ADVERTISEMENT

आर्टिकल 370: मोदी सरकार के दावों के दो साल बाद भी कटीले तारों में उलझी ‘आजादी’

Article 370 की समाप्ति के दो साल बाद भी Kashmir में पाबंदियां हैं. अब भी कर्फ्यू की वजह सुरक्षा को बताया जा रहा है

Published
आर्टिकल 370: मोदी सरकार के दावों के दो साल बाद भी कटीले तारों में उलझी ‘आजादी’
i
Like
Hindi Female
listen

रोज का डोज

निडर, सच्ची, और असरदार खबरों के लिए

By subscribing you agree to our Privacy Policy

आर्टिकल 370 (Article 370) की समाप्ति के दो साल बाद भी कश्मीर (Kashmir) की घेराबंदी की जा रही है.अभी भी कर्फ्यू को सुरक्षा उपाय के रूप में घोषित किया जा रहा है. सुरक्षा किससे? 700,000 की सेना के साथ कश्मीर सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्र है, और फिर भी, 2019 में सरकार ने पहले से ही उसके नियंत्रण में रह रहे लोगों की सुरक्षा के लिए 35,000 से अधिक सैनिक बलों को तैनात किया. प्रशासन के एक प्रवक्ता का दावा था, "हमने जान बचाने का फैसला किया है, कुछ स्वतंत्रताओं से समझौता करना पड़ सकता है"

ADVERTISEMENT

पिछले 70 वर्षों में पहले से ही शक्तिशाली केंद्र को , अनुच्छेद 370 की समाप्ति के साथ और शक्तियां मिल गई हैं. सरकार ने पिछले साल "एक भारत, एक आत्मा" के साथ अपनी वर्षगांठ मनाई; इस साल जून में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के नेताओं से दूरियां कम करने के बारे में बात की - "दिल्ली की दूरी" और "दिल की दूरी". इस मेलोड्रामा का जवाब देने की जिम्मेदारी कश्मीर पर है.

जब बीजेपी सरकार दिल और आत्मा की बात कर रही है, याद रखिये इसने नियंत्रण अपने हाथ में लेने से पहले पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को कश्मीर से बाहर निकाल दिया. आर्टिकल 370 को हटाना इसके भारत को "दूसरों" से पुनः प्राप्त करने का अभियान का हिस्सा है. इसमें स्थानीय नेताओं और लिबरल्स द्वारा भी गुप्त रूप से या अनजाने में इनकी सहायता की जाती है.

एक तरफ जम्मू कश्मीर की चिंता करने की बात कहना और दूसरी तरफ तारों की मदद से इसे घेरना दरअसल कश्मीरी लोगों को अपने भाग्य का फैसला करने के किसी भी अधिकार से दूर रखने का प्रयास है.

ADVERTISEMENT

क्या कश्मीर को राष्ट्रवाद के चश्मे से देखा जा सकता है? यदि "कश्मीर हमारा है", तो भारत को कश्मीरियों की कितनी परवाह है? सरकार जम्मू और कश्मीर के साथ किये एक हस्ताक्षरित और मुहरबंद वादे से मुकर गयी.

उन्होंने राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं, व्यापारियों और नागरिकों को सलाखों के पीछे डाला या नजरबंद कर दिया, उन्होंने 80 लाख लोगों के अधिकार, उनका झंडा, और अपने खुद के भविष्य के बारे में निर्णय का अधिकार छीन लिया.

सेना को विशेष शक्तियां

और अब, 1 अगस्त को, पुलिस ने "विध्वंसक गतिविधियों में शामिल लोगों को पासपोर्ट और अन्य सरकारी सेवाओं के लिए सिक्योरिटी क्लीयरेंस से इनकार करने" का आदेश जारी किया. पासपोर्ट अपनेपन का प्रतीक है, और इसे रोककर रखना इससे इनकार है. इसके अलावा, “विध्वंसक गतिविधियां” एक अस्पष्ट आरोप है.

ADVERTISEMENT

पत्थरबाज ज्यादा से ज्यादा परेशानी का सबब बन सकते हैं. लेकिन कश्मीर में उनके साथ आतंकवादी जैसा व्यवहार किया जाता है. सेना के पास ‘सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ (AFSPA) के तहत नागरिक क्षेत्रों के साथ युद्ध जैसे क्षेत्र के रूप में बर्ताव करने की शक्ति है.

फिर भी, 2017 में, मेजर लीतुल गोगोई ने एक व्यक्ति को जीप से बांध दिया, उसे सड़कों पर घुमाया, कहने को यह कार्रवाई पथराव करने वाले स्थानीय लोगों से मतदान केंद्र पर लोगों को बचाने के लिए थी. फारूक डार, जिसे मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया गया था,वो पत्थरबाज नहीं, बल्कि शॉल बुनकर था.

मेजर गोगोई को "निरंतर उग्रवाद विरोधी प्रयासों" के लिए जल्द ही पुरस्कृत किया गया . सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने इस प्रकरण के बचाव में कहा था, ''यह एक प्रॉक्सी वॉर है और प्रॉक्सी वॉर एक डर्टी वॉर है..आप इनोवेशन के साथ एक डर्टी वॉर लड़ते हैं.'
ADVERTISEMENT

इसके बाद इस बात में कोई संदेह नहीं बचता कि सेना आज भी कश्मीरियों को कैसे देखती है. जनरल का जुझारूपन का सन्देश "सैनिकों के मनोबल" को बनाए रखने के बारे में कम और देशभक्ति की भावना को जगाने के लिए एक राजनीतिक एजेंडे का पालन करने के बारे में अधिक था.

ADVERTISEMENT

भारतीय मीडिया का कथित सहानुभूति वाला वर्ग जो खुद को "सम्मानित कश्मीरियों" के रूप में पेश करता है,मालिकाना देशभक्ति का स्वर बरकरार रखता है. राज्य से कश्मीरियों की आवाज कम ही सुनने को मिलती है.जो कोशिश करता है उसे भुगतना पड़ता है.

मिलिटेंटों का इंटरव्यू लेने वाले एक पत्रकार पर "ज्ञात आतंकवादियों को पनाह देने" का आरोप लगाया गया था. आसिफ सुल्तान को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत गिरफ्तार किए लगभग तीन साल हो चुके हैं.

कश्मीरी नेताओं की राजनैतिक अस्थिरता

कहां हैं कश्मीरी नेता? उन्होंने भी, भारतीय राज्य के आगे दण्डवत होने में भूमिका निभाई है

मोदी सरकार डल झील पर शिकारा पर सवार विदेशियों की परेड कराती है, यह दिखाने के लिए कि सब कुछ ठीक है; मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्ला ट्यूलिप गार्डन को विकास के रूप में पेश करते थे. हाल ही में एक टीवी शो के बाद, वह केवल तथ्यों का हवाला देकर असहमति की धुरी बनने में कामयाब रहे हैं. लेकिन ये तथ्य परियोजनाओं के बारे में थे, मरे और गिरफ्तार लोगों के आंकड़े नहीं थे.

ADVERTISEMENT

विशेषाधिकार प्राप्त लोगों में, उन्हें ‘विक्टिम हीरो’ के रूप में देखा जाता है क्योंकि उन्हें पांच महीने तक अखबारों से दूर कर दिया गया था और दाढ़ी बढ़ानी पड़ी थी. जमीन पर, पुलिस ने "संदेह" पर गिरफ्तार एक ग्रामीण की दाढ़ी खींची और उसे आग लगाने की कोशिश की.

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को नजरबंद कर दिया गया था, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे बीजेपी के साथ अवसरवादी कारणों से साथ आये थे, जिसने हमेशा कश्मीर को अपना "अटूट अंग" माना है.

2012 में, जब राहुल गांधी ने तत्कालीन राज्य के पंचायत नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल से कहा कि वह उनके दर्द को गहराई से समझना चाहते हैं, तो भावुक फारूक अब्दुल्ला ने जवाब दिया, “हम भारतीय हैं और हम भारतीय के रूप में मरेंगे. कोई ताकत हमें भारत से अलग नहीं कर सकती. एक दिन आएगा जब राहुल और उमर के बच्चे हमारे द्वारा उठाए गए कदमों का फल देखेंगे.”

ADVERTISEMENT

आर्टिकल 370 की समाप्ति के बाद महबूबा मुफ्ती का पहला ट्वीट था, “आज भारतीय लोकतंत्र में सबसे काला दिन है.1947 में 2 राष्ट्र सिद्धांत को खारिज करने और भारत के साथ गठबंधन करने के जम्मू-कश्मीर नेतृत्व के निर्णय का उलटा असर हुआ है.”

दिलचस्प बात यह है कि उन्हें उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला द्वारा लागू किये गया सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA ) के तहत गिरफ्तार किया गया था.कश्मीरी नेताओं को राज्य को अपने ही लोगों से सुरक्षित रखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? भारतीय लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रत्यक्ष निष्ठा के साथ, क्या वे कश्मीरियों के संघर्षों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, जिनका अलगाव साफ साफ दिखता है?

हर जगह फैला एक क्रोध

सड़कों पर लोगों का दिखता क्रोध हैरान करने वाला नहीं होना चाहिए. बाढ़ के दौरान उनकी मदद करने वाली सेना के प्रति आभारी नहीं होने के लिए लोगों पर ताना मारा गया है, उन्हें "हमसे" जीने और कमाने के बारे में ताना मारा गया है.भारत से कोई लेना-देना नहीं होने की स्थानीय भावना मुखर रही है.

ADVERTISEMENT

आगा शाहिद अली ने लिखा, 'हर कोई अपना पता जेब में रखता है ताकि कम से कम उसका पार्थिव शरीर घर पहुंचे. भारतीय संविधान में प्रदान किए गए आत्मनिर्णय के उनके अधिकार की समझ और इच्छा ही यह तय कर सकती है कि हमारी सहानुभूति मायने रखती है या नहीं.

(फरजाना वर्सी मुंबई बेस्ड लेखिका हैं. उनका ट्विटर हैंडल है - @farzana_versey. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
और खबरें
×
×