मुझे लगता है कि बार-बार ये कहना अब छोड़ देना चाहिए कि 2021 में भी महिलाएं अपने मूल अधिकारों के लिए लड़ रही हैं. क्योंकि साल और डायलॉग तो बदल रहे हैं, लेकिन हालात नहीं. हकीकत यही है. हम लड़ रहे हैं. रोज लड़ रहे हैं. दशकों की लड़ाई और संघर्ष के बाद महिलाएं एक कदम आगे बढ़ाती हैं, और फिर एक घटना या किसी नेता का एक बयान उन्हें वापस वहीं लाकर खड़ा कर देता है, जहां से उन्होंने शुरुआत की थी. हां, 2021 आ गया है लेकिन आज भी महिलाओं के शरीर पर उनका हक है या नहीं, इसपर बहस खुलेआम जारी है और इस चर्चा में महिलाओं की आवाज ही गायब है.
ताजा बयान दिया है कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री के सुधाकर ने. उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा,
कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री का बयान महिलाओं की आजादी और उनके रिप्रोडक्टिव (प्रजनन) अधिकारों पर सीधा-सीधा हमला है. दुनियाभर में महिलाएं इन अधिकारों को लेकर सड़कों पर हैं. अमेरिका से लेकर पोलैंड तक महिलाएं लड़ाई लड़ रही हैं. वहीं, भारतीय समाज आज भी महिलाओं के अस्तित्व को बच्चों से अलग देखने को राजी नहीं है. इस देश में पुरुष महिलाओं की आजादी को अपनी जागीर समझते हैं, कि उन्हें उड़ने तो देंगे, लेकिन डोर अपने हाथ में रखेंगे!
जब चारों ओर से किरकिरी हुई तो मंत्री जी ने सफाई में कहा कि वो सर्वे के हवाले से ये कह रहे थे, जिसमें सामने आया था कि युवा आबादी शादी से भाग रही है. सुधाकर ने सफाई में कहा, "युवा पीढ़ी के शादी और रिप्रोडक्शन से दूर हटने के बारे में मेरा बयान भी एक सर्वे पर आधारित है. YouGov-Mint-CPR मिलेनियल सर्वे के रिजल्ट से पता चलता है कि मिलेनियल्स में, 19% लोग बच्चे या शादी नहीं चाहते."
यहां ये बात ध्यान देने वाली है कि कार्यक्रम में जिस सर्वे के आधार पर स्वास्थ्य मंत्री ये दावा कर रहे थे, उसमें पुरुष या महिलाओं को कैटेगराइज नहीं किया गया है, लेकिन अपनी सहूलियत से उन्होंने ऐसा जरूर कर दिया और सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी.
YouGov-Mint-CPR Millennial Survey में सामने आया था कि 19% मिलेनियल्स शादी या बच्चे में इंट्रेस्टेड नहीं है. 8% बच्चे चाहते हैं, लेकिन उन्हें शादी में दिलचस्पी नहीं है. मिलेनियल्स की बाद की जनरेशन — Gen Z में, 23% को न शादी में इंट्रेस्ट है न बच्चों में. 8% को बच्चे चाहिए, लेकिन शादी नहीं.
दुनियाभर में ऐसी महिलाओं की तादाद बढ़ रही है, जिन्हें या तो बच्चा नहीं चाहिए, या फिर वो बच्चे में देरी कर रही हैं. द न्यूयॉर्क टाइम्स ने कुछ महीनों पहले अपनी रिपोर्ट में बताया था कि अमेरिका का बर्थ रेट गिर रहा है, और महिलाएं कम बच्चे पैदा कर रही हैं. इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे करियर, आर्थिक स्थिति, परिवार का सपोर्ट न होना, सरकारी योजनाओं का लाभ न मिलना आदि. और इन सबसे बड़ी बात, अगर महिलाओं को बच्चे नहीं चाहिए, तो यही कारण काफी है. उन्हें इसके पीछे समाज को तर्क देने की कोई जरूरत नहीं है.
मेंटल हेल्थ की बात कीजिए
स्वास्थ्य मंत्री की बातों से ज्यादा हैरानी वाली बात ये थी कि उन्होंने ये बातें वर्ल्ड मेंटल हेल्थ डे पर बेंगलुरु में आयोजित NIMHANS के एक कार्यक्रम में कहीं. जिस समय स्वास्थ्य मंत्री को मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने की जरूरत थी, उस समय वो 'आधुनिक भारतीय महिलाओं' की आलोचना में लगे थे. उन्होंने रेप सर्वाइवर्स, घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं, मां बनने में असमर्थ या मां बनने के बाद पोस्टपार्टम डिप्रेशन का सामना कर रही महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर कोई बात नहीं की.
स्वास्थ्य मंत्री ने ये तो कह दिया कि महिलाएं बच्चे नहीं पैदा करना चाहतीं, लेकिन उन्होंने इसपर कुछ नहीं कहा कि इस देश में मदरहुड चुनने वाली महिलाओं की हालत क्या है.
देश में आज भी हजारों महिलाओं को डिलीवरी के दौरान समस्याओं का सामना करना पड़ता है, और कइयों की इस दौरान मौत भी हो जाती है. UNICEF के मुताबिक, चाइल्ड बर्थ के दौरान महिलाओं की मौत में कमी आ रही है, लेकिन फिर भी 2018 में 26,437 महिलाओं की इस दौरान मौत हो गई.
वहीं, अगर बात सेरोगेसी की करें, तो ये रास्ता उन तमाम महिलाओं को मां बनने का विकल्प देता है, जो किसी भी कारणवश प्रेगनेंट नहीं हो सकतीं. सेरोगेसी एक मेडिकल ऑप्शन है, जिसपर भारत सरकार ने कानून भी बनाया है, लेकिन स्वास्थ्य मंत्री की टिप्पणी से ऐसा लगा जैसे ये कोई अपराध है, गैरकानूनी है.
कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री या कोई और, किसी के पास ये हक नहीं है कि वो महिलाओं से सवाल करें कि वो क्यों शादी नहीं करना चाहतीं या क्यों मां नहीं बनना चाहती हैं.
उनके इस बयान पर मशहूर अमेरिकी सीरियल F.R.I.E.N.D.S. की कैरेक्टर रेचल ग्रीन का एक डायलॉग याद आता है — 'No Uterus, No Opinion' — मतलब, गर्भाशय नहीं, तो राय भी नहीं.
मां बनना हर औरत का सपना नहीं
भारतीय समाज की आदत रही है मां शब्द का महिमामंडन करने की. यहां हर औरत की तुलना 'मदर इंडिया' की उस छवि से की जाती है, जिसकी अपनी कोई इच्छाएं नहीं हैं और अपने परिवार के लिए वो कोई भी त्याग करने को हमेशा तैयार रहती है. ये मान लिया गया है कि इस देश में सभी महिलाएं मां बनना चाहती हैं, और अगर वो ऐसा नहीं चाह रही हैं, तो वो ज्यादा मॉडर्न हो गईं और इससे भारतीय समाज को खतरा है.
आजाद महिलाओं को हमेशा से ही हमारा समाज दुश्मन के तौर पर देखता आया है. वो महिलाएं ,जो जानती हैं कि उन्हें क्या करना है, जिनके विचार स्पष्ट हैं, जिनके शरीर पर केवल उनका हक है.
इसलिए समाज उन्हें बार-बार धर्म, परंपरा और पारिवारिक मूल्यों के पीछे धकेलता आया है. हर कुछ दिन बाद कोई नेता खड़ा होता है और कहता है कि महिलाओं की अपनी इच्छाएं नहीं होती, उनके लिए पति-परिवार से बढ़कर कुछ नहीं है. यही कारण है कि भारत में अब तक मैरिटल रेप को कानूनन अपराध नहीं बनाया गया है. जब-जब देश में मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) को लेकर आवाज उठी है, नेताओं और कानून बनाने वालों ने यही कहा है कि इससे शादी का इंस्टीट्यूशन कमजोर पड़ जाएगा और परिवार टूट जाएंगे. मैरिटल रेप को कानूनन अपराध न बनाना महिलाओं को उनके शरीर पर हक जैसे मूल अधिकार से दूर करता है और इसकी अनुमति पुरुषों के हाथ में दे देता है.
बजफीड इंडिया की पूर्व एडिटर रेगा झा ने महिलाओं की आजादी कहा था, "There’s a dangerous thing that happens if a woman feels free, even momentarily. She might refuse to ever feel any other way again." मतलब, अगर औरत एक पल के लिए भी आजाद महसूस करती है, तो ये स्थिति 'खतरनाक' है. शायद वो पहले जैसा कभी महसूस करने से इनकार कर दे.
और इसलिए ही ये समाज महिलाओं को आजादी चखने से रोकने की हमेशा कोशिश करता रहा है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)