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भारत में राम नवमी में हिंसा और संघ: समझिए एक सदी की क्रोनोलॉजी

संघ संस्थापक हेडगेवार के नेतृत्व में एक जुलूस निकला था, तब मस्जिदों के पास से गुजरने पर तेज संगीत बजाया गया था

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की 2019 में कही एक बात मशहूर हो गई-'आप क्राेनोलॉजी समझिए'. यह बात गृह मंत्री ने तब कही थी जब वे राष्ट्रव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को लागू करने की केंद्र सरकार की योजनाओं व महत्वाकांक्षाओं को समझा रहे थे. हालांकि कई कारणों से वह टाइमलाइन गड़बड़ा गई.

जो भी परिवर्तन होता है वह पहले से चली आ रही घटनाओं के क्रमिक विकास की व्यवस्था से होता है. ऐसे में रामनवमी जुलूस के दौरान देश भर के कई राज्यों में हुए सांप्रदायिक संघर्षाें के संदर्भ में इसके (संघर्ष) विकास की एक सदी पुरानी श्रृंखला का पता लगाना आवश्यक है. इसमें भी एक 'क्रोनोलॉजी' है जो अमित शाह की क्राेनोलॉजी से अलग है. ये क्रोनोलॉजी उन्हें और उनके जैसों के लिए शायद विचलित करने वाली हो सकती है. एक सांप्रदायिक विचारधारा को समर्पित एक प्रेरक दल के तौर पर यह उनके अतीत का एक ऐसा पहलू है जिसे वे याद नहीं दिलाना चाहते हैं.

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सबसे पहले हमें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच निर्विवाद रूप से रोके जा सकने वाले इन संघर्षों के मूल कारण को देखना चाहिए, जिसमें ढेर सारे लोग घायल हुए हैं और कुछ मौतें भी हुई हैं, भारी संख्या में सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया.

सभी घटनाओं से यही बात निकल सामने आती है कि हिंसा तब देखने को मिली जब जब रामनवमी पर जुलूस निकाले गए और इन जुलूसों में दिखावटी भक्तों ने मस्जिदों तथा मुस्लिम इलाकों से गुजरते हुए भगवा झंडे लहराते हुए भड़काऊ नारे लगाए.

1925 से चली आ रही 'क्रोनोलॉजी'

एक हिंदुत्व समर्थक वेबसाइट के अनुसार एक हिंदू दक्षिणपंथी टिप्पणीकार इस बात को स्वीकारते हैं कि जुलूसों पर भारी पथराव के लिए "सामान्य या अक्सर होने वाला 'ट्रिगर' यह था कि जुलूस मस्जिदों के सामने से गुजर रहे थे लेकिन संगीत बंद नहीं किया." वहीं बहुसंख्यकवादी तर्क यह है कि 'मस्जिदों के बाहर संगीत बजाने वाले हिंदू जुलूस' के बाद हिंसक मुस्लिम प्रतिक्रियाओं की 100 से अधिक वर्षाें पुरानी परंपरा रही है.

यह तर्क आधा-अधूरा है क्योंकि यह इस बात की अनदेखी करता है कि 100 से अधिक वर्षों से हिंदू जुलूस के आयोजकों ने त्योहार मनाने के नाम पर मस्जिदों या कॉलोनियों से गुजरते समय खुले तौर पर मुस्लिमों को जानबूझकर उकसाया है.

इस घटनाक्रम की शुरुआत या 'क्रोनोलॉजी' पर एक बार फिर से नजर दौड़ाना महत्वपूर्ण है क्योंकि आंतरिक रूप से यह 1925 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना से जुड़ा हुआ है, जो (आरएसएस) भारतीय जनता पार्टी (BJP) का वैचारिक स्रोत है. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह सहित अधिकांश बीजेपी नेताओं के लिए आरएसएस एक 'ट्रेनिंग' ग्राउंड भी है.

'सुसंगठित नहीं हैं हिंदू' : हेडगेवार

1857 के विद्रोह के दौरान हिंदू और मुस्लिम समुदाय के रणनीतिक रूप से एक साथ शामिल होने के बावजूद, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सामाजिक संबंध अक्सर ठीक नहीं थे. आरएसएस की जन्मस्थली नागपुर में 1903-04 और 1914 में दोनों समुदायों के बीच गंभीर टकराव हुए.

आरएसएस के अंतिम संस्थापक केबी हेडगेवार और उनके राजनीतिक गुरु बीएस मुंजे ने हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत करने और खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन में विलय करने के बाद 1920 के दशक की शुरुआत में खुद को महात्मा गांधी से दूर कर लिया था.

केबी हेडगेवार और बीएस मुंजे, दोनों ने नागपुर में मुसलमानों के खिलाफ हिंदू भावनाओं को संगठित किया था. मुंजे ने 1921 की भयावह हिंसक घटनाओं की जांच के लिए केरल के मालाबार क्षेत्र में एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम का नेतृत्व किया था. असहयोग आंदोलन में शामिल होने के कारण जेल में रहते हुए हेडगेवार को इस बात का पता चला था; 1922 में जब वे रिहा हुए तब तक चौरी चौरा में हुई हिंसक घटना के बाद गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया था.

मोपला विद्रोह पर मुंजे ने अपनी रिपोर्ट भी जारी की थी और इसे "जबरन धर्मांतरण" और "मुस्लिम शासन के बाद हिंदुओं पर सबसे बड़ा मुस्लिम हमला" बताया था.

एक स्पष्ट बहुसंख्यकवादी पूर्वाग्रह और मध्य भारत में बढ़ती मुस्लिम विरोधी भावना के साथ रिपोर्ट जारी होने से स्वामी श्रद्धानंद के पास 'शुद्धि' आंदोलन शुरू करने के लिए अहम कारण व तर्क मिल गया था.

नतीजतन इसका सीधा परिणाम यह देखने को मिला कि हेडगेवार ने अपनी उस राय की पुष्टि कि 'हिंदू मुसलमानों की तरह सुव्यवस्थित नहीं हैं ... इसे हल करने का एकमात्र तरीका... हिंदू नेताओं के लिए अपने स्वयं के समाज को संगठित करना है.' इस दिशा में आरएसएस के भावी संस्थापक ने नेतृत्व करने का फैसला किया.

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मुंजे और हेडगेवार ने डिंडी सत्याग्रह का नेतृत्व किया

ईसाई मिशनरियों में जिन अनाथों ने शरण ले रखी थी उनकी वापसी कराकर हेडगेवार ने अपने अभियान की शुरुआत की. लेकिन हिंदुओं को अपनी ओर करने और मुसलमानों के साथ फूट की खाई बढ़ाने में उन्हें असली सफलता 1923 में मिली थी.

यह तब हुआ जब उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ एक अभियान शुरू किया. उनकी मांग सहज थी : हिंदू अब 1914 के दंगों के बाद हुए 'शांति समझौते' का पालन नहीं करेंगे और अब से मस्जिदों के सामने से गुजरते हुए भी तेज संगीत के साथ धार्मिक जुलूस निकालेंगे.

हेडगेवार ने कहा था कि संगीत बजाने का अधिकार कोई मामूली विषय नहीं है बल्कि 'हिंदू पराक्रम' की अभिव्यक्ति है. उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि उपरोक्त समझौता हिंदुओं द्वारा संगीत की 'अनुचितता' में प्रचलित मुस्लिम दृष्टिकोण को स्वीकार करने के बाद आया था.

स्थानीय अधिकारियों ने जुलूसों के दौरान संगीत बजाने पर रोक लगा दी, लेकिन हेडगेवार ने हिंदू आयोजकों को विरोध में गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने के लिए मना लिया. इस वजह से उन हिंदुओं में गुस्सा पैदा हो गया जिन्होंने इस गतिरोध के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार माना था.

आखिरकार, संगीत पर प्रतिबंध लगाने के निर्देशों का उल्लंघन किया गया और मस्जिदों के सामने से गुजरते समय "अत्यधिक शोर" के साथ जुलूस निकाले गए.

इस विरोध को 'डिंडी सत्याग्रह' कहा गया, जिसमें एक समूह, या डिंडी, भक्ति गीत गा रहा था. अकादमिक जॉन ज़ावोस ने अपनी पुस्तक एमर्जेंस ऑफ हिंदू नेशनलिज्म इन इंडिया में लिखा है कि मुंजे ने सत्याग्रह को कोरियोग्राफ किया था, जबकि हेडगेवार ने " आक्रामक सैनिक के रूप में काम किया"
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इस तरह के जुलूसों में 'माचो मैन' कैसे शामिल हुए?

मस्जिदों के सामने संगीत प्रदर्शन की सफलता के साथ, नागपुर में हिंदू महासभा की एक शाखा बनाई गई, जिसमें मुंजे उपाध्यक्ष और हेडगेवार सचिव के रूप में और नागपुर राज्य के पूर्व राजा लक्ष्मणराव भोंसले दिखावटी अध्यक्ष के रूप में थे.

जुलूसों में व्यक्तियों द्वारा बजाए गए संगीत ने आध्यात्मिक भावनाओं को नहीं बढ़ाया, बल्कि एक 'परेशान करने वाली' उपस्थिति के संकेत के रूप में कार्य किया और इस तरह से यह मुसलमानों के लिए अपमानजनक रहा.

आरएसएस की स्थापना से पहले हेडगेवार की सबसे बड़ी जीत डिंडी सत्याग्रह थी. इस अभियान के दौरान कुछ मौके ऐसे भी आए जब सुरक्षा के डर से ढोल बजाने वालों के हाथ रुक गए थे तब उन मौकों पर उन्होंने (हेडगेवार ने) मस्जिदों के बाहर खुद ड्रम बजाया.

भावी आरएसएस संस्थापक को बॉडी बिल्डिंग का भी शौक था और उन्होंने 1924 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान अपने शारीरिक कौशल का अच्छा इस्तेमाल किया.

अखाड़े, जिम या बॉडी बिल्डिंग क्लब चलाने वाले कई लोगों को राजनीति में कोई पूर्व अनुभव या रुचि नहीं होने के बावजूद डिंडी सत्याग्रह के दौरान अभियान में शामिल किया गया था.

वीडी सावरकर की किताब हिंदुत्व: हू इज ए हिंदू? में हिंदू राष्ट्रवादी विचारों को संहिताबद्ध किया गया है. इस किताब से प्रेरित होने के बाद हेडगेवार ने सितंबर 1925 में आरएसएस की स्थापना के बाद शारीरिक दृढ़ता को आरएसएस की कार्यपद्धति का अभिन्न हिस्सा बना दिया था.

हेडगेवार ने यह भी सुनिश्चित किया था कि आरएसएस के स्वयंसेवकों को तलवार, भाला और कटार जैसे हथियार चलाने के लिए भी प्रशिक्षित किया जाए. ऐसे हथियार मुख्य तौर पर निकटता से आमने-सामने की लड़ाई में उपयोग किए जाते हैं, न कि किसी देश के आक्रामकों के खिलाफ.

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'म्यूजिक-बिफोर-मस्जिद' दंगे दशकों से होते आ रहे हैं

आरएसएस के लिए मुंजे ने हेडगेवार के उत्साह का समर्थन नहीं किया था. हालांकि दिसंबर 1927 में मुंजे ने यह स्वीकार किया कि उनके एक शिष्य ने एक बार हिंदू जवाबी हमला सुनिश्चित किया था. उन्होंने कहा था कि 'हमारे [हिंदू] समाज के नीच और दब्बू स्वभाव को मिटाने का यह चमत्कार आरएसएस और हेडगेवार ने हासिल किया है.'

इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदू धार्मिक त्योहारों के दौरान जुलूस और संगीत जोकि मस्जिदों या मुस्लिम इलाकों से गुजरते वक्त और ज्यादा तीव्र हो जाते हैं, ने आरएसएस और उसके सहयोगियों की स्थापना और विकास की नींव पर कब्जा कर लिया है.

एंथ्रोपोलॉजी/एथ्नोम्युजिकोलोजी में डॉक्टरेट जूलियन लिंच ने लिखा है कि समाचार पत्रों के पाठक 19वीं शताब्दी में भी "म्यूजिक-विफोर-मस्जिद दंगे" (music-before-mosque riots) शब्द से परिचित थे. उनका मानना ​​है कि इस तरह की घटनाएं व झड़पें 'एक संगीत जुलूस की योजनाबद्ध प्रस्तुति के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुईं, आम तौर पर एक हिंदू उत्सव के दौरान, एक मुस्लिम पूजा स्थल के सामने ऐसा करना किसी के लिए अपमानजनक होता है. वहीं बार-बार ऐसा कृत्य करना उकसाने जैसा होता है जो हिंसा का रूप ले लेता है. और इस तरह से ऐसे मामलों में हिंसा होती है.'

इस तरह के धार्मिक जुलूसों में संगीत का प्रभावी रूप से संगीत से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन एक ऐसे समुदाय के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली एक अपमानजनक अभिव्यक्ति थी, जो एक जगह पर अटकी है और संगीत वो बजा रहा है जो लगातार आगे बढ़ रहा है, जो हिट-एंड-रन रणनीति का उपयोग करने में सक्षम है. इस तथ्य के बावजूद कि music-before-mosque riots की घटनाएं आरएसएस के गठन से पहले की थीं लेकिन इसका उपयोग संगठन के गठन और विस्तार के लिए महत्वपूर्ण था. लेकिन अब संगठन के नेताओं ने इस तरह के हथकंडों को आजमाने में महारत हासिल कर दी है, जैसा कि सांप्रदायिक हिंसा की ताजा घटनाएं बताती हैं

आजादी के बाद भी (विशेष रूप से राम नवमी के अवसर पर और अयोध्या राम मंदिर आंदोलन के जोर पकड़ने के बाद) आरएसएस और उसके सहयोगियों ने (बीजेपी कैडर सहित) धार्मिक जुलूसों का उपयोग हिंदुओं के बीच अपने सपोर्ट बेस को मजबूत करने के उद्देश्य से दंगा भड़काने में किया है.

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जब जुलूस 'आगमन' की घोषणा करते हैं तब भक्ति नहीं होती

जुलूसों की वजह से भड़के दंगे सौ साल पहले हेडगेवार की कोशिशों जैसे ही लगते हैं. वे उसी क्रोनोजॉलिकल का हिस्सा हैं.

लिंच ने महत्पवूर्ण रूप से कलकत्ता के द टाइम्स ऑफ इंडिया की 1924 की एक रिपोर्ट की ओर इशारा किया, जिसमें दुर्गा पूजा समारोह के दौरान एक मस्जिद के बाहर गड़बड़ी की बात की गई थी. रिपोर्ट में इस बात पर जोर देते हुए कहा गया है कि 'हिंदुओं ने बैंड और संगीत बजाकर जवाबी कार्रवाई की', जो यह दर्शाता है कि यह एक भक्तिपूर्ण कार्य नहीं था, बल्कि एक प्रकार का जवाब था.

हालिया झड़पों व संघर्षों से जुड़ी हुई रिपोर्ट और वीडियो यह प्रदर्शित करते हैं कि रामनवमी के जुलूसों के दौरान संगीत को उकसाने व भड़काने वाले कृत्यों से अलग करना मुश्किल था. यह ठीक वैसा ही था जैसा कि अतीत में आरएसएस की स्थापना के समय हुआ था. इस प्रकार संगीत केवल एक तमाशा है. यह अपने स्थान को चिह्नित करने और अपनी उपस्थिति दर्शाने, या 'आगमन' की घोषणा करने का एक तरीका है.

क्या यह अक्सर नहीं कहा जाता है कि चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वो वैसी ही रहती हैं?

(लेखक, NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वे @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं.)

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