बीजेपी गठबंधन युग की सच्चाई को स्वीकार कर चुकी है. देशभर में उसके चार दर्जन पार्टनर हैं. कर्नाटक का अनुभव बता रहा है कि कांग्रेस भी गठबंधनों के लिए तैयार है. कर्नाटक का मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक प्रस्थान बिंदु है.
यहां सवाल यह नहीं है कि वहां कौन जीता, कौन हारा, किसे कम और किसे ज्यादा वोट मिले और यह सब क्यों हुआ और फिर सरकार किसकी बनी. यह सब या इससे मिलता-जुलता कुछ तो देश के हर चुनाव में होता है.
कर्नाटक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उसने राजनीति के राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय खिलाड़ियों को एक सबक या एक सलीका सिखाया है. इस सबक को सीखने की सबसे ज्यादा जरूरत कांग्रेस को थी और कर्नाटक में जो हुआ, उसके बाद कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने सबक सीखने में कोई ढील नहीं बरती है.
कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी है. लेकिन उसने तीसरे नंबर की पार्टी जेडीएस को न सिर्फ समर्थन दिया, बल्कि इसके लिए कोई शर्त भी नहीं रखी. यानी कांग्रेस ने न सिर्फ मुख्यमंत्री पद के लिए जेडीएस की दावेदारी पर मुहर लगाई, बल्कि यह भी नहीं कहा कि बदले में उसे मंत्रिमंडल में शामिल होना है या कि लोकसभा चुनाव में उसे राज्य में कितनी सीटों पर लड़ना है.
जरूरत के हिसाब से कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति अपनाई
यह एक दिलचस्प स्थिति है. यह कांग्रेस के स्वभाव के विपरीत भी है. कांग्रेस खुद को सत्ता की स्वाभाविक दावेदार मानती रही है. यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि उसने आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया और आजादी के बाद लगभग तीन दशकों तक केंद्र और राज्य की राजनीति में उसका एकछत्र दबदबा रहा. इसके बाद भी वह या तो सत्ता में रही या प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उसने दोबारा सत्ता में आने का इंतजार किया.
इस दौर में एकमात्र अपवाद तमिलनाडु था, जहां दो द्रविड़ पार्टियों- द्रमुक और अन्नाद्रमुक के दबदबे के कारण उसे तीसरे स्थान पर रहना पड़ा और अक्सर उसने इन दो में से एक पार्टी के साथ तालमेल किया. इन दो में किसी एक पार्टी को चुनने की वजह विचारधारा नहीं रही. बल्कि राजनीतिक संभावना और जरूरत के हिसाब से कांग्रेस ने तमिलनाडु में गठबंधन पार्टनर का चुनाव किया.
यही स्थिति उत्तर प्रदेश में 1993 के बाद आई. बाबरी मस्जिद गिराए जाने से रोक पाने में प्रधानमंत्री नरसिंह राव की विफलता कांग्रेस पार्टी पर भारी पड़ी. इसके बाद से ही कांग्रेस यूपी में तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी बन कर रह गई. वह सपा या बसपा से तालमेल भी करती रही है. वहीं, बिहार में 2000 के बाद से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार राजनीति के दो बड़े खिलाड़ी बन गए. सत्ता घुमा-फिराकर इनके पास रही. कांग्रेस यहां भी चौथे नंबर की पार्टी है और ज्यादातर समय वह लालू प्रसाद के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है.
अब ऐसा लगता है कि जो काम तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार में पहले हो गया, यानी कांग्रेस का जूनियर पार्टनर के तौर पर गठबंधन में शामिल होना- वह अब देश के कई और राज्यों में होने वाला है.
कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति का लंबे वक्त तक मुकाबला किया
यह 'गैरभाजपावाद' का असर है. भारत की राजनीति लंबे समय तक कांग्रेस और कांग्रेस विरोध की धुरी पर घूमती रही. उस समय तक समाजवादी, कम्युनिस्ट या क्षेत्रीय दल कभी अलग रहकर, तो कभी गठबंधन बनाकर कांग्रेस को चुनौती देते रहे. बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ ने भी यही किया. जनसंघ ने तमाम तरह के गठबंधनों में हिस्सा लिया. 1977 में तो उसने जनता पार्टी में अपना विलय भी कर लिया था. कांग्रेस हमेशा एक सिरे पर मजबूती से टिकी रही. लेकिन अब कांग्रेस में अब वह दम नहीं रहा. वह अपने पुराने दिनों की धुंधली सी छाया बनकर रह गई है.
यह बीजेपी के आने और छा जाने का दौर है. 1999 में बीजेपी आई और लगातार दो चुनावों में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लेकिन वह दौर अस्थायी साबित हुआ. केंद्र में बीजेपी की बहुमत की सरकार नहीं थी और ज्यादातर राज्य बीजेपी की पहुंच से दूर थे. 2004 में वह केंद्र की सत्ता से बेदखल हो गई.
चार दर्जन पार्टनर बनाकर बीजेपी ने विभिन्न जातियों को अपने साथ जोड़ा
2014 से देश का राजनीतिक नक्शा बदल चुका है. इस साल के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने दम पर बहुमत मिला. गठबंधन पार्टनर्स के साथ वह आराम से शासन कर रही है. देश के 20 राज्यों में या तो बीजेपी की खुद या फिर गठबंधन सहयोगियों के साथ सरकार है. यह लगभग वैसी ही स्थिति है, जैसी स्थिति 1950 के दशक में कांग्रेस की थी. फर्क सिर्फ इतना है कि जहां कांग्रेस यह सब अपने दम पर कर रही थी, वहीं बीजेपी के देशभर में लगभग चार दर्जन पार्टनर हैं.
बीजेपी ने तमाम तरह की पार्टियों से समझौते किए हैं. कई राज्यों में वह जूनियर पार्टनर भी है. गठबंधन में शामिल कई पार्टियां तो बेहद छोटी हैं. लेकिन बीजेपी ने इस बात की परवाह नहीं की कि पार्टी छोटी है. अगर वह पार्टी अपने साथ किसी जाति या समुदाय को लेकर आ रही है, तो बीजेपी ने उसका बांह खोलकर स्वागत किया. इस वजह से बीजेपी विभिन्न जातियों को अपने साथ जोड़ पाई, जो बीजेपी से सीधे जुड़ने को तैयार नहीं थे या बीजेपी के पास उन सबको अपने पार्टी ढांचे में एडजस्ट करने की क्षमता नहीं थी.
कांग्रेस विपक्ष में होकर भी गठबंधन करने को लेकर इतनी सहज नहीं रही है. गठबंधन करना और चलाना उसके मिजाज के खिलाफ था. बाबरी मस्जिद गिरने के बाद के दौर में उसने 1996 में केंद्र में जनता दल की सरकार को समर्थन दिया. पहले उसने एचडी देवेगौड़ा की सरकार गिराई और फिर 1998 में इंद्र कुमार गुजराल की सरकार गिरा दी. इसकी कीमत उसे चुकानी पड़ी और अगली सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की बन गई.
अपनी पिछली गलती सुधार रही है कांग्रेस
2018 में हालात बदल गए हैं और कांग्रेस भी बदल गई है. उसे यह एहसास हो चुका है कि वह अकेले दम पर बीजेपी को रोकने में सक्षम नहीं है. कर्नाटक में जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देकर कांग्रेस उस गलती को सुधार रही है, जो उसने कुमारस्वामी के पिता एचडी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री पद से हटाकर की थी.
कांग्रेस अगर गठबंधनों को लेकर सजह हो पाती है और गठबंधन को अपनी कमजोरी नहीं, बल्कि ताकत मानती है, तो देश गठबंधनों के दौर में प्रवेश कर जाएगा. ऐसी स्थिति में देश में दो बड़े गठबंधन होंगे, जिसमें से एक का नेतृत्व कांग्रेस और दूसरे का नेतृत्व बीजेपी कर रही होगी. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हर राज्य में नेतृत्व कांग्रेस या बीजेपी के ही हाथ में होगा. कई राज्यों में उन्हें जूनियर पार्टनर बनना पड़ेगा.
कांग्रेस और बीजेपी में से जो भी पार्टी गठबंधन बनाने में ज्यादा लोच दिखाएगी, ज्यादा सहजता से और समझदारी से गठबंधन बनाएगी, उसके लिए सत्ता की राह आसान होगी.
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