23 नवंबर को देश ने भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश जस्टिस एम. फातिमा बीवी को खो दिया. वह 96 वर्ष की थीं. फातिमा बीवी किसी राज्य के राज्यपाल के रूप में नियुक्त होने वाली सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला न्यायाधीश भी थीं, और उन्हें यूएस-इंडिया बिजनेस काउंसिल ने लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से भी सम्मानित किया था.
शुरुआती जिंदगी और प्रोत्साहित करने वाला परिवार
फातिमा बीवी का जन्म 30 अप्रैल 1927 को केरल में हुआ था. जब उन्होंने अपनी कानूनी शिक्षा पूरी की थी, तब भारत ब्रिटिश शासन से आजादी की कगार पर था. परिवार ने बढ़ावा दिया तो उनके सपनों को उड़ान मिली. घर वालों की प्रेरणा के दम पर ही 1950 में उन्होंने कानून को करियर बनाने का फैसला किया.
अन्नवीतिल मीरा साहिब और खदीजा बीवी के घर जन्मी फातिमा आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं और एक प्रतिभाशाली छात्रा थीं. उनके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और उन्होंने अपने बेटों और बेटियों को समान रूप से अच्छी पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया था.
फातिमा बीवी ने केरल के सरकारी लॉ कॉलेज से कानून की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने न सिर्फ बार परीक्षा पास की, बल्कि 1950 में बार काउंसिल में गोल्ड मेडल हासिल करने वाली पहली महिला भी बनीं.
उन्होंने 1950 में कोल्लम नामक शहर में अपनी प्रैक्टिस शुरू की. यह पेशा पुरुष प्रधान था, जिसकी रूढ़ियों को फातिमा बीवी ने कुछ इस तरह तोड़ा कि लोगों ने भारत में महिलाओं को कानून के क्षेत्र में काम करते देखा, और सराहना भी की. भारत में आजादी के बाद से ही राजनीतिक, न्यायिक और सामाजिक क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व चिंता का विषय रहा है. जस्टिस फातिमा एक ऐसी मिसाल बनकर सामने आईं जिसे लोग हमेशा याद रखेंगे.
कैसी रही फातिमा बीवी की पेशेवर जिंदगी?
1950: उन्होंने वकील के तौर पर नामांकन कराया और केरल की अधीनस्थ अदालतों से अपना करियर शुरू किया.
1958: उन्हें केरल अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं में मुंसिफ के रूप में नियुक्त किया गया.
1974: वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पहुंची.
1974: वह जिला एवं सत्र न्यायाधीश बनीं.
1980: उन्हें आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण के न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया.
1983: उन्हें केरल हाईकोर्ट में प्रमोट किया गया.
1989: उन्हें भारत के सुप्रीम कोर्ट में प्रमोट किया गया जहां उन्होंने तीन साल तक सेवा की और 29 अप्रैल 1992 को रिटायर्ड हो गईं.
वह कुछ समय के लिए सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश रहीं जहां उन्होंने कई संवैधानिक मामलों पर फैसला सुनाया.
अनुसूचित जाति एवं कमजोर वर्ग कल्याण संघ बनाम कर्नाटक राज्य मामले में जस्टिस फातिमा बीवी की पीठ ने कहा था कि, “यह हमारे संवैधानिक ढांचे के मूलभूत नियमों में से एक है कि प्रत्येक नागरिक को राज्य या उसके अधिकारियों द्वारा मनमाने अधिकार के प्रयोग से संरक्षित किया जाता है. अगर किसी व्यक्ति के पूर्वाग्रह को तय करने और निर्धारित करने की शक्ति है, तो उस शक्ति के प्रयोग में न्यायिक रूप से कार्य करने का कर्तव्य निहित है, और प्राकृतिक न्याय का नियम उन क्षेत्रों में लागू होता है जो वैध रूप से बनाए गए किसी भी कानून के अंतर्गत नहीं आते हैं.”
असम सिलिमेनाइट लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में अदालत एक राज्य कानून/उसके अधिनियमन की संवैधानिकता तय कर रही थी. इस मामले में जस्टिस फातिमा बीवी की पीठ ने कहा था, “विधायिका की घोषणा के बावजूद कि अनुच्छेद 39 में निर्दिष्ट नियमों को लागू करने के लिए कोई विशेष कानून बनाया गया है, अदालत इस बात के लिए मुक्त है कि वह उस घोषणा को अनदेखा करे और उस कानून की संवैधानिकता की जांच करे. उस घोषणा पर इसलिए भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह अनुच्छेद 39 में उल्लिखित उद्देश्यों से संबंध न रखने वाले कानून की रक्षा करता है.”
फातिमा बीवी का राजनीतिक करियर
भारतीय राजनीति के ऐतिहासिक परिदृश्य में जस्टिस फातिमा बीवी राज्यपाल के रूप में नियुक्त होने वाली सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश भी बनीं. 1997 में उन्हें भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने राजीव गांधी हत्या मामले में चार दोषी कैदियों की दया याचिकाओं को भी खारिज कर दिया.
राज्यपाल के रूप में उनके राजनीतिक करियर में एक दिलचस्प मोड़ आया. 2001 में राज्य चुनावों के दौरान जयललिता के नेतृत्व वाली AIDMK ने विधानसभा चुनाव जीता. ध्यान देने की बात यह है कि उस समय जयललिता को एक भूमि घोटाला मामले में दोषी ठहराया गया था और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा के अनुसार, अगर किसी भी व्यक्ति को कुछ अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया हो, या दो साल से अधिक की सजा दी गई हो तो वह अगले छह साल तक चुनाव नहीं लड़ सकता.
उसी साल फातिमा बीवी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया, हालांकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा था. यह पूरी प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 164 की मदद से पूरी की गई थी. यह एक ऐसा संवैधानिक प्रावधान है जो राज्य विधानमंडल के गैर-सदस्यों को मुख्यमंत्री बनने की अनुमति देता है.
2001 में फातिमा बीवी के राजनीतिक करियर में ठहराव आ गया. केंद्रीय कैबिनेट ने उन पर आरोप लगाया कि वह अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने में नाकाम रहीं. इसके बाद उन्होंने राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे दिया. हालांकि इसके बाद उन्होंने एक बयान जारी किया, लेकिन अपनी आलोचनाओं पर चुप्पी साधे रहीं.
यह बयान 2 जुलाई, 2001 को जारी किया गया था और इसमें उन्होंने कहा था, "राजनेता आरोप लगा सकते हैं और जवाबी कार्रवाई भी कर सकते हैं, लेकिन एक राज्यपाल किसी भी समय यह साबित करने की कोशिश नहीं कर सकता कि उसने अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान संविधान और कानून का उचित तरीके से पालन किया है."
फातिमा बीवी की विरासत
फातिमा बीवी की जिंदगी ने न्याय के हर क्षेत्र को प्रभावित किया. वकीलों को भी, और न्यायाधीशों को भी. उन्होंने महिला न्यायाधीशों और वकीलों को इस पेशे में राह दिखाई. उनका हमेशा मानना था कि महिलाओं को अपना रास्ता खुद बनाना चाहिए. न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भारत के कानूनी विमर्श में सबसे विवादास्पद विषयों में से एक रहा है.
हालांकि हमारे यहां विभिन्न अदालतों (खास तौर से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट) में न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक स्वतंत्र प्रक्रिया है लेकिन भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अब भी काफी कम है.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ऑब्जर्वर (SCO) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में पिछले 73 वर्षों में 268 न्यायाधीश हुए हैं और इनमें से केवल 11 महिला न्यायाधीश हैं.
अभी तक शीर्ष अदालत में कोई महिला मुख्य न्यायाधीश नहीं रही है. अगर वरिष्ठ न्यायाधीश को सीजेआई के रूप में नियुक्त करने के सिद्धांत का पालन किया जाता, तो न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश होंती. हालांकि सीजेआई के रूप में उनका कार्यकाल केवल 36 दिनों का होता.
प्रिया रवींद्रन ने फातिमा बीवी पर मलयालम भाषा में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है जिसका नाम है, नीतिपथयिले धीरा वनिता यानी न्याय पथ की एक बहादुर महिला. इसकी पटकथा आर पार्वती देवी ने लिखी है.
कानून के क्षेत्र में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में द वीक को एक इंटरव्यू देते हुए फातिमा बीवी ने कहा था:
“अब इस क्षेत्र में कई महिलाएं हैं, बार और बेंच दोनों में. हालांकि उनकी भागीदारी काफी कम है. उनका प्रतिनिधित्व पुरुषों के बराबर नहीं है. इसका एक ऐतिहासिक कारण है. महिलाएं देर से इस मैदान में उतरी हैं. महिलाओं को न्यायपालिका में समान प्रतिनिधित्व मिलने में समय लगेगा. जब मैं लॉ कॉलेज गई तो पहले साल मेरी क्लास में सिर्फ पांच लड़कियां थीं. दूसरे साल यह संख्या घटकर दो या तीन रह गई. आज लॉ कॉलेजों में हम देख रहे हैं कि विद्यार्थियों में लड़कियों का काफी अच्छा प्रतिशत है.”
(लेखक इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील हैं. वह विभिन्न कानूनी और सामाजिक मुद्दों पर भी लिखते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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