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"मैडम आप अब भी वकील हैं?"- अदालत से लेकर आम जिंदगी में महिला वकील होने की कशमकश

महिलाओं के लिए 'डिग्री लेकर घर बैठने की च्वाइस’ फ्री च्वाइस कहां होती है? क्या घर के मर्दों के लिए भी यही नियम है?

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“क्या आप अब भी एक वकील हैं?”

“हां...” मैंने दांत पीसते हुए, पर शांत भाव से कहा.

वैसे अक्सर मेरे रिश्तेदार और यहां तक कि क्लाइंट्स भी मुझे यह सवाल किया करते हैं. वे रिश्तेदार जिनका चेहरा हमेशा इस घमंड से भरा रहता है कि “हम तुमसे बेहतर जानते हैं”. हर बार यह सवाल मुझे तौहीन सा लगता है. मैं सोचा करती हूं कि ऐसा क्यों है. लेकिन फिर, मैं जानती हूं कि...

बदकिस्मती से, इसकी वजह सिर्फ मेरा जेंडर नहीं, पेशा भी है. मिसाल के तौर पर, कोई किसी डॉक्टर से नहीं पूछता, उसका जेंडर जो भी हो, कि क्या “अब भी एक डॉक्टर हैं.”

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हां, वकील बनना तब कुछ आसान था, जब मैंने करीब तीस साल पहले लॉ कॉलेज में अप्लाई किया था, लेकिन तब औरतों के लिए यह पेशा चुनना उतना भी आसान नहीं था, क्योंकि यह सवाल तब भी दागा जाता था, “आखिरकार तुम्हारे दिमाग में यह पेशा आया कैसे”, चूंकि इस पेशे के साथ मैंने शादी और बच्चों को भी चुना था, इसी के चलते मुझे इस अप्रिय सवाल का सामना करना पड़ता था.

इसकी दो वजहें हैं.

भारत में लोग वकील क्यों बनना चाहते हैं

उस केबल टीवी मैकेनिक की याद कीजिए जो कुछ साल पहले आपके घर आया करता था. तब उसने चाय, या नींबू पानी पीते हुए आपको बताया होगा कि कैसे उसने मेरठ से एलएलबी की, लेकिन अब वह आस-पास में केबल टीवी लगाया करता है. या दिल्ली जल बोर्ड के दफ्तर का वह क्लर्क, जिसकी एलएलबी की डिग्री गोदरेज की अल्मारी के लॉकर में पड़ी हुई धूल खा रही थी (अगर उसने यूनिवर्सिटी से उसे लेने की जहमत उठाई हो) और वह सरकारी नौकरी में आरामतलबी कर रहा था.

असल में, अस्सी और नब्बे के दशक में भारत में लॉ डिग्री हासिल करना ऐसा ही था, जैसे ड्राइविंग लाइसेंस लेना. बहुत आसान. आपके पास किसी भी फील्ड में बैचलर्स डिग्री हो, एक जम्हाई लेकर, एक करवट बदलकर एलएलबी की जा सकती थी. इसके लिए न तो किसी रुझान की जरूरत होती थी, न ही किसी प्रेरणा की.

पुराने दिनों में नेहरू, गांधी और टैगोर ने इंग्लैड जाकर बार पास किया और यह गर्व और सम्मान की बात थी. 2000 के दशक में फैंसी लॉ कॉलेजों और एलएलबी के लिए एंट्रेंस एग्जाम्स के आने के साथ, इस पेशे ने एक बार फिर अपनी खोई हुई चमक हासिल की है.
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लेकिन हम इतने खुशकिस्मत नहीं कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, या बाद के वर्षों में पैदा होते. हम दो वक्तों की पाट में फंसे हैं. हमारे दौर में एलएलबी हर वह शख्स करता था, जो पेशेवर तो बनना चाहता था, लेकिन उसके लिए काम नहीं करना चाहता था. और चूंकि यह करना इतना आसान था कि वकील बनने वाले व्यक्ति को जरूरी इज्जत भी नहीं मिलती थी. तो, वकील और वकालत के पेशे के लिए इज्जत की यह कमी आज भारत की अदालतों के हर नुक्कड़ और कोने से रिसती नजर आती है.

मीडिएशन कोर्ट और सामान्य अनुभव

अभी हाल की बात है. एनसीआर की एक जिला अदालत में एक मीडिएशन की सुनवाई चल रही थी. मैं एक यूरोपीय कंपनी की तरफ से केस लड़ रही थी. दूसरा पक्ष, पश्चिमी भारत के एक छोटे से कस्बे में स्थापित कंपनी थी जोकि मेरे क्लाइंट के यूरोपीय ट्रेडमार्क का इस्तेमाल कर रहा था, और उनके सामान को बेचकर भारत सरकार को मूर्ख बना रहा था. मैं आम तौर पर अदालत से इन कस्बाई चालबाजों के खिलाफ स्टे ऑर्डर ले आती हूं. तो फिर मीडिएशन क्यों? क्योंकि इन चालबाजों के पास कोई मामला होता ही नहीं, और वे कुछ पैसा ले-देकर मामला ‘सेटेल’ करना चाहते हैं. अब कितना पैसा, यह तो मीडिएटर को तय करना होता है.

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हमें मीडिएशन सेल में रजिस्टर करना होता है और फिर मीडिएटर के चैंबर में जाने को कहा जाता है. मीडिएटर जिला अदालत का आपका वही ठेठ वकील होता है. सब कुछ ठीक-ठाक होता है, जब तक हमारे मीडिएटर का कोई मेहमान नहीं आ जाता. वह और कोई नहीं, पास के चैंबर का दूसरा वकील होता है, जिसमें इस मामले के बारे में जानने का कौतुहल होता है.

वह मीडिएटर के पास वाली कुर्सी पर बैठता है, और इस चर्चा में भाग लेने लगता है. ‘माफ कीजिए’ कहे बिना उसका फोन बजने लगता है, तेज आवाज में. वह वहीं फोन पर बात करने लगता है. हम सब उसकी बातें सुन रहे हैं. हां, हम सब अब भी उसी कमरे में बैठे हैं.

केस में मेरे यूरोपीय मुवक्किल के सामने मौजूद दूसरा भारतीय पक्ष भी वहीं है. उसे यह सब अजीब नहीं लगता. आखिर वह एक भारतीय हैं. और यही इसकी त्रासदी है. हमें ऐसा गैर पेशेवर बर्ताव बुरा नहीं लगता. हम वकील हैं... हमारे पेशे के लिए लोगों में इज्जत नहीं, और हमारे जैसे पेशेवर कैसा व्यवहार करता हैं, यह सब उन लोगों में हमारे लिए तिरस्कार और अपमान का भाव भरता है.

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बहू के लिए स्पीकर चुनने का काम

एक दिन सुनवाई के दौरान हमारा मीडिएटर ऐसे स्पीकर को शॉर्टलिस्ट कर रहा था जिसको उसकी बहू के स्मार्टफोन के साथ पेयर किया जा सके. यह स्पीकर उसकी बहू के जन्मदिन का तोहफा था. “मेरी बहू को भजन बहुत पसंद हैं.” उसने हम सबसे कहा, और बहू की एक पवित्र तस्वीर हमारे सामने रच दी. जो शायद जब अपने सास-ससुर के चरण स्पर्श करती थी तो माहौल में भजन बजने लगता था.

चार लोग उसके चैंबर में और घुसे, और अब सभी उन दो स्पीकर्स की टेस्टिंग कर रहे थे. तभी स्पीकर से आवाज आई- “आया आया अटरिया पे कोई चोर”, यह कोई भजन तो नहीं था. मैंने अपने दिल से पूछा कि क्या मेरी मति मारी गई थी कि मुझे आज यह दिन देखना पड़ रहा है. मैं आखिर अदालत की तरफ से नियुक्त इस मीडिएटर के चैंबर में अपना समय क्यों बर्बाद कर रही हूं. मुझे मीडिएशन करने वाले चार और अनजबियों के साथ सेटलमेंट की गोपनीय शर्तों पर चर्चा करनी है लेकिन वे सभी उस धार्मिक बहू के लिए स्पीकर चुनने में लगे हुए हैं.

ऐसे में कौन इस पेशे को गंभीरता से लेगा? मैं 30 साल से इसी सबका तर्जुबा कर रही हूं. इस मीडिएटर जैसे अनगिनत लोगों से मिल चुकी हूं. लेकिन क्या यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि मैं कोर्ट वकील नहीं हूं?

हफ्ते में ज्यादातर दिनों में मैं अपने सुविधाजनक दफ्तर में बैठती हूं और विदेशी क्लाइंट्स के साथ डील करती हूं. लेकिन भारत की अदालतों, खासकर हाई कोर्ट्स से निचली, में आपको इस सवाल का स्पष्टीकरण मिल जाएगा कि “क्या आप अब भी वकील हैं?”

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डिग्री लेकर घर बैठने की ‘च्वाइस’ फ्री च्वाइस कहां होती है?

ऐसी कितनी परिचित औरतें आपने देखी हैं जिनके पास किसी न किसी किस्म की एकैडमिक डिग्री है लेकिन वे उसका इस्तेमाल नहीं कर रहीं? इनमें से कितनों के पास एलएलबी की डिग्री है? मैं व्यक्तिगत रूप से लॉ कॉलेज की पांच क्लासमेट्स को जानती हूं जिन्होंने शादी की, लेकिन अपने लॉ के करियर को आगे नहीं बढ़ाया. मुझसे कहा जाता है कि यह औरत की च्वाइस है कि वह घर पर रहना चाहती है या काम पर जाना चाहती है. लेकिन मेरा सवाल है, क्या आदमी के पास यही च्वाइस होती है.

अगर इस सवाल का जवाब 'नहीं' है, तो औरत की च्वाइस फ्री च्वाइस नहीं होती. दरअसल यह च्वाइस नहीं, सोशल कंडीशनिंग होती है. और मेरी तरह जिन लोगों ने शादी करना, बच्चे करना और “वकील भी बने रहना” चुना है, उनकी तरफ आंखे तरेरी जाना, कोई असामान्य बात नहीं है. अरे, तुम्हें यह सब एक साथ कैसे मिल सकता है. यह धारणा हमारे अंदर बचपन से भरी जाती है. और इस बीच, अगर आप अपने शौक भी पूरे करने लगें... तो... आप पर बिजली गिर जाएगी.

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रोजमर्रा का सेक्सिस्म

कुछ साल पहले मैं पश्चिम भारत (फिर से) के एक पुलिस स्टेशन पहुंची. मैं वहां उन जालसाजों के खिलाफ शिकायत करने पहुंची थी जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक मशहूर मोबाइल कंपनी के नाम से नकली फोन बना रहे थे. मेरे क्लाइंट ने मुझसे पुलिस में शिकायत दर्ज करने को कहा था. मैं इस पुलिस स्टेशन में बैठी थी जिसके क्षेत्राधिकार में नकली मोबाइल फोन बेचे जा रहे थे.

“पति का नाम?” हुंह? “आप मैरीड नहीं हैं मैडम? तो पिता का नाम?” लेकिन इसका मेरी शिकायत से क्या लेना-देना? मैं तो वहां वकील की हैसियत से गई थी.

“मैडम, आप अपने पति या पिता के नाम से जानी जाती हैं. आप औरत हैं.” मैंने दस तक गिनती गिनी और अपने पति का नाम बता दिया. अगला सवाल था, “कास्ट?”

मैंने दोबारा सोचा. क्या 21वीं शताब्दी में यह शख्स मेरी जाति पूछ रहा है जबकि मैं एक पेशेवर शिकायत करने आई हूं? “पति की कास्ट मैडम”? मैं भूल न जाऊं, इसलिए उसने याद दिलाया. मेरा हो गया था. “मुझे नहीं पता”, मैंने उससे कहा. यह झूठ था, लेकिन एक पेशेवर काम के दौरान जाति वगैरह की बात करना, मेरे लिए गैर मुनासिब था. आखिरी बात तो तौबा थी.

“मैडम आप शादीशुदा हैं, आपके बच्चे हैं... आपको घर में रहना चाहिए, रात को पुलिस स्टेशन जैसी जगह नहीं आना चाहिए. यह सेफ नहीं है मैडम.”

मुझे हैरानी नहीं होनी चाहिए कि क्यों सभी पूछते हैं, “क्या आप अब भी वकील हैं?” क्योंकि पिछले 30 सालों में हर दिन, मुझे इस ऊबाऊ सवाल के जवाब में हांमी भरनी पड़ती है.

(दिल्ली यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडलिस्ट डाहलिया सेन ओबेरॉय इंटरेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स की वकील हैं. वह डांसर, लेखक, लेक्चरर और योग टीचर भी हैं. उन्होंने हाल ही एक किताब लिखी है- 'आश्रम्ड; फ्रॉम कैओस टू काल'. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार उनके अपने है. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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