उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में कथित तौर पर 'लव जिहाद कानून' के तहत दोषी ठहराए गए पहले युवक को हाल ही में एक सेशन कोर्ट ने पांच साल की कैद की सजा सुनाई थी. 26 साल के मोहम्मद अफजल पर आरोप था कि उसने धर्म परिवर्तन के लिए अमरोहा जिले में एक 16 साल की लड़की का अपहरण किया.
युवक को भारतीय दंड संहिता के यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) एक्ट और उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण निषेध अधिनियम 2021 के तहत अपराधी बताया गया है.
रिकॉर्ड में मौजूद सबूतों और कोर्ट ने कैसे उनका मूल्यांकन किया है...इस पर नजर डालने से पहले हमें बेसिक क्रिमिनल लॉ और सेक्शन-12 (लव जिहाद कानून) के बीच मौजूद विरोधाभासों को देखना होगा, जो आरोपी पर खुद को बेगुनाह साबित करने का दायित्य डालता है.
इसका मतलब यह है कि सामान्य परंपरा के उलट आरोपी को यह साबित करना होगा कि उसने इस कानून के तहत कोई अपराध नहीं किया है.
धारा 12 क्या कहती है?
कानून की धारा 12 में ये प्रावधान है कि जिस व्यक्ति पर धर्मांतरण का आरोप लगाया गया है, उसे यह साबित करना होगा कि धर्मांतरण जबरदस्ती, धोखाधड़ी करके या शादी की वजह से नहीं किया गया था.
इसके अलावा यह मानने के बजाय कि आरोपी व्यक्ति गुनहगार साबित होने तक निर्दोष है...कानून पहले ही ये मान लेता है हर तरह का धर्म परिवर्तन अवैध है, अगर नहीं तो फिर आरोपी सिद्ध करे.
यह कानून किसी सबूत की प्रासंगिकता को पलट देता है और बिल्कुल उसी तरह है जैसे एक व्यक्ति को किसी बंद डिब्बे से पानी पीने को कहा जाए.
यह एक बड़ी चिंता क्यों है?
कुछ अन्य सजा देने वाले कानूनों में भी इसी तरह के प्रावधान शामिल हैं, उनपर भी सवाल उठते हैं लेकिन कम से कम वो गंभीर अपराधों (जैसे- आतंकवाद) से संबंधित हैं, जहां कुछ घटनाओं को केवल अभियुक्त द्वारा समझाया जा सकता है.
जहां तक 2021 के अधिनियम का संबंध है, यह आतंकवाद से संबंधित गतिविधियों के लिए नहीं है. इसके अलावा, ऐसे सामान्य कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं होता है कि केवल अभियुक्त घटनाओं को समझाएं और न ही ऐसी स्थिति होती है कि पुलिस आरोप साबित करने के लिए सबूत न जुटा पाए.
अधिनियम की धारा 12 सबूत पेश करने की जिम्मेदारी को अभियोजन से आरोपी पर स्थानांतरित कर देती है. पुलिस को केवल किसी व्यक्ति या निकाय के खिलाफ आरोप लगाना होता है, लेकिन उसे साबित करने की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है.
अपराध सिद्ध करने के लिए मंशा या मोटिव साबित करना जरूरी है. लेकिन धारा 12 के तहत पुलिस को मंशा दिखाने के लिए भी सबूत जुटाने की जरूरत नहीं होती है. इसका मतलब यह है कि अगर सहमति से भी धर्मांतरण होता है तो पुलिस सेक्शन 3 के तहत किसी को फंसा सकती है, क्योंकि मंशा साबित करने के लिए सबूत पेश करने की जरूरत नहीं है.
इसमें पुलिस को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता है, लेकिन आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए कहा जाता है, भले ही उसके पास सबूत इकट्ठा करने के लिए कोई जरिया नहीं होता है.
इसके अलावा यह अपराध गैर-जमानती है, जिसका मतलब है कि जमानत केवल कोर्ट द्वारा दी जा सकती है. लेकिन अगर कोर्ट आरोपी को जमानत नहीं देती है, तो एक और सवाल उठता है कि वह सलाखों के पीछे अपनी बेगुनाही कैसे साबित करेगा?
इसके अलावा, अन्य प्रावधान पहले से मौजूद हैं...
अफजल के मामले में, आईपीसी और पॉक्सो अधिनियम के तहत अपराधों के लिए उसकी सजा सही हो सकती है और ठोस सबूत पर आधारित हो सकती है, लेकिन 2021 के अधिनियम के तहत अपराध दर्ज नहीं किया जा सकता था. जैसा कि ऊपर बताया गया कि धारा 12 दुरुपयोग की संभावना से भरी हुई है.
यदि एक कपटपूर्ण अंतर्धार्मिक विवाह होने वाला है या हो चुका है, तो पुलिस के पास पहली घटना को रोकने और दोनों घटनाओं में अपराधी के खिलाफ आईपीसी और 2021 से पहले के अन्य कानूनों को लागू करने का अधिकार है.
उदाहरण के लिए- भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए और 298 के तहत जबरन धर्म परिवर्तन को पहले से ही एक ऐसा अपराध माना गया है, जिसमें बिना वॉरंट के आरोपी को गिरफ्तार किया जा सकता है.
यहां यह बताना जरूरी होगा कि उत्तर प्रदेश के गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम 2021 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा रही है. हालांकि, जब तक सुप्रीम कोर्ट अधिनियम पर रोक नहीं लगाता, तब तक इसकी वैधता बनी रहेगी. अगर कोर्ट आगे चलकर कानून या उसके प्रासंगिक पहलुओं को खत्म करने का फैसला करता है, तो अफजल की सजा (जो इस अधिनियम के तहत है) को भी रद्द किया जा सकता है. हालांकि IPC और POCSO के तहत अपराधों के लिए दोषसिद्धि अभी भी जारी रहेगी.
(जस्टिस गोविंद माथुर इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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