना चाहते थे. कन्नाबीरन ने अपनी बहसों में ‘जंग की शुरुआत करना’ और POTA के तहत ‘आतंकी घटना को अंजाम देना’ जैसे मुद्दों की विशिष्टता पर काफी कुछ कहा जो अत्यंत महत्वपूर्ण रहा.

न्यायालय ने भी इसकी महत्ता को समझा और 1951 के एक केस के माध्यम से इसे और स्पष्ट किया; इस केस में एक अंग्रेज जज ने कहा था- “अगर सिपाहियों का एक वर्ग विद्रोह करता है और हथियारों पर कब्ज़ा कर लेता है तो भी इसे राज्य के विरुद्ध जंग की शुरुआत करने का दर्जा नहीं दिया जा सकता, जबतक कि उसका स्पष्ट इरादा राज्य की शक्ति को हथियाना न हो’.

“सीधे उच्च न्यायालयों के बारे में मत सोचो, निचले न्यायालयों को संविधान की बुनियादी चीजों के बारे में बताओ. आपराधिक न्यायालय केवल CRPC और IPC के बारे में ही नहीं है. संविधान को निचली न्यायालयों तक ले जाना चाहिए”. के. चंद्रू ने अपने लेख ‘केजीके- ए मैजिक एक्रोनिम’ में कन्नाबीरन को याद करते हुए उनके दिए हुए ऐसे ही सलाहों पर चर्चा की है जो अक्सर वे अपने साथी वकीलों को दिया करते थे.

वकालत के बारे में वे कहते थे- “हमसब कानून के प्रति जिम्मेवार हैं. हम न्यायालय केवल कानून की रक्षा करने जाते हैं, न कि किसी प्रकार का भीख मांगने”. अपने व्याख्यान में के. चंद्रू ने आपातकाल, संविधान और न्यापालिका के बीच के संबंधों, TADA और POTA के दुरुपयोग, न्यायिक जिम्मेवारी, आदर्श अधिवक्ता  आदि के बारे में उनके विचारों पर प्रकास डाला है. के. चंद्रू के अनुसार कन्नाबीरन वकालत के एक आदर्श थे.
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आदर्श वकील के बारे में कन्नाबीरन कहते थे- “आज पैसा सबकुछ है. आज के समय में अगर कोई वकील पैसों के बारे में नहीं सोचता, जजेज के गुस्से को गंभीरता से नहीं लेता, और जो राज्य के क्रोध से भी नहीं घबराता, वही सच्चा वकील है”.      

”कोर्टरूम में बैठे जजों से मत डरो. उन्हें कुछ नहीं पता होता. यह वकीलों का कर्तब्य है कि उन्हें मुद्दो से परिचित कराएँ”. बी.बी.मोहन ने अपने व्याख्यान ‘क्रिमिनल लॉ एंड ह्यूमन राइट्स: डिसटीन्क्टीव-डिस्क्रिमिनेशन एंड राईट तो फेयर ट्रायल’ में कन्नाबीरन के ऐसे ही शानदार प्रसंगों के साथ ‘डिसटीन्क्टीव-डिस्क्रिमिनेशन’ एंड ‘राईट टू फेयर ट्रायल’ पर उनके अहम् योगदानों को याद किया.

इस सन्दर्भ में कोयम्बटूर बम ब्लास्ट्स केस में उन्होंने एक समुदाय के आरोपियों के विरुद्ध होने वाले भेदभाव पर न्यायालय के समक्ष जो दलीलें दी वह अहम् है.बहस के दौरान जब वे डायस में जाते हैं और जज से कहते हैं-

“मैं के.जी.कन्नाबीरन हूँ” तो जज का जवाब होता है- “हाँ मैंने आपकी पुस्तक ‘वेजेज ऑफ़ इम्प्युनिटी’ पढ़ी है.....पढ़कर अच्छा लगा”. फिर कन्नाबीरन आगे कहते हैं- “अपने जीवन काल का यह मैं पहला केस देख रहा हूँ जिसमें एक विशेष समुदाय के विरुद्ध डिसटीन्क्टीव-डिस्क्रिमिनेशन का मामला है. CRPC के सेक्शन 327 के तहत सुनवाई बिल्कुल खुली और निष्पक्ष होनी चाहिए, जबतक कि मामला TADA, POTA आदि से जुड़ा न हो. जबकि यह केस IPC, एक्स्प्लोसिव सब्सटांस एक्ट और आर्म्स एक्ट का है
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आर्टिकल 21 के तहत संविधान निष्पक्ष सुनवाई का प्रावधान प्रदान करता है”. कन्नाबीरन की दलीलों का जज के निर्णय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा. इसी प्रकार नाल्लाकमन मुक़दमे (1982) में उनकी भूमिका भी उनके भीतर के एक कोमल मानवीय पक्ष को दिखाती है.

यह एक संपत्ति विवाद था. इसमें पुलिस वाले एक अवकाशप्राप्त आर्मी अधिकारी की पत्नी को पूछताछ के लिए थाना ले गए और उसके साथ बदसलूकी की. इसपर उस व्यक्ति ने पुलिस वालों को थप्पड़ जड़ दिया. फिर पुलिस ने इन दोनों की काफी पिटाई की और शहर में एक तरह से उसके पति को अर्धनग्न करके घुमाया.

यह याद रखा जाना चाहिए कि ऐसे पुलिस अत्याचार के मामले अपवाद नहीं हैं, बल्कि यह आम जीवन का एक हिस्सा बन गया है. कन्नाबीरन को जब इस बात का पता चला तो वे इस केस में पुलिस अत्याचार के खिलाफ लड़ने को तैयार हो गए.  

वी. रघु ने अपने व्याख्यान ‘द कांस्टीटूईसन एंड सीडूयूल्ड ट्राइब इन कम्पोसिट स्टेट ऑफ़ आंध्र प्रदेश में जनजातीय अधिकारों और राज्य द्वारा उनके अधिकारों के हनन को लेकर किये गए उनके अनगिनत संघर्षों को याद किया है.

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कई सरकारी नीतियों के कारण जनजातीय क्षेत्रों में संसाधनों पर गैर-जनजातियों का अधिकार हो गया था. जैसे लगभग 48 प्रतिशत भूमि गैर-जनजातियों के हाथों में चली गई थी. इसी तरह अदिलाबाद, वारंगल, खम्मम, वेस्ट गोदावरी, विशाखापत्तनम, श्रीकुलम आदि क्षेत्रों में जनजातीय नेतृत्व गैर-जनजातियों के हाथों में पहुँच गई थी.

इसी तरह लिंगधारी कोया जनजाति के अनुसूचित स्टेटस को लेकर हुए विवादों में उन्होंने उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया था. जनजातीय मुद्दे और अनुसूचित जाति के मुद्दे में बड़ा अंतर है. एक की लड़ाई जहाँ सामाजिक संरचना में निहीत है तो दूसरी तरफ जनजातीय मुद्दे राजनीतिक और आर्थिक विसंगतियों और ख़राब नीतियों से निकली हुई समस्या है.

‘डीफेंडिंग ह्यूमन राइट्स, चैलेंजिंग स्टेट इम्प्युनिटी’ में हेनरी तिफंगे ने कन्ना के माध्यम से सरकारों द्वारा मानवधिकारों के हनन पर प्रकाश डाला है. तमिलनाडू, कर्नाटक आदि राज्यों में कैसे अवैध गिरफ़्तारी के द्वारा निर्दोष लोगों को कठोर सजा दी गई इसपर व्यापक रूप से उन्होंने बोला और बताया कि कैसे यह कन्ना के मूल्यों के विरुद्ध था और जिसके लिए कन्ना लगातार संघर्षरत भी थे.

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इसी प्रकार कुर्रा जितेन्द्र बाबू ने अपने संस्मरणात्मक लेख ‘कोर्ट्स एज साइट्स ऑफ़ डेमोक्रटिक स्ट्रगल’ में लिखा कि कैसे कन्ना का मानना था कि लोकतान्त्रिक अधिकारों के मिलने से समाज में लोकतंत्र की जड़े मजबूत हो सकती है. ‘क्विट, करेजियस एंड कन्विंसिंग कन्ना’ में जेड. एम्. याकूब ने भी उनके लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए सम्पर्मित साहस को याद किया है. इसी तरह उपेन्द्र बक्सी ने भी अपने लेख ‘द वेजेज ऑफ स्ट्रगल’ में दंडमुक्ति, संविधानवाद और ‘डेमोसाइड’ पर कन्ना के विचारों के सन्दर्भ में चर्चा किया.

‘अकाउंटेबिलीटी एंड ट्रांसपरेंसी इन जुडिशियल अपोइन्टमेंट’ शीर्षक के अपने व्याख्यान में जस्टिस चेल्मेश्वर ने कन्नाबीरन को कन्ना से संबोधित करते हुए उनके लोकतान्त्रिक व्यक्तित्व पर बोला है कि कैसे वे अपने से छोटे को भी बराबरी का अधिकार देते थे. कन्नाबीरन का मानना था कि न्यायपालिका को निष्पक्ष, और गुणवत्तायुक्त होना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है

इस सन्दर्भ में जस्टिस चेल्मेश्वर ने अमेरिकन जूरिस्ट लौरेंस ट्राइब की पंक्तियों के माध्यम से संविधान और न्यायपालिका के अधिकारों और सीमाओं का चित्रण किया है- “मैं नहीं मनाता हूँ कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और सांविधानिक-सत्यता समानार्थक हैं”. 

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कोलिन गोनसेल्व्स ने कन्ना से जुड़े एक संस्मरण के माध्यम से उनको याद किया. अपने व्याख्यान ‘एडुकेट, एजिटेट, एंड लिटीगेट’ में उन्होंने वैश्वीकरण के साथ शिक्षा और न्याय व्यवस्था में हुई गिरावट पर भी चोट किया. साथ ही उन्होंने याद किया कि कैसे कानून और न्याय की समझ विकसित कर न्यायालयों में बहस की जाए.

एक बार उन्होंने कहा- “मुक़दमे को केवल क़ानूनी प्रावधानों से मत देखो. यह भी देखो कि कैसे कानून के शब्द और न्याय आपस में जुड़ सकते हैं. तुम्हारी अपनी समझ क्या कहती है- और तुम्हारा अपना ह्रदय क्या कहता है- उसी आधार पर अपनी बहस की बुनियाद तैयार करो. अगर सामने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भी हो तो भी यह कहने का साहस होना चाहिए कि यह न्यायसंगत नहीं है

एक अच्छा वकील कानून का निर्माता भी होता है केवल पालक नहीं”. कोलिन गोनसेल्व्स ने उन मुकदमों पर भी प्रकाश डाला जिसके द्वारा श्रम कानूनों को कमजोर कर दिया गया. और इस सन्दर्भ में आर.के.पांडा vs सेल और उमादेवी वाला मामला प्रमुख रहा है. टी.एम्.ए.पाई vs स्टेट ऑफ़ कर्नाटक  मई कैसे सर्वोच्च न्यायालय ने बाजार का पक्ष लेते हुए आमजन के हितों के विरुद्ध फैसला दिया जिसके कारण शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा मिला.

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व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में किस स्तर तक ऊँचा है यही किसी व्यक्ति की महानता का मानक है और इस अर्थ में कन्ना से जुड़े व्यक्तिगत प्रसंगों को याद करते हुए लिखी गई यह किताब जरुर पढ़ी जानी चाहिए- कन्ना के बहाने उन मूल्यों से साक्षात्कार होगा जिनके बगैर कोई भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था चल ही नहीं सकती.

सन्दर्भ पुस्तक: ‘इन्सर्जेंट कंसस्टीउजनलिस्म, ट्रांसफोर्मटिव कोर्टक्राफ्ट: के. जी. कन्नाबीरन लेक्चर्स-2020-21’ (2022). कल्पना कन्नाबीरन (संपादक), एशिया लॉ हाउस, हैदराबाद.

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