इतिहास की छात्रा और मराठा परिवार की बहू के रूप में मेरे मन में रानी लक्ष्मीबाई एक आदर्श रानी, मां और देशभक्त हैं. इसलिए हिंदी किताबों, अमर चित्र कथा कॉमिक्सों और चौराहों के बीच बनी धूल से ढकी प्रतिमाओं से उठकर जब इस पहली नारीवादी योद्धा की कहानी सबके सामने आ रही है, तो यह फिल्म देखने से मैं अपने आप को रोकने वाली नहीं थी.
अब तक इस भारतीय वीरांगना, जो औपनिवेशिक गुंडागर्दी के सामने ताल ठोक के खड़ीं थीं, की जीवन यात्रा के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. इसलिए कंगना राणावत और राधा कृष्ण जगरलामुडी द्वारा निर्देशित ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी’ हमारा ध्यान आकर्षित करती है. कहीं-कहीं सच के सही चित्रण पर शंका होने के बावजूद फिल्म लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है. फिल्म की शुरुआत में दिखाया जाता है कि कंगना 14 साल की मणिकर्णिका का रोल प्ले कर रही हैं. जब वह अपने धनुष-बाण से एक सीजीआई टाइगर पर अपना निशाना साधती हैं तब उनकी आसमानी धोती और लंबा सा पल्लू हल्की हवा में लहरा रहा होता है. यह एक ऐसा मूमेंट हैं, जहां पर कंगना ने झांसी की रानी के किरदार के साथ न्याय किया है.
मणिकर्णिका में लक्ष्मीबाई का किरदार 16 साल की बाल वधू से 29 साल की विधवा योद्धा रानी के रूप विकसित होते हुए नहीं दिखाई दिया. इसीलिए कठोर और दमनकारी सामाजिक नियमों के तहत रानी की यात्रा और परिवर्तन को किसी ने नहीं देखा.
बाल विवाह, पर्दा, सती और विधवा जीवन सभी ऐसे पहलू हैं, जिन्हें एक मराठा कुलीन महिला के रूप में उन्हें जरूर सहना पड़ा होगा और विरोध करना पड़ा होगा, जिसे उनकी कहानी में होना चाहिए था. बदकिस्मती से ‘मणिकर्णिका’ में उनकी निजी यात्रा पर रोशनी नहीं डाली गई है. हालांकि दुखी मां, बेदर्द रानी और दृढ़ योद्धा के रूप में कंगना ने परफॉरमेंस में अपनी छाप छोड़ी है. कंगना, जो खुद एक नारीवादी हैं, से बेहतर इस पहलू को कोई और बयां नहीं कर सकता था.
मेरे लिए, मणिकर्णिका ने इतिहास की कुछ भूली हुई नारीवादी हस्तियों को फिर से जिंदा किया. इसमें कोई शक नहीं है कि आजादी से पहले मराठा महिलाएं भारत की सबसे प्रभावशाली हिंदू महिला नेता रही हैं. शिवाजी की माता जीजाबाई को उनकी राजगद्दी के पीछे की ताकत माना जाता था और उनकी छोटी बहू ताराबाई ने सात साल शासन को संभाला और औरंगजेब की सेना के खिलाफ बिखरते हुए मराठा राज्य को एक राष्ट्रीय ताकत में बदल दिया.
इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर ने सन् 1767 से अपने 30 साल लंबे शासनकाल में वाराणसी से लेकर जगन्नाथ पुरी, अयोध्या, द्वारका और सोमनाथ तक घाट, सड़क और मंदिर बनवाए जिनमें से ज्यादातर मौजूद हैं और कार्यरत हैं. इन सभी महिलाओं ने राजसभा और समाज में एक मजबूत मराठा महिला उपस्थिति की राह को आसान बनाया. बड़ोदा पर इसका प्रभाव पड़ा था.
सन् 1870 में, औपनिवेशिक भारत की गुमनाम रानियों में से एक राजमाता महारानी जमनाबाई राजगद्दी के उत्तराधिकारी महाराजा सयाजीराव तृतीय को अपनाने के लिए ब्रिटिश दबाव के सामने डटकर खड़ी रहीं. शुक्र है कि उस समय तक झांसी में लागू होने वाली हड़प नीति खत्म हो चुकी थी और जमनाबाई युद्ध के बिना बड़ौदा राज्य की नींव रख पायी थीं.
उनकी बहू महारानी चिमनाबाई द्वितीय अपने समय की सबसे ज्यादा बंधनमुक्त महारानियों में से एक थीं. उनका सार्वजनिक जीवन लगभग उनके पति की तरह ही प्रभावशाली था. उन्होंने पर्दा प्रथा को हटाया, लड़कियों की शिक्षा और राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया और भारत में महिलाओं की स्थिति पर एक किताब लिखी. वह एक अच्छी घुड़सवार और शिकारी भी थीं.
उनकी बागी और खूबसूरत बेटी राजकुमारी इंदिराराजे को अपने समय की सबसे सुंदर और स्वतंत्र महिलाओं में से एक माना जाता था. इंदिराराजे ने आधुनिक बड़ौदा की राजकुमारी को दर्शाया. उन्होंने इंग्लैंड में पढ़ाई की थी और अपने माता-पिता के साथ खूब सारी यात्रायें की थीं. 1911 के दिल्ली दरबार में कूच बिहार के युवा राजकुमार जितेंद्र नारायण के साथ प्रेम में पड़ने के बाद उन्होंने ग्वालियर के महाराजा के साथ अपनी सगाई को तोड़ दिया. कम उम्र में विधवा होने के बाद उन्होंने अपने बेटे महाराजा जगदीपेंद्र नारायण के लिए कूच बिहार के शासन को संभाला.
महारानी चिमनाबाई द्वितीय की उत्तराधिकारी महारानी शांतादेवी मेरी दादी सास थीं. उन्होंने कार्यकारी तौर पर समय-समय पर राज्य का राजकाज संभाला था और यह सम्मान पाने वाली वह राजवंश की इकलौती महिला थीं. हमारे पास गदर के समय का पोर्टेचर या कॉस्ट्यूम का कोई डॉक्यूमेंट मौजूद नहीं है, 1800 के दशक के बाद से हमारे अपने परिवार ने शाही महिलाओं के मजबूत नारीवादी चित्रण पेश किए हैं और कहीं-कहीं पर उन्होंने मर्दाना रूख पेश किया है.
‘मणिकर्णिका’ में जैसा दिखाया है, के विपरीत राजसी महिलाओं की जितनी भी तस्वीरें मौजूद हैं उनमें वे बनारसी, चंदेरी या पैठनी पहने हुए हैं, क्योंकि 19वीं शताब्दी के अंत तक यही हैंडलूम मौजूद था और उसी से बने कपड़े पहने जाते थे. शिकार और घुड़सवारी जैसे मौकों पर माहेश्वरी साड़ी पसंद की जाती थी, क्योंकि यह कपड़ा मजबूत और कम ट्रांसपेरेंट होता था. यह तो कहने की जरूरत ही नहीं है कि उनकी साड़ी का पल्लू अगर सिर पर नहीं तो कंधे पर हमेशा ही रहता था. इससे पता चलता है कि उन्होंने समाज में एक क्रांतिकारी भूमिका जरूर निभाई, लेकिन शाही परिवारों में महिलाओं का पहनावा रूढ़िवादी था जो कि शाही मानकों के हिसाब से था.
फिर भी, लक्ष्मीबाई की जिंदगी और विरासत ने आजादी से पहले के भारत में महिलाओं के बारे में रखे जाने वाले पुराने विचारों का खंडन किया और भविष्य के सुधारों की नींव रखी, खासकर राज्य हड़प नीति को खत्म किया.
बड़ौदा के एक घर की बहू होने के नाते, मराठा कुलमाताओं की इन पीढ़ियों से जुड़कर मैं अपने आप में गर्व महसूस करती हूं. उन्होंने आज का मंच तैयार करने के लिए अपने समय की सामाजिक बुराईयों और राजनीतिक दबाव की जमकर खिलाफत की. आज मेरी दोनों बेटियां पद्मजा, नारायणी और मुझे जिंदगी और आजादी के बीच चुनाव नहीं करना पड़ेगा.
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