पूरा देश जानता है कि नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के राजनैतिक करियर के उठान में लाल कृष्ण आडवाणी का बहुत बड़ा योगदान है. मोदी हमेशा यह जताया करते हैं कि वह पार्टी के भीष्म पितामह यानी आडवाणी की कितनी इज्जत करते हैं. आडवाणी पार्टी के दो मुख्य शिल्पकारों में से एक हैं. दूसरे थे, स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी.
मोदी अक्सर आडवाणी की तारीफों के पुल बांधते हैं और कहते हैं कि वह उन महान लोगों में से एक हैं, जिन्होंने निडर होकर इमरजेंसी का विरोध किया था.
इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी (1975-1977) के दौरान अपने विरोधियों को काल कोठरियों में बंद कर दिया था. लोकतंत्र के समर्थकों को सताया था. पत्रकारों को परेशान किया था. मीडिया को सेंसरशिप का सामना करना पड़ा था. लोगों की आजादी छीन ली गई थी. जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, वाजपेयी, चंद्रशेखर और आडवाणी सभी जेल में बंद कर दिए गए थे.
हर साल 25 जून को मोदी बयान देते हैं. इसी दिन इमरजेंसी की घोषणा की गई थी. इस दिन मोदी लोकतंत्र पर हमले की निंदा करते हैं और आडवाणी जैसे लोगों के संघर्ष की याद दिलाते हैं.
लेकिन एक बात वह कभी नहीं करेंगे. आडवाणी की जेल डायरी 'ए प्रिजनर्स स्क्रैप-बुक' को न तो वह खुद पढ़ेंगे और न ही दूसरों से कहेंगे कि उसे पढ़ें. इस किताब को आडवाणी ने तब लिखा था जब वह उन्नीस महीने जेल में रहे थे.
इस किताब को 1978 में अर्नोल्ड एसोसिएट्स ने छापा था और इसकी भूमिका तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने लिखी थी.
यह किताब अधिनायकवाद की भावुक और पांडित्यपूर्ण आलोचना है. हालांकि ज्यादातर भारतीय लोगों ने इसे भुला दिया है लेकिन जेल साहित्य की यह एक बेहतरीन कृति है.
दुनिया भर में लोकतंत्र और तानाशाही पर जितना भी लिखा गया है, इस किताब में उनका संदर्भ है, और इसी से पता चलता है कि आडवाणी ने बेंगलुरू जेल की लाइब्रेरी का भरपूर फायदा उठाया था.
मोदी आडवाणी की डायरी को न तो पढ़ेंगे और न ही इसे पढ़ने का सुझाव देंगे, खासकर आज के संदर्भों में. क्योंकि उनकी अपनी सरकार लोकतंत्र और प्रेस की आजादी को दबाने की लगातार कोशिश कर रही है.
UAPA के तहत बिना मुकदमा चलाए हजारों लोगों को जेल में बंद करना. सरकार की आलोचना करने वालों पर राजद्रोह कानून का शिंकजा कसना. 84 साल के पादरी और आदिवासी एक्टिविस्ट स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत, खराब सेहत के बावजूद उन्हें जमानत न देना. कोविड से मृत लोगों के गंगा में तैरते शवों पर खबर छापने वाले अखबार दैनिक भास्कर के दफ्तरों में छापेमारी. देश को 'पेगाससगेट' के बारे में सच्चाई बताने से इनकार करना. उच्च स्तर पर न्यायपालिका को भ्रष्ट करना. राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई, ईडी और आईटी का जबरन इस्तेमाल. यह सूची लंबी और परेशान करने वाली है.
आडवाणी की डायरी में नेहरू का हवाला, मोदी को नापसंद
मोदी की BJP में कम ही लोग जानते होंगे कि आडवाणी जवाहरलाल नेहरू के लोकतंत्र संबंधी विचारों के कायल रहे हैं. 14 नवंबर, 1975 में उन्होंने यह लिखा था:
"आज नेहरू जयंती है. मैंने हाल ही में... 1936 में लखनऊ कांग्रेस में नेहरू का एक अध्यक्षीय भाषण पढ़ा है जो मौजूदा हालात पर सटीक है. नेहरू ने कहा था:
'साथियों, मनोविज्ञान में रुचि होने के कारण मैंने नैतिक और बौद्धिक पतन को देखा है. मैं पहले से कहीं ज्यादा इस बात को महसूस करता हूं कि निरंकुश ताकत किस तरह भ्रष्ट, अधम और अश्लील बनाती है. एक बात, जो मैं चंद शब्दों में कहना चाहूंगा, वह मेरे लिए बहुत अहम है. वह है, भारत में नागरिक स्वतंत्रता का छीना जाना.
किसी सरकार को आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम और ऐसे ही कानूनों पर निर्भर रहना पड़े. जो प्रेस और साहित्य का दमन करे. हजारों संगठनों पर पाबंदी लगाए. बिना मुकदमा चलाए लोगों को जेलों में बंद करे. ऐसे कई काम भारत में हो रहे हैं. क्या इस सरकार के पास अपने अस्तित्व का एक अल्प सा औचित्य, उसकी छाया भी शेष है?
मैं कभी इन स्थितियों से सामंजस्य नहीं बैठा सकता- मैं उन्हें असहिष्णु पाता हूं. और फिर भी मैं पाता हूं कि कई देशवासी उनसे संतुष्ट हैं. कुछ उनका समर्थन करते हैं. कुछ मौन धारण करने की कला में सिद्धहस्त हो चुके हैं. वे तटस्थ रहते हैं जब इन सवालों पर चर्चा होती है.’” (पेज 77)
इसके बाद आडवाणी ने तीखी टिप्पणी की थी कि कैसे इंदिरा गांधी ने वही किया जिसकी उनके पिता ने ब्रिटिश शासन के दौरान आलोचना की थी:
"ब्रिटिश सरकार का नागरिक स्वतंत्रता पर हमला, स्वेच्छाचारी कानूनों पर निर्भरता, प्रेस की आजादी का दमन, संगठनों को गैरकानूनी घोषित करना, मुकदमा चलाए बिना लोगों को गिरफ्तार करना, नेहरू ने इसे ‘औचित्य की छाया से दूर’ कहा था. नागरिक स्वतंत्रता के मामले में ब्रिटिश सरकार ने 1936 में जो कुछ किया, वह वर्तमान सरकार द्वारा लोकतंत्र के खिलाफ किए गए अपराधों की बराबरी नहीं कर सकता.
नेहरू ने बौद्धिक और नैतिक पतन और निरंकुश सत्ता के गंभीर असर पर निराशा जताई थी. वह दुखी थे कि जब यह सब हो रहा था तो बहुत से भारतीय मूक दर्शक बने हुए थे. हैरानी होती है कि उन्हें आज के कांग्रेसियों को देखकर कैसा महसूस होता. उनमें से बहुत से जब अकेले होते हैं तो दबे शब्दों में नाखुशी जाहिर करते हैं लेकिन जब सार्वजनिक मंच पर पहुंचते हैं तो चापलूसी करने लगते हैं.
आप इस पैराग्राफ में ‘कांग्रेसियों’ की जगह ‘भाजपाइयों’ रखिए और आखिरी लाइन पढ़िए: “हैरानी होती है कि जेपी, मोरारजी, वाजपेयी और आपातकाल के खिलाफ लड़ने वाले दूसरे योद्धाओं को आज के भाजपाइयों को देखकर कैसा महसूस होता. उनमें से बहुत से जब अकेले होते हैं तो दबे शब्दों में नाखुशी जाहिर करते हैं लेकिन जब सार्वजनिक मंच पर पहुंचते हैं तो चापलूसी करने लगते हैं” (लेखक ने इन पंक्तियों पर खुद जोर दिया है).
स्टेन स्वामी की मौत, विदेशी मामलों के मंत्रालय का जवाब और संवैधानिक क्रूरता
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के अलावा दुनिया भर के देशों ने स्टेन स्वामी की मौत की आलोचना की. इसके बावजूद मोदी के विदेशी मामलों के मंत्रालय में यह दावा करने की हिम्मत थी कि इस मामले में 'कानून के मुताबिक' काम किया गया था.
आडवाणी की डायरी में ऐसे कुकर्म की पोल पट्टी कैसे खोली गई थी:
"हर दूसरे दिन, इंदिरा गांधी और उनके साथी इस बात पर जोर देते रहते हैं कि पिछले दिनों उन्होंने जो कुछ भी किया है वह 'संविधान के दायरे' में रहकर किया है. इसलिए विपक्ष और पश्चिमी प्रेस का उन पर आरोप लगाना कि उन्होंने लोकतंत्र का नाश किया है, का समर्थन नहीं किया जा सकता, यह तर्क दिया गया है.
नाजी जर्मनी का इतिहास बताता है कि अगर आप कोई काम संवैधानिक तरीके से करें, तो इसका यह मतलब यह नहीं है कि वह लोकतांत्रिक भी होगा. हिटलर हमेशा यह शेखी बघारता था कि उसने कुछ भी अवैध या असंवैधानिक नहीं किया है. दरअसल, उसने लोकतांत्रिक संविधान को तानाशाही का हथियार बनाया. विलियम शायर ने कहा है: 'हालांकि वायमर रिपब्लिक को नष्ट कर दिया गया था, लेकिन हिटलर ने वायमर संविधान को कभी भी औपचारिक रूप से निरस्त नहीं किया था. वास्तव में, और जो कि एक विडंबना ही है, हिटलर ने रिपब्लिकन संविधान के आधार पर ही अपने शासन को वैध साबित किया.'" (पेज 198).
और, इन पंक्तियों को भी पढ़िए ताकि जाना जा सके कि आडवाणी मोदी के बारे में भी यह क्यों लिख सकते हैं.
"मुझे अमेरिकी राष्ट्रपति के एक पूर्व प्रेस सचिव, बिल मोयर्स याद हैं, जिन्होंने एक बार कहा था: 'सरकार और प्रेस साथी नहीं हैं, एक दूसरे के विरोधी हैं. एक को राज्य के मामलों का संचालन करने का अधिकार है, दूसरे को यह पता लगाने का विशेषाधिकार है कि क्या हो रहा है. यह लोकतंत्र की प्रकृति है कि उसमें यह संघर्ष चलता रहता है और यह संघर्ष कभी लोकतंत्र पर हावी नहीं होता.'
"जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, भारतीय प्रेस कभी भी सरकार का विरोधी नहीं रहा है, वह उसका साथी रहा है, हालांकि इसका इच्छुक कभी नहीं रहा. फिर इसे इतनी कड़ी सजा क्यों दी गई, यह पूछा जा सकता है. सच तो यह है कि भारतीय प्रेस के खिलाफ इंदिरा गांधी के मनमुटाव का एक बहुत ही ठोस आधार है. यह सभी तानाशाहों की सामान्य विशेषता है कि वे सरकार की आलोचना को अनदेखा करने के लिए तैयार हो सकते हैं, लेकिन खुद की आलोचना को हल्के में नहीं ले सकते” (लेखक ने इन पंक्तियों पर खुद जोर दिया है; पृष्ठ 205).
प्रेस की आजादी पर मोदी और शाह- कथनी और करनी में फर्क
तानाशाहों की एक और खास बात होती है. वे जो कहते हैं, उसे मानते नहीं. और जब आप वह करेंगे जो उन्होंने आपसे करने को कहा है तो वे आपको सजा देंगे. ऐसे दो उदाहरण हैं:
18 अप्रैल 2018 को प्रधानमंत्री के कार्यालय ने ट्विट किया जो प्रेस की आजादी के मतवालों के दिल को खुश कर देगा. “I want this Government to be criticised. Criticism makes democracy strong: PM @narendramodi.” (“मैं चाहता हूं कि इस सरकार की आलोचना की जाए. आलोचना से लोकतंत्र मजबूत होता है: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.”)
इसी तरह गृह मंत्री अमित शाह ने 16 नवंबर, 2020 को ट्विट किया: "#NationalPressDay पर बधाई. हमारी मीडिया बिरादरी हमारे महान राष्ट्र की नींव को मजबूत करने की दिशा में अथक प्रयास कर रही है. मोदी सरकार प्रेस की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है और इसका गला घोंटने वालों का कड़ा विरोध करती है. मैं कोविड-19 के दौरान मीडिया की उल्लेखनीय भूमिका की सराहना करता हूं.”
आडवाणी ने हिटलर की जर्मनी का एक दिलचस्प, लेकिन शिक्षाप्रद प्रसंग बताया था. उसके संदर्भ में इन दो ट्विट्स को दोबारा से पढ़ें.
“सेंसरशिप ने भारत में अखबारों को सुस्त और भोथरा बना दिया है. वे सरकारी हैंडआउट्स की तरह पढ़े जाते हैं- बेहूदा और नीरस.
सेंसरशिप लगाने के बाद नाजी जर्मनी में भी ऐसा ही हुआ था. एक बार तो गैबेल्स ने संपादकों से कहा था कि वे इतने डरपोक मत बनें और अपने अखबारों को इतना नीरस न बनाएं.
बर्लिन के संपादक वेल्क ने गैबेल्स की बात को गंभीरता से ले लिया. अगले अंक में उसने एक व्यंग्य छाप दिया. इसमें प्रोपेगैंडा मिनिस्ट्री की लाल फीताशाही की आलोचना की गई थी और इस बात पर भी कटाक्ष था कि कैसे प्रेस को दबाया जा रहा है, और उसकी धार कुंद की जा रही है. इसके व्यंग्य के छपने के कुछ ही दिन बाद पत्रिका बंद कर दी गई और संपादक को जेल भेज दिया गया.
नई दिल्ली में आजकल ऐसा ही हो रहा है.
प्रधानमंत्री के बार बार ऐलान करने के बाद प्रेस सेंसरशिप में ढील दी गई है. कुछ प्रेस वाले, खास तौर से विदेशी प्रेसवाले पीआईबी की बेरंग प्रेस विज्ञप्तियों के अलावा दूसरे स्रोतों पर भी विश्वास कर रहे हैं. लेकिन इससे उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं. पिछले दिनों सेंसरशिप के कथित उल्लंघन के आरोप के कारण रॉयटर्स और यूपीआई, दोनों अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों की टेलीफोन और टेलीप्रिंटर लाइनें काट दी गई हैं." (पेज 206).
क्या आजकल दिल्ली में यही नहीं हो रहा? दैनिक भास्कर, भारत समाचार, न्यूजक्लिक और कई पत्रकारों ने ऐसा क्या किया कि उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है?
उन्होंने वही तो किया जो मोदी ने कहा था- ‘सरकार की आलोचना’, क्योंकि ‘आलोचना से लोकतंत्र मजबूत होता है.’ वे शाह की बात को सच मान बैठे थे कि ‘मोदी सरकार प्रेस की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है और इसका गला घोंटने वालों का कड़ा विरोध करती है.’
आडवाणी ने अपनी किताब में अमेरिका के चौथे राष्ट्रपति जेम्स मेडिसन का हवाला दिया है जिन्होंने 1789 में बिल ऑफ राइट्स का प्रारूप तैयार करने में मदद की थी.
"लोकतंत्र की एक विशेषता ही उसकी असली पहचान है. वह है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता. मेडिसन ने ठीक ही कहा है: 'लोकप्रिय सरकार एक तमाशा या त्रासदी, या शायद दोनों का एक स्वांग है और इस बात का आभास देती रहती है कि उसके पास ज्ञान भी है और उसे हासिल करने का साधन भी. ज्ञान हमेशा अज्ञानता पर शासन करता है और जो लोग खुद के शासक होने का दंभ भरते हैं, उन्हें उस शक्ति से लैस करना चाहिए जो ज्ञान देता है.'"
मोदी सरकार नहीं चाहती है कि लोग ‘खुद को उस शक्ति से लैस करें जो ज्ञान उन्हें देता है.’
सबूत: सूचना का अधिकार कमजोर कर दिया गया है. मंत्रालयों तक पत्रकार की पहुंच सीमित है. मीडिया के एक बड़े तबके को पालतू बना दिया गया है.
पेगासेसगेट और वॉटरगेट: लोकतंत्र में ‘यस मैन’ की नहीं, ‘नो मैन’ की जरूरत है
आडवाणी की जेल डायरी में कुछ ऐसा भी लिखा गया है जो पेगासेसगेट या स्नूपगेट स्कैंडल का रहस्य खोलता महसूस होता है:
"वाटरगेट प्रकरण के अपने बेहतरीन विश्लेषण द फॉल ऑफ रिचर्ड निक्सन में थियोडोर एच. व्हाइट ने यह तजुर्बेकार बात कही है:
'रिचर्ड निक्सन का असली गुनाह यह था कि उन्होंने उस विश्वास को तोड़ा जिसने अमेरिका को एकजुट किया है. और इसी गुनाह के चलते निक्सन को सत्ता से उतार फेंका गया.
जो भरोसा उन्होंने तोड़ा, वह बहुत अहम था. अमेरिका को विश्वास था कि देश में कहीं न कहीं कम से कम एक व्यक्ति तो है जो कानून का झंडा बुलंद किए हुए है. भरोसा इस बात का कि कानून की नजरों
में सभी एक बराबर हैं और कानून सबकी रक्षा करता है. चाहे रोजाना इस भरोसे को तोड़ने की कोशिश होती रहे, तरह तरह के समझौते किए जाते हों, लेकिन एक खास पद, राष्ट्रपति पद पर न्याय मिलना तय है.’
“इंदिरा गांधी ने … भारतीय लोकतंत्र में लोगों के विश्वास को तोड़ा है. इस विश्वास को बहाल करना हर विचारवान भारतीय के लिए जरूरी है. यह कैसे किया जाए, इस पर हर व्यक्ति की राय अलग अलग है. उसे अपने आप तय करना है कि वह क्या करे. हां, हम सब एक काम एक साथ कर सकते हैं: डर छोड़िए और सच बोलिए, जैसा कि हमें दिखता है. लोकतंत्र के कारज के लिए यह भी कोई कम बड़ा योगदान नहीं है.” (लेखक ने इन पंक्तियों पर खुद जोर दिया है, पृष्ठ 214).
‘डर छोड़िए’. आज के समय में यह कितना मुफीद है.
10 अप्रैल, 1976 की अपनी डायरी इंट्री में आडवाणी प्रसिद्ध पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के वामपंथी वीकली मेनस्ट्रीम के एक लेख की तारीफ करते हैं.
“मेनस्ट्रीम पहले इंदिरा गांधी का समर्थक था. लेकिन आपातकाल में उनका आलोचक बन गया था. उसका एक आर्टिकल था, ‘ऑन सेइंग नो’. इसे सीएलआर शास्त्री ने लिखा था. वह बीते समय के एक वरिष्ठ पत्रकार थे.
"आजकल ऐसे आर्टिकल्स देखने को नहीं मिलते हैं. ऐसा लिखने के लिए लेखक और प्रकाशक दोनों में हिम्मत होनी चाहिए. आर्टिकल देश में येस-मेन के फैलते साये से परदा उठाता है और नो-मेन की वकालत करता है.
शास्त्री लिखते हैं: 'अभिव्यक्ति की आजादी, चार किस्म की आजादियों में पहली है और जैसे ‘हां’ कहने की तारीफ की जाती है, वैसे ही ‘ना’ कहने की भी होनी चाहिए. मैं तो इससे भी आगे की बात कहता हूं और इस बात का हिमायती हूं कि ‘हां’ कहने वाले के बनिस्पत ‘ना’ कहने वाले की ज्यादा तारीफ होनी चाहिए. मेरे लिए तो ‘ना’ के स्वर हमेशा कानों में मिश्री घोलते हैं.
लोकतंत्र वह होता है, जिसमें विपक्ष का अस्तित्व होता है. और मुझे इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं कि विपक्ष ‘नो-मेन’ का एक समूह होता है.'"
कांग्रेस की चाटुकारिता तब, भाजपा की चाटुकारिता अब
मोदी के आलोचकों को ‘एंटी नेशनल’ कहना, उनके भक्तों की आदत बन चुकी है. इसी वजह से हमें अप्रैल 1976 में आडवाणी का लिखा एक पैम्फेट पढ़ना चाहिए: 'एनाटॉमी ऑफ फासीवाद' बाय अ डिटेनू.
वे लिखते हैं: "तानाशाही रवैये वाले सभी राजनेताओं को प्रेत विद्या की जरूरत होती है. भले ही वे किसी लोकतंत्र में मौजूद हों. लोकतंत्र में इनका भरोसा कच्चा होता है, और इसीलिए उनके लिए साधन कोई मायने नहीं रहते, जब तक कि उन साधनों के जरिए वे सत्ता पर काबिज रहें” (पेज 268).
कांग्रेसी जिस तरह इंदिरा गांधी की जी-हुजूरी करते थे, उस पर आडवाणी लिखते हैं: "इस तरह की राजनीतिक मूर्तिपूजा, अश्लील और असभ्य, फासीवादी व्यवस्था की पहली और सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है." क्या आज हम BJP में ऐसी ही चाटुकारिता नहीं देख रहे हैं?" (पेज 255).
आडवाणी अपनी किताब को कैसे खत्म करते हैं? इन पंक्तियों से:
“किसी ने गांधी से एक बार कहा था, कि ब्रिटिश सरकार उतनी भी बुरी नहीं है. वह लोगों का भला भी तो कर रही है. महात्मा जी का जवाब साफ और निरपेक्ष था. उन्होंने कहा था:
‘नीरो या मुसोलिनी ने भी जो देश चलाए थे, उनमें भी कुछ अच्छी बातें थीं. लेकिन हमें पूरे को नकारना होगा. हमारे देश में बहुत कुछ है. बड़ी चौड़ी सड़कें और अच्छे शिक्षण संस्थान. लेकिन वे उस व्यवस्था का हिस्सा हैं जो देश को तहस-नहस कर रही है. मेरा उससे कोई नाता नहीं होना चाहिए. वे ऐसे नाग की तरह हैं जिसके सिर पर सुंदर जगमगाता मुकुट है लेकिन उसमें जहर भी है.’
गांधी जी का नजरिया आज के संदर्भों में भी एकदम खरा है.”
बेशक, मोदी के भारत की तुलना हिटलर की जर्मनी या मुसोलिनी की इटली से करना गलत होगा. इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के भारत से इसकी तुलना की जाए तो यह उससे कहीं ज्यादा आजाद है. लेकिन अगर हम सतर्क नहीं हुए तो भारत निरंकुशता की अंधेरी गहराइयों में ज़रूर उतर जाएगा.
मैं आडवाणी की जेल डायरी पर मोरारजी देसाई की भूमिका का जिक्र किए बिना यह लेख खत्म नहीं कर सकता. मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार में ही आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री थे और उन्होंने इमरजेंसी के दौरान लोकतंत्र विरोधी कानूनों और उपायों को रद्द करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
मुझे यकीन है कि पूर्व प्रधानमंत्री और एक गुजराती की सिफारिश के बावजूद मोदी में आडवाणी की जेल डायरी पढ़ने का जोश नहीं आएगा. अगर वह ऐसा करते हैं, और अपने गुरु के लोकतंत्र संबंधी विचारों को पढ़कर खुद को सुधारने की कोशिश करते हैं तो इससे देश का भला ही होगा.
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. @SudheenKulkarni लेखक का ट्विटर हैंडल है और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है.)
(यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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