सुरक्षाबलों ने हाल में लश्कर-ए-तैयबा के चीफ अबू इस्माइल को मार गिराया, जिससे दक्षिण कश्मीर में उसके मजबूत खुफिया तंत्र का पता चलता है. 6 महीने पहले की तुलना में यह बड़ा बदलाव है. सालभर पहले तो इस मामले में सुरक्षाबलों की हालत बहुत खराब थी. हाल यह था कि उनसे मजबूत खुफिया तंत्र आतंकवादियों का हुआ करता था.
आतंकवादियों को उनके मूवमेंट की जानकारी होती थी. कुछ मामलों में सेना के काफिले पर बीच रास्ते में हमला किया गया. कई बार आतंकवादी सेना तक गलत सूचनाएं पहुंचाकर उन्हें ट्रैप कर चुके थे. तीन महीने पहले ही पुलिस जीप में जा रहे एचएसओ और पुलिसकर्मियों पर आतंकवादियों ने हमला किया था.
इन घटनाओं और अप्रैल में बैंक की एक वैन लूटे जाने के बाद पुलिस ने अपने खुफिया तंत्र को मजबूत बनाना शुरू किया. इसके नतीजे भी दिखने लगे हैं.
जून में 12 आतंकवादियों को मार गिराया गया. जुलाई में 13 और अगस्त में 16 आतंकवादियों को सुरक्षाबलों ने ढेर कर दिया. वहीं, सितंबर के पहले 15 दिनों में 7 आतंकवादियों को मारा गया है. वहीं, पिछले साल 46 आतंकवादी और 2015 में 36 आतंकवादियों को मारने में सुरक्षाबलों को सफलता मिली थी.
खुफिया तंत्र क्यों मजबूत हुआ?
मिलिट्री इंटेलिजेंस में मजबूती की दो वजहें हैं. पहली, सरकार ने आतंकवादियों की फंडिंग रोकने के लिए सख्ती बढ़ाई है और दूसरी, राज्य में लंबे समय से चल रही अशांति से लोग ऊब गए हैं.
8 जुलाई 2016 को आतंकवादी कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद लोगों में जो रोष और गुस्सा था, वह अब नहीं दिखता.
हाल यह है कि अबू इस्माइल या उससे पहले लश्कर चीफ अबू दुजाना के मारे जाने पर लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई. मुठभेड़ के कुछ घंटे बाद जब आर्मी ने मीडिया को दिखाया कि दुजाना को किस तरह से मारा गया तो पड़ोसियों ने उसका विरोध नहीं किया. आतंकवादियों के खिलाफ ये अभियान बहुत तेजी से किए गए और सुरक्षाबलों को घेराबंदी में कोई परेशानी नहीं हुई.
जाकिर मूसा का रोल
क्या आपस में होड़ करने वाले आतंकवादियों की वजह से सुरक्षाबलों का खुफिया तंत्र मजबूत हुआ है? ऐसी अटकलें लग रही हैं. इसमें खास तौर पर जाकिर मूसा का जिक्र हो रहा है, जिसने मई में हिज्बुल मुजाहिदीन से अलग होकर अल कायदा की यूनिट बनाई थी.
कुछ जानकारों का कहना है कि मूसा जैसे लोग जिस तरह के आतंकवाद के प्रतिनिधि हैं, कश्मीरी उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. हालांकि, मूसा एक मध्यवर्गीय परिवार से आता है और वह जमात-ए-इस्लामी से है. उसका एक भाई डॉक्टर है और दूसरा वकील. बुरहान वानी के साथ आतंकवादी बनने से पहले मूसा चंडीगढ़ में एक इंजीनियरिंग कॉलेज का स्टूडेंट था.
आतंक का अलग चेहरा
मूसा की छवि दक्षिण कश्मीर में एक ‘एंग्री यंगमैन’ की रही है, जिससे स्थानीय लोग डरते हैं.
वैसे तो पाकिस्तान ने मूसा को बुरहान की जगह नियुक्त किया था, लेकिन वह मई में हिज्बुल से अलग हो गया. इससे पहले उसने बयान दिया था कि अगर हुर्रियत नेता कश्मीर के आंदोलन को राजनीतिक बताते रहे तो वह लाल चौक पर गला रेतकर उनकी हत्या कर देगा. वह पाकिस्तानी सेना को अमेरिका का पिट्ठू बता चुका है.
इस बीच, 15 सितंबर को दक्षिण कश्मीर में ऐसे पोस्टर दिखे, जिनमें मूसा को भारत का एजेंट बताया गया था. हिज्बुल के टॉप आतंकवादी और मीडिया का एक वर्ग पहले ही ऐसी आशंका जाहिर कर चुका है.
अब नया चेप्टर
चार महीने पहले मूसा के हिज्बुल से अलग होने से कश्मीरी आतंकवादियों के बीच 23 साल पहले वाली होड़ का माहौल दिख रहा है.
है. 1994 के बाद से हिज्बुल कश्मीरी आतंकवादियों का संगठन रहा है और तब दूसरे कश्मीरी आतंकवादी पैसे लेकर आर्मी या बीएसएफ के लिए काम करते थे. उसके बाद से लश्कर-ए-तैयबा और हरकत-उल-जिहाद इस्लामी (हरकत-उल-मुजाहिदीन) जैसे संगठन पर पाकिस्तानी आतंकवादियों का दबदबा रहा है.
1990 के दशक में जब कई कश्मीरी ग्रुप थे, तब खासतौर पर हिज्बुल और जेकेएलएफ एक-दूसरे से संघर्ष करते थे. यह लड़ाई विचारधारा, किसी इलाके पर दबदबे या कई बार अहं के टकराव की वजह से होती थी.
(लेखक जाने-माने जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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