लोकसभा चुनाव 2024 से पहले, तीन राज्यों- राजस्थान (Rajasthan), मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) और छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में कांग्रेस (Congress) और बीजेपी (BJP) के बीच द्विपक्षीय मुकाबला होगा. मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेताओं कमलनाथ (Kamalnath) और प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) की हालिया राजनीतिक कदम हिंदू वोटों (Hindu Votes) को 'तुष्ट' करने जैसा है. ऐसे में चुनावी अभियान के लिए 'नरम हिंदुत्व' रणनीति की उपयोगिता और व्यावहारिकता पर बहस शुरू हो गई है. इस लेख में तर्क दिया गया है कि आगामी चुनावों में बीजेपी से सीधे निपटने के लिए कांग्रेस के वजूद के लिए इस तरह की रणनीति जरूरी है.
बीजेपी का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस का 'हिंदू कार्ड' खेलने का प्रयास किसी आश्चर्य की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. प्रियंका गांधी और कमलनाथ का जबलपुर में नर्मदा आरती में हिस्सा लेना इसका सिर्फ ताजा उदाहरण भर है. यह कुछ और नहीं है, दरअसल 2019 के चुनावी संग्राम में बीजेपी ने जो जीत हासिल की थी, उसी का नतीजा है.
बीजेपी की जीत का असर 17वीं लोकसभा के शपथ ग्रहण के समय से ही साफ हो गया था. शपथ ग्रहण समारोह की सबसे ज्वलंत छवियों में से एक तृणमूल कांग्रेस सांसद काकोली घोष दस्तीदार के शपथ ग्रहण की थी. बीजेपी सांसदों के 'जय श्री राम' के नारे के जवाब में TMC सांसद 'जय काली मां' का हुंकार भर रही थीं.
घोष दस्तीदार ने भले ही उस समय हाई जोश में बीजेपी को टक्कर दे रही थीं, लेकिन यह बीजेपी के लिए एक बड़ी राजनीतिक जीत का संकेत था. इसने विपक्ष को हिंदुत्व की पिच पर खेलने के लिए मजबूर कर दिया था.
इसके बाद के वर्षों में, विपक्षी खेमे से ऐसे कई और उदाहरण आए.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हनुमान चालीसा का पाठ करते नजर आए
मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रमुख कमलनाथ ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए चांदी की ईंटें दान की
भूपेश बघेल कई हिंदू रीति-रिवाजों में शिरकत करते नजर आए
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की बहुप्रचारित मंदिर यात्राओं का जिक्र तो छोड़ ही दीजिए.
तो क्या विपक्ष के नेता बीजेपी की चालों में फंस रहे हैं या ये रणनीति बीजेपी के खिलाफ कारगर साबित हो सकती है? यह लेख एक तीसरी ही संभावना को दिखाने की कोशिश करेगा कि मौजूदा सियासी हकीकतों की वजह से, बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में यह वजूद बचाने की जरूरी रणनीति है.
इसके चार पहलू हैं.
1. हिंदू वोट पर BJP का वर्चस्व
अब दिवंगत हो चुके बीजेपी नेता प्रमोद महाजन जब 1980 के दशक में शिवसेना के साथ गठबंधन कर रहे थे, तब उन्होंने बालासाहेब ठाकरे से कहा था कि वो उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब हर हिंदू एक हिंदू के रूप में वोट करेगा.
हालांकि, इसको बताने के लिए अभी कोई डेटा मौजूद नहीं है कि हिंदुओं ने विशुद्ध रूप से ऐसी भावना के कारण बीजेपी को वोट दिया, लेकिन यह सच है कि पार्टी को हिंदू वोटों के एकजुट होने का जबरदस्त फायदा हुआ है.
लोकनीति-CSDS के चुनाव बाद सर्वेक्षण के अनुसार 2019 के चुनावों में, बीजेपी और उसके सहयोगी पूरे भारत में लगभग 52 प्रतिशत हिंदू वोट हासिल करने में कामयाब रहे. यह निश्चित रूप से तीन दशकों में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू वोटों का सबसे बड़ा कंसोलिडेशन है.
अगर हम राज्यवार देखें तो NDA कई स्तरों पर 60 प्रतिशत से अधिक हिंदू वोट हासिल करने में कामयाब रहा. CSDS सर्वे के मुताबिक, उसे असम में 70%, गुजरात में 67 %, दिल्ली में 66 %, बिहार में 65%, झारखंड में 64%, राजस्थान में 63% और महाराष्ट्र में 62% हिंदू वोट मिले.
हिंदुत्व के इस वर्चस्व को देखते हुए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो दल इन राज्यों में बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं, उन्हें अब खुद के हिंदू होने की साख को जबरदस्त तरीके से दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.
2. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों के नजरिए में मतभेद
यह सिर्फ राष्ट्रीय चुनावों के दौरान हिंदू वोटों को मजबूत करने का सवाल नहीं है. बीजेपी के दबदबे के दो और पहलू हैं- पीएम मोदी को समर्थन और वैचारिक झुकाव. इन दोनों पहलुओं में, एक ओर हिंदुओं और दूसरी ओर मुसलमानों, सिखों ,ईसाइयों के नजरिए में साफ साफ फर्क दिखता है.
2019 के CSDS सर्वेक्षण के अनुसार, 54% हिंदू मतदाता पीएम मोदी को दूसरे कार्यकाल के लिए वापस चाहते थे और 29% उनकी वापसी नहीं चाहते थे, बाकी अधर में थे. हालांकि, 64 % मुस्लिम और 55 % ईसाई और सिख नहीं चाहते थे कि मोदी दोबारा पीएम बनें. मोदी को वापस चाहने वालों का प्रतिशत मुसलमानों में 15%, ईसाइयों में 17% और सिखों में 29% था.
स्पष्ट रूप से, बहुसंख्यक समुदाय और तीन सबसे बड़े अल्पसंख्यकों के बीच इस पर भारी मतभेद था.
लेकिन यह जो फर्क है वो दूसरे पहलुओं पर भी झलकता है.
यहां 'चुनावों के बीच राजनीति और समाज' 2019 पर CSDS के सर्वेक्षण से कुछ जानकारियां दी गई हैं.
सर्वेक्षण के अनुसार, 37% हिंदुओं ने मुसलमानों को देशद्रोही के रूप में देखा जबकि 35% ने उन्हें देशभक्त के रूप में देखा, अन्य कुछ भी कहने के स्थिति में नहीं थे.
दूसरी ओर, 46% सिख और 44 % ईसाई मुसलमानों को देशभक्त के रूप में देखते हैं, जबकि दो समुदायों में 29 और 22 प्रतिशत विरोधी दृष्टिकोण रखते हैं.
इससे पता चला कि मुसलमानों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले हिंदुओं की संख्या सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वालों की तुलना में कुछ ही ज्यादा है. सिखों और ईसाइयों में नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वालों की तुलना में सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वालों की संख्या काफी अधिक है.
आइए सर्वेक्षण से एक और डेटा बिंदु लें. इससे पता चला कि आदिवासियों को छोड़कर सभी जाति समूहों के हिंदू, भारत माता की जय कहने से इनकार करने वाले लोगों को दंडित करने के पक्ष में थे. दूसरी ओर, अधिक मुस्लिम, ईसाई और सिख ऐसी सजाओं का समर्थन करने के बजाय विरोध करते थे.
इन आंकड़ों से संकेत मिलता है कि हिंदुओं के एक वर्ग में एक खास किस्म का बहुसंख्यक राष्ट्रवाद जड़ जमा चुका है.
अब, यह बताना महत्वपूर्ण है कि यह बहुसंख्यक हिंदुओं के नजरिए को नहीं दिखाता है. अगर हम CSDS सर्वेक्षण के अनुसार मुसलमानों को 'देशभक्तिहीन' मानने वाले 37% लोगों को लेते हैं, तो यह एक बड़ी संख्या है, लेकिन फिर भी बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.
समस्या यह है कि यह वर्ग अधिक मुखर है और इसका दृष्टिकोण मीडिया और सोशल मीडिया में बहुत अधिक बढ़ जाता है.
मुखर होने के कारण यह तबका यह तय करने में सक्षम है कि किसे 'हिंदू समर्थक' और किसे 'हिंदू विरोधी' के रूप में देखा जाता है और यह 'धर्मनिरपेक्ष' दलों के लिए दुविधा का कारण बन रहा है.
3. 'हिंदू कार्ड ' हिंदू विरोधी ठप्पा लगने से बचने के लिए रणनीति
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि 'यदि मतदाता असली हिंदुत्व पार्टी, यानी बीजेपी को वोट दे सकते हैं, तो वे कांग्रेस, आप या TMC जैसे नरम विकल्प को क्यों चुनेंगे?'
एक बिंदु जो अक्सर देख नहीं पाते हैं वह यह है कि इन पार्टियों की हिंदुत्ववादी रणनीति का उद्देश्य वोट हासिल करना नहीं है, बल्कि उन्हें खोने से बचाना है.
राहुल गांधी का मंदिरों में जाना, प्रियंका गांधी वाड्रा का धार्मिक समारोहों में भाग लेना या अरविंद केजरीवाल का हनुमान चालीसा का पाठ करना अनिवार्य रूप से रक्षात्मक रणनीतियां हैं. ये और कुछ नहीं बस उन्हें 'हिंदू विरोधी' करार देने की बीजेपी की कोशिशों को चकमा देने के तरीके हैं.
बार-बार सार्वजनिक रूप से अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करके, ये नेता बीजेपी के 'हिंदू-विरोधी' बयानों को रद्द करना चाहते हैं. लोगों के मन में यह बात बैठाना चाहते हैं कि वो हिंदू विरोधी नहीं हैं और इसे चुनावी मुद्दे बनने से रोकना चाहते हैं.
यह हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने जैसा नहीं है.
4. हिंदू प्रतीकवाद हिंदुत्व नहीं है
मंदिरों में जाना और धार्मिक अनुष्ठानों में हिस्सा लेना हिंदुत्व नहीं है.यह केवल हिंदू धर्म को मानना या फिर उसका पालन करना है. राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी आदि सभी हिंदू हैं, कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो उन्होंने अपने हिंदू होने की घोषणाएं की हुई हैं. उस हिसाब से तो वो हिंदू ही हैं.
इसलिए यह बिल्कुल ठीक है अगर वे मंदिरों में जाते हैं और हिंदू अनुष्ठानों में भाग लेते हैं.
इसमें भी कोई हैरानी या न समझ में आने वाली बात नहीं है कि इतने वर्षों तक उन्होंने अपनी धार्मिकता को निजी बनाए रखा और अब इसे सार्वजनिक कर रहे हैं और इसकी पब्लिसिटी कर रहे हैं .. यह भी ठीक है. इतना सब करने से भी उनकी धार्मिकता हिंदुत्व नहीं हो जाती है.इन 'धर्मनिरपेक्ष' नेताओं को जिस जाल से बचने की जरूरत है, वह है बहुसंख्यकों को खुश करने के चक्कर में अल्पसंख्यकों को नाराज ना कर दें.
2020 के नॉर्थ ईस्ट दिल्ली दंगों के दौरान चुप्पी साधे रखने पर अरविंद केजरीवाल की आलोचना की गई थी. राजस्थान में कांग्रेस सरकार में हेट क्राइम में असमान मुआवजे के लिए कांग्रेस की आलोचना की गई थी. मसलन उदयपुर में मारे गए कन्हैया लाल के परिवार को जहां 50 लाख रुपये दिए गए, वहीं मेवात में मारे गए जुनैद और नासिर के परिवारों को महज 5-5 लाख रुपये दिए गए. अब तक, कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने बैलेंस बनाए रखा है. अभियान के दौरान, कांग्रेस के शीर्ष दो नेताओं सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने कई मंदिरों और मठों का दौरा किया, जबकि भगवान को मानने को लेकर सिद्दारमैया की छवि अलग थी. हालांकि, हिंदू प्रतीकवाद ने अभियान के वादों को प्रभावित नहीं किया क्योंकि उन्होंने कहा कि वे बजरंग दल पर प्रतिबंध लगा देंगे और हिजाब से पाबंदी हटा देंगे. 2020 दिल्ली चुनाव, 2021 पश्चिम बंगाल चुनाव, 2022 हिमाचल प्रदेश चुनाव और हाल ही में कर्नाटक चुनाव के नतीजे बताते हैं कि विपक्ष की यह रणनीति कम से कम राज्य स्तर पर अच्छी तरह से काम कर रही है. हिंदू प्रतीकवाद पर जोर कुछ हद तक भाजपा के विपक्ष के हिंदू विरोधी होने के आरोप की धार को पछाड़ रहा है. विपक्षी दलों को उनकी आक्रामक कल्याणकारी और गरीब-समर्थक नीतियों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद कर रहा है. देखना होगा कि क्या यह राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो पाता है?
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