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मैं चुनावों का ‘सुपरस्टार विकास’, लेकिन इस बार डरा हुआ हूं...

‘कभी-कभी तो लगता है कि देश के सभी 543 सीटों पर मैं ही तो एक उम्मीदवार हूं. अच्छी फीलिंग है.’

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मैं वही विकास हूं जिसके नाम पर हर कोई चुनाव लड़ता है. मोदी जी भी और राहुल जी भी. कम से कम जय-जयकारे के बीच मेरा नाम एक बार जरूर लिया जाता है. पहले भी सब लेते थे, अब भी लेते हैं. कभी-कभी तो लगता है कि देश के सभी 543 सीटों पर मैं ही तो एक उम्मीदवार हूं. अच्छी फीलिंग है.

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पहले मेरा नाम लेकर सोशल इंजीनियरिंग होता था. ‘विकास होगा’ का असली मतलब होता था कि फलां उम्मीदवार आपकी जाति से है. उसको वोट कीजिए तो आपका खुद ब खुद विकास होगा. सही-गलत को छोड़िए, एक झूठा ही सही, भरोसा तो दिया जाता था. असली विकास तो नेता जी का ही होता था. यह हम सबको पता है. कुछ भी हो, चुनाव के समय मेरे अंदर उम्मीद जगती थी. शायद किसी कौम का, किसी इलाके का, किसी ग्रुप का थोड़ा विकास हो ही जाएगा. बाकी हमें तो पता है कि विकास तो होगा ही, डिस्पाइट द गवर्नमेंट.

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चुनावी सीजन में मैं काफी डरा हुआ हूं...

लेकिन इस चुनावी सीजन में मैं काफी डरा हुआ हूं. जरा आसपास का जायजा ले लीजिए. मेरे लिए यानी विकास के लिए जरूरी है कि कंजप्शन की रफ्तार ना रुके. लेकिन आपने ताजा हेडलाइंस देखे हैं. देश की सबसे बड़ी ऑटो कंपनी मारुति की हवा ही गुल हो गई है. एक महीने में 18 परसेंट की गिरावट. रिकवरी की भी फिलहाल कोई उम्मीद नहीं.

जब से मैंने देश में एंट्री ली है या दूसरे शब्दों में कहें कि विकास को हमने सीरियसली महसूस करना शुरू किया है, ऐसा शायद ही कभी हुआ है. दूसरी ऑटो कंपनियों की भी यही हालत है. ये बताता है कि कंजप्शन की हवा निकल गई है.

इसके अलावा कुछ कंज्यूमर फेसिंग कंपनियों जैसे डाबर, नैरोलेक और गोदरेज कंज्यूमर, के तिमाही नतीजे आए. सबका यही रोना है- गांवों में खरीदारी रुक गई है. इसका मतलब तो यही निकलता है कि गांवों में लोगों की आमदनी घट रही है और लोगों को इसमें सुधार की उम्मीद भी नहीं है. इसी को तो सारे कमेंटेटर चीख-चीखकर रूरल डिस्ट्रेस बोल रहे हैं. ट्रैक्टर की बिक्री का भी यही हाल है. वो भी तो बड़े डिस्ट्रेस का ही इशारा है ना.

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बैंक खस्ताहाल, डिमांड कम

बैंकों का भी यही हाल है. लोन की डिमांड काफी कम है. रियल एस्टेट वाले कई बरसों से बदहाल हैं. कीमतें कम हो रही है लेकिन खरीदार फिर भी नदारद. एक्सपोर्ट्स की बदहाली की कहानी भी पुरानी है. नौकरियों के आंकड़ों के बारे में तो आपको पता है ही. इस माहौल में चुनाव हो रहा है.

कोई इसका फिक्स बताता. मैं पटरी से उतर गया हूं, मुझे फिर से पटरी पर कैसे लाना है इसकी उम्मीद जगाता. लेकिन मेरा नाम लेकर नेता किस तरह की बातें कर रहे हैं इसका नमूना तो जरा देख लीजिए.

इस नारे को ही ले लीजिए- विकास तो मुद्दा है ही, लेकिन मेरा एजेंडा है घर में घुसकर मारेंगे. अरे भाई, सरकार की जिम्मेदारी है कि हमारी सीमाएं सुरक्षित रहे. अपनी बेसिक जिम्मेदारी पूरा करने का ढिंढोरा क्या पिटना.

एक दूसरा नारा देखिए- मुद्दा तो विकास है, लेकिन हमें साबित करना है कि किसी खास धर्म को मानने वाला आतंकवादी हो ही नहीं सकता है. कमाल हो गया. यहां तो आतंकवाद की परिभाषा ही बदल गई. हमें तो पता था कि आतंकवादी नफरत फैलाने वाला राक्षस होता है जो मासूमों की बिना वजह जान लेता है. वो धर्म का चोला ओढ़ने वाला अधर्मी होता है. चुनाव आंतकवाद की परिभाषा बदलने वाला एक्सरसाइज कब से हो गया.

मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि इस चुनाव के अधिकांश नारे डराने वाले हैं- इसको वोट नहीं करोगे तो हाथ काट देंगे, ये पार्टी हारी तो दुश्मन पाकिस्तान हम पर हावी हो जाएगा. वो जीता तो आतंकवाद का खतरा. ये जीता तो लोकतंत्र को खतरा. कोई मैचोमेन बनकर डरा रहा है तो कोई सुपरमैन बनकर. लेकिन नारे डरा ही रहे हैं.

किसी ने सोचा है कि डर और खतरे के माहौल में विकास की बली चढ़ती है. फिर या तो मेरा नाम मत लो या फिर खतरों के खिलाड़ी बनना छोड़ दो.

चुनाव को उम्मीद का उत्सव रहने दो. मुझे यानी विकास को डराओगे तो घर में घुसकर मारने की औकात भी नहीं बचेगी. मैं हूं तो हैसियत है. धौंस है, मजबूत बने रहने की औकात रहेगी. मैं नहीं तो डर ही बचेगा. फिर बस डर-डर खेलना.

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