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डॉ अंबेडकर का जीवन ‘सामाजिक कोरोना’ से संघर्ष करते हुए बीता

बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने भी सोशल डिसटेंसिंग का दर्द झेला था

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आज कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को तबाही की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है. भारत समेत पूरी दुनिया त्राहिमाम कर रही है. दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिक और आयुष संस्थान इस बीमारी की कोई दवा, कोई टीका बनाने के अनुसंधान में जुटे हुए हैं. अब तक इसमें कोई सफलता हासिल नहीं हो पायी है. लेकिन उम्मीद की जा रही है कि निकट भविष्य में शायद हमारे वैज्ञानिक इसका कोई हल निकाल पायेंगे. फिलवक्त, इस बीमारी का वैज्ञानिक इलाज सिर्फ ‘सोशल डिसटेंसिंग’ बताया जा रहा है. दुनिया के कई देश जब शुरूआती दौर में इस महामारी पर काबू करने में विफल रहे तो उन्होंने अपने देश में लॉकडाउन लागू कर दिया.

भारत सरकार ने भी लॉकडाउन किया हुआ है. स्थिति यह है कि दूसरों को गले लगाना तो दूर की बात है, अपने परिजनों से हाथ मिलाने पर भी साबुन और सैनिटाइजर से हाथ धोना पड रहा है. सब अपने ही घरों में कैद हो गए हैं. पर क्या आपने कभी सोचा है कि इस देश में समाज का एक हिस्सा ऐसा रहा है जिसने सदियों से ‘सोशल डिसटेंसिंग’ झेला है और आज भी झेल रहा है.

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बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने भी सोशल डिसटेंसिंग का दर्द झेला था

बाबा साहब को स्कूल में सबसे पीछे बिठाया जाता था , इतना ही नहीं उनको तो स्कूल में पानी भी नहीं पीने दिया जाता था. कई बार उनको सवारी गाड़ी से भी उतार दिया गया था. जब बाबा साहब बरोडा रियासत में नौकरी कर रहे थे, चपरासी उनको पानी तक नहीं पिलाता था, बल्कि दूर से टेबल पर रख देता था, एक बार तो एक पारसी मकान मालिक ने उनको घर तक से निकाल दिया था. बाबा साहब का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक कोरोना से संघर्ष करते हुए ही बीता है.

‘छुआछूत’ और ‘सोशल डिस्टेंसिंग ‘ भारतीय समाज का सच

दलित समाज सदियों से सोशल डिसटेंसिंग की पीड़ा को झेलता रहा है. दलितों से तो समाज इतना डिस्टेंस मेंटेन करता रहा है .पेशवाई राज में तो दलितों के गले में हांडियां और पीछे कमर में झाड़ू लटका दिया जाता था कि उनकी थूक ज़मीन पर नहीं गिरे और झाड़ू से पैरों के निशान भी मिटता जाए. इनकी बस्तियां आज भी अलग बसी हुयी हैं. ‘छुआछूत’ और ‘सोशल डिसटेंसिंग ‘ भारतीय समाज का सच है. आज जब कुछ दिनों के लिए हमें अपने घरों में कैद रहना पड़ा तो हम झेल नहीं पा रहे. सोचिये दलित समाज इस दुख के साथ सदियों से कैसे जिया है.

हम आये दिन मीडिया में चल रही खबरों को देखते हैं कि कैसे दलित दूल्हे को घोड़ी तक नहीं चढ़ने दिया जाता है, दलितों के मूंछ रखने से भी समाज का एक तबका असहज हो जाता है. मीडिया में आयी एक खबर को आपने भी देखा होगा कि जब एक कुत्ते ने दलित का छुआ खा लिया तो उसकी सवर्ण मालकिन ने उस कुत्ते को घर से निकाल दिया.
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धर्मग्रन्थों में भेदभाव का उल्लेख

तमाम धर्मग्रन्थ, वेद, उपनिषद ऐसी कहानियों से भरे पड़े हैं जहां दलितों के साथ ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ किये जाने का महिमामंडन किया जाता रहा है. महाभारत में वर्णित है कि कोई शूद्र राजा नहीं हो सकता है, वेद कहता है कि ब्रह्मा के पैर से शूद्र का जन्म हुआ, मनुस्मृति के मुताबिक शूद्र को धन अर्जन का हक नहीं है, उनसे धन छीन लेना चाहिए, रामचरित मानस कहता है कि शूद्रों कि पिटाई करनी चाहिए, रामायण कहता है कि शूद्र ज्ञान अर्जन करे तो मृत्यु दंड मिलना चाहिए, राम द्वारा शम्बूक हत्या उसी की परिणति है. गीता में लिखा है कि शूद्र का काम ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय की सेवा करना है. मनुस्मृति नामक धर्मग्रन्थ जो ‘छुआछूत’ कि जननी और पोषक है, को मानने वाले लोग आज भी हैं.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तो लगातार ‘मनु का राज ‘ स्थापित करने के लिए ही काम कर रहा है. आज भी शीर्ष सत्ता संसाधनो पर दलित–पिछड़े कहीं नहीं हैं. न्यायपालिका में एक खास जाति का वर्चस्व है, मीडिया में दलित ढूंढते रह जायेंगे. फिल्म इंडस्ट्री, ठेकेदारी, कंपनी सी ई ओ, पी एम ओ, कला-संस्कृति और साहित्य समेत हर क्षेत्र से दलित ‘गायब’ हैं.

दलित समाज सामाजिक कोरोना से सदियों से जूझ रहा

सोशल डिसटेंसिंग दलित समाज के लिए नया नहीं है. कुछ लोग अब यह तर्क देते हैं कि स्थिति बदल गयी है , भेदभाव मिट गया है . पर क्या ये सच है. यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जब सरकारी बंगला खाली किया था तब उसको गंगा नदी के पानी से धोया गया था, आज भी देश के हर हिस्से से दलितों के शोषण उत्पीड़न की खबरें हमारे लिए सामान्य है. कभी पुलिस कैंटीन में दलित सिपाहियों के लिए अलग खाना तो कभी सरकारी स्कूल में दलित बच्चों के साथ भेदभाव हर दिन की खबर है. तमाम घटनाएं इस बात कि तस्दीक करती हैं कि दलित समाज सामाजिक कोरोना से सदियों से जूझ रहा है.

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डॉ अंबेडकर हमेशा से विज्ञान और तर्क को आस्था और धर्म से ऊपर मानते थे, लेकिन इस देश में धर्म हमेशा से विज्ञान पर हावी रहा है. तभी तो कोरोना जैसे गंभीर बिमारी के सामने आने पर भी सत्ताधारी पार्टी से जुड़े लोग कभी शरीर पर गोबर लेपने तो कभी गौमूत्र पीने की सलाह देते रहे हैं. पर यह साबित हो गया है कि विज्ञान सर्वोपरि है. तभी तो लोग इस महामारी से मुक्ति के लिए डॉक्टर्स और वैज्ञानिकों की ओर उम्मीद से देख रहे हैं.

असली सवाल यह है कि सोशल डिस्टेंसिंग का यह दर्द झेल रहे आम देशवासी उस दर्द को महसूस कर पायेंगे जिसको आज भी दलित कहीं न कहीं कम-ज्यादा, अलग-अलग रूप में झेल रहा है. आज अम्बेडकर जयंती है. बाबा साहब को लेकर बहुत बड़ी–बड़ी बातें की जाएंगी. पर क्या दलितों के सोशल डिसटेंसिंग का दर्द यह समाज महसूस करेगा.

(लेखक पूर्व सांसद और कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. इस लेख में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं )

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