मध्य प्रदेश के उप-चुनावों की घोषणा हो गई है. राज्य की 28 सीटों पर चुनाव 3 नवंबर को होंगे, जबकि 10 नवंबर को बिहार के साथ मतगणना होगी. उपचुनावों की जरूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि कांग्रेस के 25 मौजूदा विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था और बीजेपी में शामिल हो गए थे, जबकि अन्य 3 सीटों पर विधायकों की मौत हो गई थी. इनमें से 22 विधायक सिंधिया खेमे के हैं, जिन्होंने शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के लिए पाला बदल लिया था.
क्या कांग्रेस की रणनीति गलत है?
इस चुनाव में कांग्रेस की रणनीति गड़बड़ाहट का शिकार होने को मजबूर है. इसने इसे कमलनाथ बनाम शिवराज की लड़ाई बना दिया है. कट्टर कांग्रेसी समर्थक भी इस बात से सहमत होंगे कि कमलनाथ जन-नेता नहीं हैं. हां, वह एक बड़े आयोजक जरूर हैं, लेकिन एक माहिर वक्ता नहीं हैं. रोड शो और रैलियों के दौरान उनकी बेचैनी स्पष्ट है. वे अपने 15 महीने के कार्यकाल में शायद ही सरकारी सचिवालय वल्लभ भवन से बाहर निकले हों. दूसरी ओर शिवराज को उन लोगों के बीच रहना पसंद है, जो उन्हें ‘मामा’ कहते हैं.
जब कांग्रेस 2018 के राज्य चुनावों में सबसे बड़ी सिंगल पार्टी के रूप में उभरी, तो इसने बड़ी दृढ़ता से स्थानीय अभियान चलाया था; उस रौबीले अंदाज में नहीं, जो वे अब चला रहे हैं.
उन्होंने शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ किसी को खड़ा नहीं किया. उन्होंने इसे हर सीट पर भाजपा विधायक के खिलाफ स्थानीय सत्ता-विरोध और गुस्से का लाभ उठाते हुए ‘वन टू वन कैंडिडेट’ का चुनाव बना डाला.
कांग्रेस में भरोसे और तालमेल की कमी
2018 में कांग्रेस ने संयुक्त नेतृत्व की छतरी के नीचे चुनावी लड़ाई लड़ी : कमलनाथ (महाकौशल), दिग्विजय सिंह (संपूर्ण मध्य प्रदेश), सिंधिया (ग्वालियर-चंबल), अजय सिंह (विंध्य), अरुण यादव (मालवा) और इस तरह सभी ने जीत सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत की.
दोनों में से किसी ने भी इन 28 सीटों पर कोई रैली या रोड शो नहीं किया है. कमलनाथ दिग्विजय सिंह की उस खराब व्यवस्था से चिंतित हैं, जिसके कारण उनकी सरकार गिर गई. यह आरोप लगाया जाता है कि उम्मीदवारों के नाम कमलनाथ द्वारा तय किए जा रहे हैं, जो राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं, और वह भी शीर्ष नेतृत्व के साथ किसी भी परामर्श के बिना. राज्य के शीर्ष दो नेताओं के बीच विश्वास की कमी साफ दिखाई देती है.
कांग्रेस को 100 प्रतिशत स्ट्राइक रेट चाहिए
सदन की वर्तमान संख्या 222 है. बीजेपी के पास 107, कांग्रेस के पास 88 और अन्य (बीएसपी/एसपी/निर्दलीय) के पास 7 सीटें हैं. बहुमत 116 सीटों पर है. कांग्रेस को इस जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए सभी 28 सीटें जीतने की जरूरत है, जिसमें पूरे 100 प्रतिशत का स्ट्राइक रेट दरकार है, जिसकी संभावना लगभग शून्य है. दूसरी ओर बीजेपी को इनमें से सिर्फ 9 सीटें जीतने की जरूरत है, जिसका मतलब है कि उसे 33 प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से प्रदर्शन करना है यानी उसे हर 3 सीट में से एक सीट पर जीत हासिल करनी है.
मजबूत उम्मीदवारों की कमी
जिन 28 सीटों पर उप-चुनाव होने हैं, उनमें से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में हैं, जिन्हें सिंधियों के शाही परिवार का गढ़ माना जाता है.कांग्रेस के पास इन सीटों के लिए कोई मजबूत उम्मीदवार नहीं हैं. यहां कुछ सीटों को छोड़कर 2018 के भाजपा प्रतियोगियों को नाकामी हाथ लगी है.
पार्टी द्वारा घोषित उम्मीदवार अपने कार्यकर्ताओं को उत्साहित करते दिखाई नहीं दे रहे हैं, बल्कि ऐसा लग रहा है मानो सब जनता पर है.
यह तथ्य कि बीजेपी नेतृत्व से उनकी खिन्नता और नाखुश होने की खबरों के बावजूद पार्टी ने भाजपा के बड़े नेताओं के पलायन का बंदोबस्त नहीं किया है, जिससे कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है. इसे कमलनाथ के उपायों के विफल होने के रूप में देखा जा रहा है.
सिंधिया को गद्दार बताना काम नहीं आ रहा
कांग्रेस मुख्य रूप से इस तथ्य पर टिकी हुई है कि जहाज से कूदने वाले यानी पाला बदलने वाले ये विधायक ‘गद्दार’ हैं और उन्हें बीजेपी में शामिल होने के लिए मुआवजे के रूप में बड़ी धनराशि मिली है, लेकिन यह आरोप लोगों के बीच काम नहीं कर रहा है. सिंधिया राजपरिवार से ताल्लुक रखते हैं और वे अपने पास मौजूद पर्याप्त संसाधनों के साथ इस आरोप से किनारा करने में सक्षम हैं.
तथ्य यह है कि कांग्रेस ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि इस्तीफा देने वाले 6 विधायक मंत्री थे और उनके लिए ‘अपने करियर को खतरे में डालने’ का कोई अच्छा कारण नहीं था : इससे भी कांग्रेस को कोई खास मदद नहीं मिल पा रही है.
‘गद्दार’ का आरोप काम करने के बजाय, जैसा कि पार्टी को उम्मीद थी, सिंधिया ने स्थिति को अपने लाभ में बदल दिया है और अपनी पार्टी के अंदर इस अपमान का हवाला दिया है, जो क्षेत्र के लोगों की सेवा करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करता है.
इससे पहले ‘चौकीदार चोर है’ जैसे नारे से भी कांग्रेस को कोई ज्यादा लाभ नहीं मिला था, स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपनी गलतियों से सीख हासिल नहीं की है.
बीजेपी शिवराज के नाम पर चुनावी मैदान में
22 सीटों पर ‘आयातित’ उम्मीदवारों का विरोध करना बीजेपी कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए बड़ी स्वाभाविक-सी बात है. वे दशकों से उनसे कड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं. स्थानीय मीडिया कई सीटों पर इन उम्मीदवारों और बीजेपी के संगठनात्मक तंत्र के बीच खींचतान की खबरों से लबरेज है. कई कार्यकर्ता अभी भी उन्हें 'बाहरी' मानते हैं. इनमें से कुछ उम्मीदवारों ने बीजेपी और आरएसएस से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को असहयोग के मुद्दे पर प्रकाश डाला है.
कार्यकर्ताओं के गुस्से को बेअसर करने के लिए भाजपा ने शिवराज और मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई है.
पार्टी का मानना है कि वे कैडर का मनोबल ऊंचा करने में कामयाब होंगे और इन उम्मीदवारों की जीत में योगदान देने के लिए उन्हें प्रेरित करेंगे.
संक्षेप में, मध्य प्रदेश उप-चुनाव, जिसे शिवराज के लिए ‘करो या मरो ’की लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है, दिन बीतने के साथ-साथ आसान होता जा रहा है और इसका मुख्य कारण सत्ता में बने रहने के लिए कम सीटों पर जीत हासिल करना है.
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