साल 1987 में फिल्म निर्माता अनिल शर्मा की फिल्म ‘हुकूमत’ रिलीज हुई थी. अनिल शर्मा को उनकी ब्लॉकबस्टर फिल्म गदर: एक प्रेम कथा (2001) के लिए याद किया जाता है. ‘हुकूमत’ में अर्जुन सिंह नामक एक दबंग पुलिसवाला भ्रष्ट और निर्दयी राजनीतिज्ञों, ठेकेदारों, सरकारी अधिकारियों, साजिश रचने वाले चीनी और पाकिस्तानियों से शांति नगर के निवासियों को बचाता है.
फिल्म कोई खास नहीं थी, फिर भी ‘हुकूमत’ उस साल की सबसे हिट फिल्मों में एक थी. सबसे दिलचस्प था मुख्य भूमिका में ‘ही-मैन’ धर्मेन्द्र का किरदार. साथ में ईमानदारी वाले और हास्य किताबों की भाषा में डायलॉग, साथ में हिंसा और भावनाओं का मिला-जुला प्रस्तुतिकरण.
बाद की चीजें हल्की थीं, लेकिन उनमें फूहड़ता नहीं थी. (ये उस समय की बात है. बेहतर फिल्में देखने वाले आज के दर्शक उसे घटिया और मजाक उड़ाने लायक पाएंगे.)
‘हुकूमत’ का खाका
हो सकता है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई से पहले हुकूमत का खाका बीजेपी को प्रभावित न करता हो, पर निश्चित रूप से आज की तारीख में इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है. बीजेपी लगातार मोदी को ऐसी शख्सियत के रूप में प्रस्तुत कर रही है, जो भारत को बचा रहा है.
जो परिवारवादियों, अवसरवादियों, बिचौलियों, दलालों, शहरी नक्सलियों, छद्म-धर्मनिरपेक्षतावादियों, देशद्रोहियों, विरोधियों, उदारवादियों, कम्युनिस्टों, मांस खाने वालों और पाकिस्तान में उनके दोस्तों से अकेले लोहा ले रहा है. ये वो लोग हैं, जिन्होंने सालों से भारत को गरीब, अलग-थलग, विभाजित और असुरक्षित बना रखा है.
और अब बीजेपी ने ‘हुकूमत’ फिल्म का खाका अपनाया है. उन्हीं कारणों से, जो कभी अनिल शर्मा के लिए कारगर थे. यानी आम लोगों की परेशानियों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना, उनके पूर्वाग्रहों और चिन्ताओं का इस्तेमाल करना, बहुआयामी और व्यवस्थित दुष्ट चरित्रों को निशाना बनाना, आम लोगों को सम्मान और इंसाफ दिलाने के लिए पूरी सेना के रूप में इकलौते व्यक्ति की प्रतिबद्धता, धमाकेदार डायलॉग, भावनात्मक दोहन तथा बड़े-बड़े संदेशों के रूप में सरल उपाय प्रस्तुत करना.
सबसे दिलचस्प बात है कि जिस प्रकार अनिल शर्मा ने फिल्म हुकूमत में किया, अक्सर बीजेपी भी इतना सब कुछ करते हुए ईमानदारी और ड्रामा के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करती है, जिसमें ईमानदारी की तुलना में ड्रामा का हिस्सा हावी रहता है. साथ ही मोदी की गरजदार आवाज में काम-काज को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है.
कभी धारदार रही बीजेपी की रणनीति अब धार क्यों खो रही है?
अब साल 2019 की बात करते हैं. लगता है कि बीजेपी एक बार फिर हुकूमत का फॉर्मुला दोहराने में जुटी है. जो भी विरोधी हैं, वो देशद्रोही हैं, उनकी पाकिस्तान के साथ ‘मिलीभगत’ है, और भारत को ‘बचाने’ के लिए मोदी और उनकी पार्टी को वोट देना ‘अनिवार्य’ है, ताकि वो अपने लिए न्यायोचित जगह बना सकें. यही पार्टी की मुख्य रणनीति है.
पिछली बार चुनाव में पार्टी की कामयाबी को देखते हुए इस रणनीति की अहमियत समझी जा सकती है. लेकिन इसमें जोखिम भी कम नहीं.
सबसे पहला जोखिम है, ड्रामा के हिस्से का आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल करना, इस प्रक्रिया में जोड़-तोड़ करना, जिससे ईमानदारी का वो हिस्सा गौण हो जाता है, जो अब तक ड्रामा को विश्वसनीय बना रहा था. एक प्रामाणिक भावनात्मक का नुकसान ध्यान देने योग्य है, खासकर जब ड्रामा की पुरानी स्क्रिप्ट अपनी धार खोने लगी है. शर्मा ने भी 1989 में फिल्म ‘ऐलान-ए-जंग’ बनाई थी. इस फिल्म का विषय और मुख्य किरदार पुराने थे. लेकिन पुरानी कामयाबी नहीं दोहराई जा सकी.
सवाल है कि जो फॉर्मूला अब तक कामयाब रहा, बीजेपी के लिए अब वही फॉर्मुला काम क्यों नहीं कर रहा?
हाल में विधानसभा चुनावों के नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि नुकसान का नियम हावी है. बीजेपी मुश्किल से गुजरात में अपना गढ़ बचा सकी, लेकिन छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसके किले ढह गए, जबकि यहां भी फिल्म हुकूमत का खाका दोहराया गया था.
बीजेपी के लिए रणनीति बदलने में अब देर हो चुकी है
बीजेपी समर्थक ये तर्क दे सकते हैं कि विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों से अप्रभावी थे, लेकिन संसदीय चुनाव में बालाकोट हवाई हमले के साथ राष्ट्रीय स्तर पर ये मुद्दा हावी हो चुका है, जिसका पार्टी को भारी फायदा हो सकता है.
लेकिन सवाल हवाई हमले को लेकर भी हैं. चुनाव के समय युद्ध जैसी स्थिति को बढ़ावा देना, बीजेपी के शीर्षस्थ नेताओं के प्रचार का नजरिया, देश जब पुलवामा हमले के शोक में डूबा था, उस वक्त सेना का गुणगान, लेकिन सैनिकों की वास्तविक समस्याओं की ओर से मुंह फेरना, पुलवामा आतंकी हमलों को लेकर और उससे पहले भी खुफिया खबरों की नाकामी जैसे मुद्दों के कारण शायद ही बीजेपी को उम्मीदों के अनुरूप राजनीतिक बढ़त मिले.
आतंकी ठिकानों और पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाने के दावों पर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के शक के बाद उम्मीदें और धूमिल हुई हैं.
अब बीजेपी अपनी रणनीति बदलना भी चाहे, तो देर हो चुकी है. खासकर जब उसके पास भुनाने के लिए शायद ही कोई उपलब्धि हो (उसके स्टार प्रचारक 2014 के ‘अच्छे दिन के वादों’ पर चुप्पी साधे बैठे हैं और विमुद्रीकरण जैसे ‘मास्टरस्ट्रोक’ पर भी ध्यान नहीं दे रहे). हुकूमत के खाके से जितना फायदा मिलना था, पार्टी को मिल चुका. सत्ता से चिपके रहने का ये अच्छा मौका था, लेकिन इस बार उम्मीदों पर पार पाना बेहद कठिन साबित हो रहा है.
(मनीष दूबे एक राजनीतिक विश्लेषक और एक जुर्म उपन्यास लेखक हैं. उन्हें @ManishDubey1972 पर ट्वीट किया जा सकता है. आलेख में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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