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प्रवासी मजदूरों पर देश को नाज होना चाहिए,राहत में इतनी देरी क्यों?

तरक्की की रफ्तार बढ़ने से माइग्रेशन बढ़ता है और इसका फायदा सबको होता है

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2015 के अगस्त में मैंने पंजाब के लुधियाना में तीन बड़ी कंपनियों- वर्धमान टेक्सटाइल्स, मोंटे कार्लो फैशन और हीरो साइकिल- के आला अधिकारियों से बात की थी. उन मुलाकातों का सार कुछ इस तरह का था: लुधियाना के इंडस्ट्रियल यूनिट्स को हर साल 50,000 से एक लाख अतिरिक्त वर्कर्स की जरूरत पड़ती है. आसपास के इलाकों से जरूरतें पूरी नहीं हो पाती है. इसलिए माइग्रेंट वर्कर्स को लुभाने के लिए कई स्कीम चलाए जाते हैं.

वो स्कीम नए मोबाइल सेट, रहने का इंतजाम, एनजीओ के साथ टाइ अप्स से लेकर रेफेरल प्रोग्राम चलाने तक की होती है. इतनी मशक्कत के बाद भी अगर वर्कर्स नहीं मिले तो विस्तार की योजना को ठंडे बस्ते में डालना होता है. (पूरी रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं)

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तरक्की की रफ्तार बढ़ने से माइग्रेशन बढ़ता है और इसका फायदा सबको होता है

इस रिपोर्ट के साथ आप 2016-17 के इकनॉमिक सर्वे का चैप्टर 12 पढ़िए जिसको बड़ा ही प्यारा शीर्षक इंडिया ऑन द मूव एंड चर्निंग दिया गया है. इसके मुताबिक जिस दशक में देश में तरक्की की रफ्तार सबसे ज्यादा रही उसमें देश के अंदर के माइग्रेशन की रफ्तार भी सबसे ज्यादा रही. जहां 1991 से 2001 के बीच माइग्रेशन की सलाना बढ़ोतरी की दर 2.4 परसेंट रही, वहीं 2001 से 2011 के बीच इसकी दर 4.5 परसेंट रही. हमें पता है कि 2001 से 2011 का दशक विकास दर के हिसाब से सबसे अच्छा रहा है.

आप कहेंगे कि गरीब इलाकों से अमीर इलाकों में माइग्रेशन से वर्कर्स को फायदा होता है और जैसे ही तरक्की की रफ्तार बढ़ती है, जैसा कि 2001 से 2011 के बीच हुआ था, माइग्रेशन की रफ्तार भी बढ़ती है. इस आंकड़े से कैसे मान लिया जाए कि माइग्रेंट वर्कर्स ने तरक्की की रफ्तार बढ़ाने में सहयोग दिया है.

मेरा मानना है कि इस आंकड़े को लुधियाना की कहानी से जोड़कर देखेंगे तो पाएंगे कि माइग्रेशन सबके लिए फायदेमंद है- उनके लिए भी जो रोजगार की तलाश में एक जगह से दूसरे जगह जाते हैं और उन इलाकों और इंडस्ट्रीज के लिए भी जहां वो काम पाते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो लुधियाना के इंडस्ट्री के दिग्गज, माइग्रेंट्स को अपने यहां लाने कि लिए लुभावने ऑफर क्यों देते.

इकनॉमिक सर्वे के मुताबिक, देश में हर साल करीब 90 लाख लोग एक राज्य से दूसरे राज्य रोजगार की तलाश में जाते हैं. इसमें कुछ सालों के आंकड़ों को जोड़ दें तो यह साफ है कि देशभर में लॉकडाउन की घोषणा के बाद करोड़ों लोग फंसे होंगे. इसमें से कई विचलित हैं. कितनों को रोजगार जाने का डर सता रहा होगा. कितने ऐसे होंगे जो खाने को तरस रहे होंगे. कई अपनों से मिलना चाह रहे होंगे. और ताज्जुब की बात है कि उनके दर्द को समझने में केंद्र सरकार को इतना समय लग गया.

लंबे लॉकडाउन के आखिरी हफ्ते में केंद्र सरकार की तरफ से गाइडलाइन आया है कि ऐसे समय में जो माइग्रेंट अपना घर जाना चाहते हैं, उनके लिए का इंतजाम किए जाए. राज्य सरकारों को नोडल अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश दिया गया है और कहा गया है कि इस पूरी प्रक्रिया को अंजाम दिया जाए. फैसला लेने में इतनी देरी क्यों?

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बिहार की अर्थव्यवस्था में मनी ऑर्डर इकनॉमी का बड़ा योगदान

माइग्रेंट्स की बैचेनी के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इतने लंबे समय तक चुप क्यों रहे? आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा माइग्रेट करने वाले बिहार से ही हैं. बिहार सरकार ने केंद्र की गाइडलाइन का पालन किया जिसमें साफ कहा गया था कि एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच लोगों का मूवमेंट नहीं होगा. लेकिन नीतीश कुमार सत्ताधारी एनडीए का हिस्सा भी हैं और अपने राज्य के माइग्रेंट्स का दर्द भी खूब समझते हैं. उनको केंद्र सरकार पर शायद पहले ही नियम में फेरबदल करने का दबाव डालना चाहिए था.

2012 के NIPFP के एक पेपर के मुताबिक, देश के अंदर और देश से बाहर जाने वाला हर 5 में से एक माइग्रेंट बिहारी है. हर 1,000 बिहारी माइग्रेंट्स में से 524 अपने परिवार को पैसा भी भेजता है. उस पेपर के मुताबिक हर माइग्रेंट औसतन हर महीने अपने परिवार को 4,500 रुपए भेजता है. ये 2007 का आंकड़ा है जिस समय औसत प्रति व्यक्ति खर्च का आंकड़ा इस रकम से काफी कम था. इसका मतलब यह है कि माइग्रेंट वर्कर्स का योगदान बिहार की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण है.

ऐसे में बिहार के हुक्मरानों को यह समझने में इतनी देर क्यों लगी कि वहां के लोग जो लॉकडाउन में राज्य से बाहर फंसे हैं उनको वापस लाने का तत्काल इंतजाम किया जाए और केंद्र सरकार को इसके लिए मनाया जाए. ध्यान रहे कि बिहारियों की एक बड़ी तादाद खाड़ी के देशों में भी है. जिस तरह से कोरोना की तबाही के साथ-साथ कच्चे तेल की कीमत गिरी है, वहां भी बड़े पैमाने में छंटनी तय है. वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि इस साल बाहर से भारत में आने वाले पैसे में 23 परसेंट तक की कमी हो सकती है.

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इकनॉमिक सर्वे के मुताबिक, देश में रेमिटांस की साइज भी 1.5 लाख करोड़ रुपए की है. इसका बड़ा हिस्सा बिहार को भी मिलता रहा है.

जिस तरह से खाड़ी के देशों में तबाही हो रही है और देश के अंदर माइग्रेंट्स की दुर्दशा है, उसे देखकर तो यही लगता है कि ज्यादा माइग्रेंट वर्कर्स वाले राज्यों को, जिनमें बिहार, उत्तर प्रदेश और केरल तीन बड़े नाम हैं, इस साल रेमिटांस की रकम में काफी कमी आ सकती है.

क्या बिहार के हुक्मरानों ने इसका अनुमान लगाया है? क्या राज्य की अर्थव्यवस्था को इसकी वजह से होने वाले संभावित नुकसान का आकलन किया गया है?

बिहार में इसी साल चुनाव भी होने वाले हैं. लॉकडाउन के दौरान माइग्रेंट्स की दुर्दशा भी उसमें एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. इसके बावजूद सिस्टम में इतनी देरी?

(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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