- देवभूमि उत्तराखंड के गांव क्या एक बार फिर गुलजार होने वाले हैं?
- कई सालों से बंजर पड़े घरों के ताले क्या खुलने जा रहे हैं?
ये सवाल इसलिए क्योंकि केंद्र सरकार कोरोना लॉकडाउन के दौरान अपने राज्यों से बाहर काम कर रहे लोगों की घर वापसी की गाइडलाइन जारी कर दी हैं. उत्तराखंड सरकार ने भी रोजी-रोटी की तलाश में दूरदराज गए अपने लाखों लोगों की वापसी की तैयारी शुरू की है. इसके लिए रजिस्ट्रेशन भी शुरू हो चुके हैं. तो क्या कई सालों से पलायन की मार झेल रहे इस छोटे राज्य के लिए ये लोगों की वापसी का ये एक बड़ा मौका साबित हो सकता है?
आसानी से नहीं मिला उत्तराखंड
देवभूमि उत्तराखंड में पलायन एक ऐसा अजगर बनता जा रहा है, जो धीरे-धीरे यहां की संस्कृति और धरोहर को निगल रहा है. यहां पिछले एक दशक में लाखों लोगों ने पलायन किया है. उत्तर प्रदेश से अलग राज्य उत्तराखंड बनाने के लिए भले ही कई लोगों ने अपनी जान दांव पर लगा दी हो, लेकिन इसके बाद यह छोटा सा राज्य लगातार राजनीति की भेंट चढ़ता रहा. पहले आपको उत्तराखंड बनाने को लेकर हुए खूनी संघर्ष की एक झलक से रूबरू करवाते हैं.
कई दशकों तक चला संघर्ष
सबसे पहले अंग्रेजों के शासनकाल में उत्तराखंड को अलग करने की मांग उठी थी. इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को एक खत लिखकर उस दौर में ब्रिटिश कुमाऊं को अलग प्रांत बनाने की मांग की गई थी. इसके बाद लगातार कई बार कोशिशें होती रहीं. धीरे-धीरे कई संगठन बनने लगे, प्रधानमंत्री से लेकर राज्यपाल तक को ज्ञापन सौंपे गए.
इसके बाद 1979 में उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) का गठन हुआ. जिसके बाद ये आंदोलन और तेज कर दिया गया. 1988 में कई लोगों ने असहयोग आंदोलन शुरू किया और गिरफ्तारियां हुईं. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उत्तराखंड को यूपी का ताज बताया और इसे अलग राज्य बनाने से साफ इनकार कर दिया.
निहत्थे आंदोलनकारियों पर बरसीं गोलियां
विधानसभा से लेकर संसद तक उत्तराखंड का मुद्दा गूंज रहा था. लेकिन इस आंदोलन को चिंगारी 1994 में मिली. जब पूरे राज्य में जनआंदोलन का आक्रोश फैल गया. लोग अपने अलग राज्य के लिए आर पार की लड़ाई लड़ने को तैयार थे. लेकिन 1 सिंतबर 1994 को जो हुआ वो पहाड़ के लोगों ने पहले कभी नहीं देखा. खटीमा में बिना चेतावनी के पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां दाग दीं. जिसमें करीब 7 लोगों की मौत हुई.
इसके बाद उत्तराखंड आंदोलन ने कई गोलीकांड सहे. जिनमें 2 सितंबर 1994 को मसूरी गोलीकांड (6 लोगों की मौत), 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर कांड (7 लोगों की मौत) और 3 अक्टूबर 1994 को देहरादून गोलीकांड (3 लोगों की मौत) शामिल है.
आखिरकार 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य बना और उन हजारों आंदोलनकारियों का सपना पूरा हुआ. उत्तराखंड गठन के बाद राजनीतिक दल इन गोलीकांडों पर सियासत करके कई बार सत्ता हासिल कर चुके हैं. लेकिन आंदोनकारियों पर गोली चलाने वाले आज भी आजाद घूम रहे हैं.
कैसे शुरू हुआ पलायन?
हमने आपको उत्तराखंड राज्य का संघर्ष इसलिए बताया क्योंकि आज राज्य की जो स्थिति है, उसके बारे में शायद ही किसी आंदोनकारी ने कभी सोचा होगा. राज्य की उम्र 20 साल हो चुकी है, ये वही उम्र है जिसमें कोई भी ताकत और जोश से भरा होता है, नई उम्मीदें होती हैं. लेकिन उत्तराखंड जैसा राज्य की 20 साल की उम्र में ही कमर झुकने लगी है. एक देश और एक राज्य के लिए युवा ही सबसे बड़ी ताकत होते हैं. लेकिन उत्तराखंड के युवाओं ने रोजगार, अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा के अभाव में पलायन करना शुरू कर दिया. ये सिलसिला लगातार बढ़ता चला गया और राज्य की सत्ता में बैठीं सरकारें मुंह ताकती रहीं.
आखिर कौन जिम्मेदार?
इस महा पलायन का जिम्मेदार और कोई नहीं, बल्कि राज्य की सरकारें ही हैं. जिन्होंने हर चुनावी घोषणा पत्र में इस मुद्दे को शामिल तो किया, लेकिन कभी भी पलायन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए. हाल ही में सत्ता में काबिज बीजेपी सरकार ने पलायन आयोग की घोषणा की. जिसका काम था कि वो पता लगाए कि उत्तराखंड में कितना पलायन हुआ है और उसकी क्या वजह है. लेकिन इस पलायन आयोग ने सबसे पहले खुद ही पलायन कर लिया.
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में एक प्रमुख अखबार में काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र गोदियाल ने बताया कि पलायन आयोग का मुख्यालय पौड़ी में होना था, जो कागजों में आज भी है. लेकिन इसे देहरादून शिफ्ट कर दिया गया. उन्होंने बताया,
“पलायन रोकने के लिए बने आयोग ने ही सबसे पहले पलायन कर दिया. इसने पौड़ी में काम करने की बजाय देहरादून में काम करना आसान समझा. जबकि पहाड़ी जिले में रहकर ही पलायन की असली समस्या को समझा जा सकता था. इसका विरोध भी हुआ, ये काफी बड़ी खबर थी, लेकिन नेशनल मीडिया ने इसे जगह नहीं दी. ये खबर कुछ गिने चुने अखबारों और सोशल मीडिया तक ही सिमट कर रह गई.”शैलेंद्र गोदियाल, वरिष्ठ पत्रकार
अब अगर इसी आयोग की रिपोर्ट की बात करें तो कुछ चौंकाने वाले आंकड़े दिखते हैं. जिसके मुताबिक साल 2001 से लेकर 2011 तक दस सालों में करीब 70 हजार लोगों ने गांवों से पलायन कर लिया. इनमें से हजारों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने हमेशा के लिए गांव छोड़ दिया.
वहीं 1734 ऐसे गांव हैं जो लगभग पूरी तरह से खाली हो चुके हैं. सबसे ज्यादा पलायन अल्मोड़ा और पौड़ी जिले में हुआ है.
उत्तराखंड के लिए 20 साल बाद बड़ा मौका
पहाड़ों में रोजगार और शिक्षा के लिए सबसे ज्यादा पलायन हुआ है. बेहतर सुविधाओं के लिए पलायन गांव से शुरू होकर कस्बों में हुआ, कस्बों से छोटे शहरों में और छोटे शहरों से महानगरों तक पहुंचा. लेकिन अब 20 साल बाद कोरोना महामारी उत्तराखंड सरकार के लिए एक बड़ा मौका लेकर आई है. क्योंकि उत्तराखंड के ज्यादातर लोग शहरों में आकर होटलों और फैक्ट्रियों में छोटी-मोटी नौकरियां करते हैं. लेकिन अब जब लॉकडाउन ने सब बंद कर दिया है तो लोग सोचने पर मजबूर हो चुके हैं कि आखिर उन्होंने अपना घर अपना गांव क्यों छोड़ दिया. हजारों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने गांव में ही कुछ नया करने का मन बनाया है.
इसीलिए सरकार अगर ऐसे लोगों को मौका देती है, उनके रोजगार के लिए बड़े स्तर पर योजनाएं लागू करती हैं तो ये उल्टा पलायन उत्तराखंड के गांवों के लिए संजीवनी साबित हो सकता है. अगर रोजगार और बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की गारंटी मिलेगी तो शहरों की धूल फांकने वाला व्यक्ति अपने खेत खलियानों और अपने पैतृक घर पर ही रहकर अपनी जिंदगी बिताएगा.
इकनॉमी को मिलेगा बूस्ट
इस बार राजनीति को दरकिनार कर उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वो बाहें फैलाकर अपनों को स्वागत करे और उन्हें गले लगाए. ऐसा करके जहां बंजर पड़े हजारों गांवों में एक बार फिर बच्चों की किलकारियां गूजेंगीं, वहीं राज्य की इकनॉमी पर भी काफी असर पड़ेगा. अगर राज्य में हजारों लोग रोजगार करेंगे, अपना स्टार्टअप शुरू करेंगे तो इससे उत्तराखंड की इकनॉमी को एक बड़ा बूस्ट जरूर मिलेगा. इससे साबित हो जाएगा कि क्या वाकई नेताओं को पलायन की चिंता है, या फिर वो इस पलायन के तवे पर 20 साल से अपनी रोटियां सेककर पेटभर खाना खा रहे हैं.
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