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लालू प्रसाद यादव की राजनीति में वापसी ने क्या BJP की चिंता बढ़ा दी है?

पटना आए विपक्षी नेताओं का लालू यादव से मिलना, इस बात को तस्दीक करता है कि वे BJP-RSS के सबसे विश्वसनीय विरोधी हैं.

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आगामी लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) की नजर से पटना में विपक्षी दलों की बैठक को काफी अहम माना जा रहा है. इस कहानी की शुरुआत अगस्त 2022 में ही बन गई थी जब नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बीजेपी से नाता तोड़कर एनडीए से अलग हुए और महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार बनाई. इसके बाद से ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीजेपी (BJP) के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की घोषणा की थी.

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लालू यादव, बीजेपी के हिंदुत्व की राजनीति के सबसे मुखर विरोधी

इस घोषणा को बुनियादी ताकत महागठबंधन के सबसे बड़े घटक राष्ट्रीय जनता दल से मिली, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) निरंतर बीजेपी की नीतियों और शासन के खिलाफ खड़े रहे. लालू प्रसाद यादव के लिए यह तीसरा मौका था, जब वह देश स्तर पर केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्षी एकता की बैठक में भाग ले रहे थे.

पहली दफा 1977 में आपातकाल के खिलाफ जेपी आंदोलन और दूसरी बार 1989 में जब वीपी सिंह के नेतृत्व में बोफोर्स मुद्दे पर वे जनता दल में सक्रिय भूमिका में रहे. दोनों अवसर पर केंद्र में कांग्रेस की सरकार निशाने पर थी.

इन अभियानों में जन संघ (1977) और उसका दूसरा अवतार बीजेपी (1989) के साथ-साथ देश की समाजवादी और साम्यवादी दल भी सहयोगी थे. उस दृष्टिकोण से यह पहला मौका है जब बीजेपी के खिलाफ अखिल भारतीय स्तर पर एक निर्णायक मोर्चाबंदी हो रही है.

जेपी आंदोलन के सबसे पुराने सिपाही और बीजेपी के सबसे मुखर विरोधी के रूप में लालू प्रसाद यादव की उपस्थिति बेहद दिलचस्प है. इस विरोध का सृजन काल 1990 का दशक है जब मंडल बनाम कमंडल राजनीत के जरिये एक तरफ पिछड़ों का उभार दिखा, वहीं दूसरी तरफ हिंदुत्ववादी राजनीति का भी एक प्रभावशाली आकार बना.

साल 1990 में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर उनके रथयात्रा को बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया था. तब से वे बीजेपी के हिंदुत्व की राजनीति के सबसे मुखर विरोधी हैं. उन्होंने बीजेपी से कभी भी और किसी तरह का समझौता नहीं किया.

इसके उलट अगस्त 2017 में लालू प्रसाद यादव ने गांधी मैदान में विपक्षी दलों का एक विशाल जमावड़ा इकट्ठा किया और "बीजेपी भगाओ, देश बचाओ” का आह्वान किया. हालांकि, उसके बाद वे चारा घोटाले में सीबीआई कोर्ट के द्वारा निर्धारित सजा के तहत जेल गए. फिर मोदी सरकार ने उनके खिलाफ कई बंद मुकदमों को खोला और कई नए मुकदमे भी लाद दिए.

लालू और उनके परिवार पर सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के दर्जनों छापे भी पड़े. किडनी सहित कई बीमारियों से ग्रसित लालू प्रसाद यादव ने सजा की आधी अवधि पूरी करने के आधार पर मिली बेल पर हैं. इसी वर्ष उन्होंने अपनी बेटी रोहिणी आचार्य के किडनी दान से सिंगापुर में किडनी प्रत्यारोपण करवाया. उसके बाद उनके स्वास्थ्य में काफी सुधार है जिसके कारण उनकी राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है.

'BJP-RSS की राजनीति के सबसे विश्वसनीय विरोधी'

लगभग छः वर्षों बाद उन्होंने 23 जून 2023 को पटना में आयोजित 15 विपक्षी दलों की पहली बैठक में भाग लिया. बैठक के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में लालू प्रसाद यादव अपने पुराने अंदाज में दिखे. अंतिम वक्ता के रूप में जब बोलना शुरू किए तो खुद को फिट बताने के साथ मोदी और बीजेपी को ठीक करने की बात भी कही.

बीजेपी-संघ की विभाजनकारी राजनीति से लेकर महंगाई, बेरोजगारी और तानाशाही शासन को मिलकर हराने की बात दुहराई. राहुल गांधी के 'भारत जोड़ो यात्रा' और लोकसभा में उनकी सक्रियता की जमकर तारीफ की.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पटना पहुंच कर लालू प्रसाद यादव का पैर छूकर आशीर्वाद लेना और पटना आए विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं का उनसे मिलना, इस बात को तस्दीक करता है कि वे बीजेपी-आरएसएस राजनीत के सबसे विश्वसनीय विरोधी हैं. आरजेडी सुप्रीमो कांग्रेस के सबसे पुराने सहयोगी भी रहे हैं.

उसी आत्मीय भाव से उन्होंने राहुल गांधी को शादी करने की सलाह देकर खुद को बाराती बनाने की इच्छा जाहिर की. उनकी यह बात टीवी और प्रिंट मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज और हेडलाइन बन गया. हालांकि मीडिया वर्ग ने इस संवाद के राजनीतिक मायने भी प्रस्तुत किए.

याद रहे कि पांच दशक पहले पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष पद जीतकर छात्र राजनीति से लालू प्रसाद यादव ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी.

उसी दशक में साल 1974 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के खिलाफ देश स्तर आंदोलन का माहौल बन रहा था. भ्रष्टाचार और सरकार का तानाशाही रवैया ही इस आंदोलन का मुख्य कारण था. बिहार आंदोलन जो जयप्रकाश (जेपी) आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ उसके चर्चित किरदार के रूप में लालू प्रसाद यादव का उभार हुआ.

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इसकी शुरुआत तब हुई जब वे बिहार छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष चुने गए. तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल (1975-77) के बाद जो लोकसभा चुनाव हुआ, उसमें वे जनता पार्टी के टिकट पर छपरा से सांसद चुने गए.

फिर जनता पार्टी (राज नारायण) के टिकट पर 1980 और फिर 1985 में लोकदल के टिकट पर सोनपुर क्षेत्र से विधायक चुने गए.

कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद 1988 में बिहार विधानसभा का नेता प्रतिपक्ष बनना उनके राजनीतिक करियर की पहला महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है.

मार्च 1990 की वह एक घटना जो उनके राजनीतिक जीवन में एक नया मोड़ लाई, जब वे त्रिकोणीय मुकाबले में जनता दल के विधायक दल के नेता चुने गए और फिर बिहार के 20वें मुख्यमंत्री बने.

मुख्यमंत्री के प्रथम कार्यकाल में ही अपनी कार्यशैली, निर्णय क्षमता और वाकपटुता के आधार पर बेहद लोकप्रियता हासिल किया. वंचितों को आवाज और दलितों-पिछाड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी देने का सक्रिय प्रयास का एक अनूठा नजीर पेश की.

बिहार की राजनीति में 1960-1990 के बीच मुख्यमंत्री कार्यकाल स्थिरता का बिल्कुल अभाव था क्योंकि इस तीन दशक के कालखंड में 20 मुख्यमंत्रियों ने शपथ ली.

ऐसी पृष्टभूमि में लालू प्रसाद ने अपना पूर्ण कार्यकाल पूरा किया और दूसरी पारी में उससे भी बड़ी जीत हासिल की. जबकि प्रथम कार्यकाल में दो घटनाएं बेहद चुनौतीपूर्ण थीं.

  1. पहली, जब मंडल आयोग की सिफारिश लागू हुई, तब मंडल विरोधी आंदोलन से बिहार भी प्रभावित था. उसे नियंत्रण करने में सफल रहे.

  2. दूसरी बार जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गई तब पूरा देश में दंगा का माहौल था लेकिन उन्होंने बिहार में कोई दंगा नहीं होने दिया

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'लालू प्रसाद यादव ने अब बीजेपी की बढ़ाई चिंता'  

UPA-I (2004-09) में कांग्रेस के बाद RJD दूसरी बड़ी घटक दल थी, जिसमें लालू प्रसाद यादव रेलमंत्री बने. उन्होंने अपने कार्यकाल में बिना यात्री किराया बढ़ाए रेलवे को लगभग एक लाख करोड़ का मुनाफ पहुंचाया जो देश-विदेश में चर्चा का विषय रहा. गरीब वर्ग के लिए पहली बार पूर्ण वातानुकूलित ट्रेन गरीब रथ के नाम से चलवाई.

कुली वर्ग को चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में प्राथमिकता के आधार पर अवसर दिया. कुलढ़ में चाय और खादी के प्रयोग को भी बढ़ावा दिया.

UPA-II: दूसरे कार्यकाल में भी सरकार को समर्थन जारी रखा. बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने उनको बिहार में सत्ता दूर जरूर रखा, लेकिन आरजेडी सुप्रीमो को वहां की राजनीति धुरी और प्रमुख विपक्ष से नहीं रोक पाए. उनकी प्रासंगिकता निरंतर बनी रही. तभी वे 2015 में जेडीयू-कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर मोदी-शाह की जोड़ी को मात दी.

2017 में नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ पुनः बीजेपी में चले गए, फिर उनकी पार्टी उनके अनुपस्थिति में भी तेजस्वी यादव के नेतृत्व में 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनी.

इस प्रकार पिछले तीन दशक में लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति में एक मजबूत ध्रुव बने हुए हैं.

1990 में देव गौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाने में लालू की निर्णायक भूमिका समकालीन भारतीय राजनीतिक इतिहास में अंकित है. अब जब जेपी युग से चर्चित लालू-नीतीश की जोड़ी देश की राजनीति में सक्रिय हुई है तो बीजेपी की चिंता बढ़ी है.

(डॉ नवल किशोर, राजनीति विज्ञान के एसोसियट प्रोफेसर, आरजेडी के राष्ट्रीय प्रवक्ता)

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