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विकास दुबे जैसे कैसे बनते हैं ‘बाहुबली’? लोकल थाने से आगे की कहानी

भारत में पुलिस के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो स्पिलिट पर्सनैलिटी सिंड्रोम की शिकार है

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उत्तर प्रदेश में हाल की घटनाओं के बाद पुलिस की भूमिका की तरफ एक बार फिर सबका ध्यान गया है. समाज में शांति और व्यवस्था कायम करने के लिए पुलिस के कामकाज, भूमिकाओं और जिम्मेदारियों से संबंधित कुछ बुनियादी मुद्दों पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है. जब तक हम इन समस्याओं को नहीं सुलझाएंगे, कुछ भी बेहतर नहीं होने वाला. घड़ियाली आंसू बहाने और सिर्फ किसी एक घटना पर गुस्सा जाहिर करने से मुझे डर है कि हालात बदतर हो सकते हैं. तो जरा एक-एक कर समस्या की जड़ समझते हैं और फिर समाधान के बारे में सोचते हैं.

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ऑल इन वन

अब चूंकि एक घटना घटी जिसमें 8 पुलिसवालों को एक गैंगस्टर ने मार दिया, तो हमें पता चल गया कि उसके खिलाफ करीब साठ आपराधिक मामले थे. लेकिन इस त्रासद घटना के बिना स्थानीय लोगों के अलावा कोई नहीं जानता था कि गैंगस्टर के खिलाफ इतने मामले चल रहे थे. इसके ये मायने हैं कि समाज के तौर पर हमें गैंगस्टर्स के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता. अनुभव से हम कह सकते हैं कि हर जिले में दिल दहला देने वाले आपराधिक गिरोह हैं. तो क्या अचानक वे नदारद हो गए? नहीं. वे हमेशा से समाज में मौजूद हैं. बस उनके कामकाज की प्रकृति और उनकी पहुंच बढ़ गई है. सभी जिलों में ऐसे तत्व पनप रहे हैं जो ऑल इन वन हैं. वे एक साथ कई भूमिकाएं निभाते हैं. वे पहले छोटे मोटे अपराध किया करते थे. फिर उन्होंने स्थानीय राजनीति में सेंध लगाई. वे कॉन्ट्रैक्टर भी हैं. रियल ऐस्टेट का धंधा करते थे और जमीनें कब्जाते थे. फिर उन्होंने दूसरे कई क्षेत्रों में अपने पैर पसारे. स्थानीय झगड़ों में बिचौलिए बन गए और छोटी बड़ी समस्याओं को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे. इस तरह अपने इलाकों के आका बन बैठे. राजनीति का बाजार उनके लिए तैयार हो गया, स्थानीय नेता खुली बांहों से उनका स्वागत करने लगे. पुलिस के महकमे के साथ स्थानीय प्रशासन में उनकी दखल ऐसा बढ़ा कि उन्होंने सबको अपनी उंगलियों पर नचाना शुरू कर दिया. धनबल और बाहुबल के साथ वे समाज के एक बड़े तबके के बीच स्थानीय स्तर पर बाहुबली कहलाए. संक्षेप में कहें तो स्थानीय शासन उनका हुक्म बजाता है.

अपराध का राजनीतिकरण

हमारे समाज और राजनीतिक प्रणाली का एक दूसरा पहलू यह है कि हमारे यहां अपराध जैसे मसले पर बहुत ज्यादा बहसबाजी होती है, खलबली मच जाती है. मीडिया भी आग में घी डालने का काम करता है. हर घटना को सरकार या सत्ताधारी पार्टी के मत्थे मढ़ दिया जाता है. आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार होने लगती है. सरकार राजनीतिक पार्टियों द्वारा ही बनाई जाती है लेकिन हर छोटे-बड़े अपराध के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं होती.

हो सकता है कि सत्ताधारी पार्टी की नीतियों या संरचना के कारण कुछ अपराध होते हों. लेकिन अपराध के अपने डायनामिक्स होते हैं और संबंधित एजेंसियों को उनसे निपटना चाहिए. चूंकि सत्ता में मौजूद पार्टी ने विपक्ष में रहकर ऐसे ही मुद्दे उठाए थे, इसलिए विपक्षी पार्टियां भी उसी शैली को अपनाती हैं.

दूसरी तरफ सिस्टम की सीमित जानकारी और उतनी ही सीमित शब्दावली के साथ मीडिया ट्रायल शुरू कर देता है. तुरत-फुरत प्रतिक्रियाएं दी जाती हैं- किसी के पास सही तथ्य नहीं होते और यह भी ध्यान नहीं दिया जाता कि जांच जारी है. अपराध का राजनीतिकरण एक गंभीर मुद्दा है. जब इस मसले पर निरंतर उपदेश दिए जाते हैं तो पुलिस पर दबाव पड़ता है. वो मामलों को निपटाना चाहती है या चाहती है कि इसका कोई नतीजा निकले. लोग चाहते भी हैं कि ऐसे मामलों में लोगों को न्याय मिले. हैदराबाद और कानपुर पुलिस ने पीड़ितों को न्याय दिया, त्वरित न्याय. कानून का ड्यू प्रोसेस यानी विधिवत प्रक्रिया एक हादसा बन जाता है. अनिवार्य रूप से यह दो नजरिए का टकराव है. विधिवत प्रक्रिया या त्वरित न्याय.

पुलिस की पुलिसिंग

यह पुलिस लीडरशिप का बहुत महत्वपूर्ण काम है. कुछ स्थानीय पुलिसकर्मियों की अपराधियों के साथ मिलीभगत हो जाती है. संगठित अपराध के बारे में एक बात तो पक्की है. जिन लोगों का काम अपराधियों का खात्मा करना है, उनकी छत्रछाया के बिना वे फल-फूल नहीं सकते. यह परंपरागत अपराध के सिलसिले में भी सच है और आर्थिक अपराधियों के संबंध में भी. तो, राजनेताओं, अपराधियों और कानून प्रवर्तन करने वालों के बीच साठगांठ हो जाती है. यह सीनियर लीडरशिप की जिम्मेदारी है कि वे ऐसे लोगों पर नजर रखें, उनका तबादला करें और जरूरत हो तो उनके पदों से हटा दें. हमारे समय में ऐसी साठगांठ को तिगड्डा कहा जाता था. जिला अधिकारियों का एक जरूरी काम यह होता था कि इस तिगड्डे को तोड़ें. इस मोर्चे पर थोड़ी ढिलाई है. कई बार यह सुनने में आता है कि कुछ इंस्पेक्टर राजनीतिक संबंधों के चलते अपने सीनियर्स से ज्यादा ताकतवर हो गए. जब तक कि पुलिस वाले राजनीतिक दबाव और दखल से मुक्त नहीं होंगे, यह सब जारी रहेगा. सरकारी कर्मचारी नियमों के अंतर्गत सजा से इतना नहीं घबराता जितना कि तबादले से. इसलिए वो उसके खिलाफ अपील नहीं कर सकता, शिकायत दूर करने की मांग नहीं कर सकता.

आपराधिक न्याय प्रणाली

दरअसल अपराध को नियंत्रित करने और व्यवस्था को कायम करने के लिए आपराधिक न्याय प्रणाली तैयार की गई है. उससे यह उम्मीद की जाती है कि वो सामाजिक संस्थाओं की मदद से समाज को काबू में करेगी, न्याय व्यवस्था बरकरार रखेगी और समाज की रफ्तार बनी रहेगी. पुलिस इसका सिर्फ एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, पूरा सिस्टम नहीं. इसके दूसरे जरूरी हिस्से हैं, विधायिका, न्याय प्रणाली, प्रॉसीक्यूशन या बार और करेक्शनल यानी सुधार करने वाली सेवाएं. हमें पुलिसिंग द सोसायटी यानी समाज को नियंत्रित करने और पुलिस फोर्सिंग द सोसायटी यानी समाज को नियंत्रित करने वाले पुलिस बल के बीच का फर्क समझना होगा. इसीलिए पुलिस सुधार बहुत जरूरी हैं. लेकिन इस समस्या का समाधान सिर्फ पुलिस सुधार नहीं. जब तक आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार नहीं होता, हालात बदलने वाले नहीं. इस संबंध में कितनी ही समितियां और आयोग बनाए गए लेकिन कोई ठोस पहल नहीं की गई.

स्पिलिट पर्सनैलिटी

भारत में पुलिस के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो स्पिलिट पर्सनैलिटी सिंड्रोम की शिकार है. हर रोज अपने बचाव के लिए उसे राजनीतिक आकाओं पर निर्भर रहना पड़ता है, हालांकि वो कानून, कानूनी प्रक्रियाओं और न्याय तंत्र के प्रति जवाबदेह है. राजनीति पक्षपाती है और कानून गैर पक्षपातपूर्ण और निष्पक्ष होता है. इसीलिए प्रवर्तन एजेंसियों और राजनीतिक गुटों में टकराव होता रहता है.

राजनेता और प्रेशर ग्रुप ‘हमारे आदमी’ की लाइन पर काम करते हैं. फलां-फलां मेरे आदमी हैं. उन्हें गिरफ्तार कैसे किया जा सकता है, उनके खिलाफ कोई शिकायत कैसे दर्ज की जा सकती है? अगर उसे गिरफ्तार किया गया है तो उसे छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि वो मेरा आदमी है. यह दबाव और ज्यादा हो जाता है, जब वो राजनेता सत्ताधारी पार्टी का होता है. उसकी पूरी ताकत इसी से साबित होती है कि वो किस हद तक अपने लोगों को कानून से बचा सकता है.

सच्चाई तो यह है कि हमारे सामाजिक ढांचे में किसी राजनेता की ताकत इसी बात पर निर्भर करती है कि वो कानून को कितना विफल बना सकता है. उसका भौकाल ही उसकी हैसियत तय करता है. चूंकि वो राजनीतिक पार्टी या सरकार के किसी गठबंधन का होता है, यह रवैया ऊपर से नीचे तक कायम रहता है, वर्कर्स से लेकर कार्यकर्ता तक.

पुलिस भी उसी तरह से व्यवहार करती है, जैसे अलग-अलग व्यवस्थाओं के पार्टी वर्कर्स करते हैं. पुलिसवालों को भी तय करना होता है कि वे अपने सर्वाइवल को चुनें या अपनी जवाबदारी को. इसलिए जरूरत इस बात की है कि पुलिस को इस दबाव से बचाया जाए और उससे अलग रखा जाए, साथ ही उसे सिर्फ कानून के प्रति जवाबदेह बनाया जाए.

कानून के एजेंट

व्यावहारिक रूप से भारत में पुलिस सिर्फ कानून की एजेंट नहीं. वो सरकार के मातहत आती है और सरकार राजनीतिक पार्टियां बनाती हैं. इसलिए वो सत्ताधारी पार्टी के सेल के तौर पर काम करती है, जैसे उस पार्टी के किसान सेल, या लेबर सेल काम करते हैं. संक्षेप में कहा जाए तो वो रूलर्स पुलिस यानी शासक की पुलिस होती है, रूल्स पुलिस यानी पुलिस का शासन नहीं होती. इसका नतीजा यह होता है कि कानून का नियम लागू करने में कई समस्याएं आती हैं. उसकी विश्वसनीयता और छवि पर सवाल उठाए जाते हैं. जब तक उसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त नहीं किया जाएगा, मामलों में सुधार नहीं होगा.

समाज की प्रकृति

कानून का पालन कराने वाली एजेंसियों के साथ-साथ दूसरी एजेंसियां कैसे काम करेंगी, इसमें समाज की बहुत बड़ी भूमिका होती है. यह सिर्फ पुलिस तक सीमित नहीं है. हमने यह देखा है कि कानून का पालन कराने वाली तमाम एजेंसियों को ऐसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. क्षेत्रीय वन, आयकर, सभी एजेंसियों में घमासान मचा रहता है.

यह कहा जाता है कि हमारा समाज शांतिप्रिय है. लेकिन यह सच्चाई नहीं है. एक प्रतिष्ठित लेखक ने लिखा था कि भारतीय समाज ना तो अहिंसक है और न हिंसक. वो कमजोर पर हिंसक है और ताकतवर पर अहिंसक.

हमें यह स्वीकारना होगा कि हमारा समाज अभी तक कानून के नियम को स्वीकार करने और उसका पालन करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है. सामाजिक अनुशासन किसी भी सभ्य समाज की अनिवार्यता है. यह भीतर और बाहर दोनों से आता है. समाज के तौर पर हममें आंतरिक अनुशासन की बहुत कमी है. हम बाहरी अनुशासन का पालन करते हैं- अक्सर जोर जबरदस्ती से. कोई भी आपराधिक न्याय प्रणाली चाहे वो कितनी भी ईमानदार और असरदार हो, समाज में शांति और व्यवस्था सुनिश्चित नहीं कर सकती है जब तक कि खुद अनुशासित न हो और कानून का सम्मान न करे.

कानून ज्यादा, मानने वाले कम

कानून और व्यवस्था जैसे शब्दों का इस्तेमाल सभी लोग करते हैं- प्रोफेशनल और आम लोग भी. लेकिन, इसके सही मायने बहुत कम लोग समझते हैं. इसके क्या मायने हैं? कानून की भाषा में इसके मायने हैं आदेश. इसके तीन रूप हैं. पहले रूप में आदेश ज्यादा हैं, कानून कम. ऐसी व्यवस्था इस्लामी देशों में हैं जहां शरीयत का कानून चलता है. दूसरी श्रेणी है, कि कानून तो बहुत से हैं लेकिन आदेश मानने वाले बहुत कम. भारत इसी श्रेणी में आता है. तीसरा और सबसे आदर्श रूप यह है कि आदेश पालन कानून के सही अनुपात में हो. कई यूरोपीय देशों और जापान जैसे विकसित देश में इसी मॉडल को अपनाया गया है.

समाज की प्रकृति यहां फिर एक केंद्रीय भूमिका निभाती है कि कोई देश या समाज कौन सा मॉडल अपनाता है. आदर्श तो यही है कि आदेश पालन कानून के अनुपात में होना चाहिए. पुलिस और राज्य को बदले की भावना से काम नहीं करना चाहिए.

छोटे राज्य एक उपाय

उत्तर प्रदेश के मामले में, सबसे बड़ी समस्या उसका बड़ा क्षेत्रफल है. इतने बड़े राज्य में सुशासन कायम करना मुश्किल होता है. इसकी आबादी ही 24 करोड़ के करीब है, जोकि 1901 में पूरे भारत की आबादी थी. अगर वो आजाद देश होता तो जनसंख्या के लिहाज से दुनिया की पांचवीं सबसे अधिक आबादी वाला देश होता. यह ब्राजील और पड़ोसी पाकिस्तान से भी बड़ा है. इंडोनेशिया के करीब-करीब बराबर होता है जोकि आने वाले समय में उससे भी बड़ा हो जाएगा. ये सभी देश कई प्रांतों में बंटे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश बीस साल पहले उत्तराखंड के बनने के बावजूद अब भी इतना विशाल है. अगर हमें आने वाले समय में इसे बचाना है तो कम से कम इसके चार प्रांत बनाने होंगे. यह न सिर्फ कानून की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि क्षेत्र के विकास के लिए भी जरूरी है.

तकनीक और संचार क्रांति के कारण अपराध बेहद जटिल

यह समाज और अलग-अलग एजेंसियों के सामने एक अलग चुनौती है. जब तक सभी पक्ष एक साथ नहीं आते और एक साथ काम नहीं करते हैं तब तक हम इस कठिन चुनौती का सामना नहीं कर सकते. कानूनी प्रक्रिया बहुत लंबी और धीमी होती है, समाज तुरंत नतीजे चाहता है, खासकर गंभीर अपराधों के मामले में. इसीलिए ड्यू प्रोसेस और इंस्टेंट न्याय के बीच संघर्ष कायम रहेगा.

(ओपीएस मलिक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और डीजी, पुलिस रह चुके हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं.)

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