2020 में हिमालय ग्लेशियर्स पर अध्ययन करने वाली एकमात्र संस्था ‘’सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी’’ को मोदी सरकार ने बंद कर दिया था.
7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के चमोली में आई आपदा से 10 से ज्यादा गांव तबाह हो गए थे. इस दौरान इस इलाके में कई प्रोजेक्ट पर काम रहे लोग पानी के तेज बहाव के साथ आए मलबे की चपेट में आ गए.
इस आपदा में दुर्भाग्यवश कई लोगों को जान गंवानी पड़ी, इनमें से ज्यादातर मजदूर थे. आपदा को आए एक हफ्ते से ज्यादा हो चुका है और अब भी करीब 150 लोग लापता हैं.
ग्लेशियर फटने की ये घटना भूस्खलन की वजह से हुई थी. भौगोलिक रूप से, हिमालय युवा और अस्थिर पर्वत हैं. देहरादून में स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जिओलॉजी, हिमालयन पर्वत ऋंखला से संबंधित अध्ययन और अनुसंधान करने वाला एक नोडल इंस्टीट्यूट है. 2017 में इस संस्था के वैज्ञानिकों ने केंद्र और राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध तरीके से स्थापित हो रहे ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रक्टर प्रोजेक्ट पर रोक लगाने का सुझाव दिया गया था.
मनमोहन सिंह सरकार में हिमालय इकोलॉजी को संरक्षित करने की परियोजना
2002 में योजना आयोग ने हिमालयन ग्लेशियर्स पर एक सब कमेटी का गठन किया था. इस सब कमेटी ने उत्तराखंड में एक ग्लेसिओलॉजी सेंटर स्थापित करने का सुझाव दिया था, जो कि ग्लेसिओलॉजी के क्षेत्र में आगे चलकर एक बड़ी अनुसंधान संस्था के रूप में जाना जाएगा. तत्कालीन केंद्र सरकार ग्लेशियल हाइड्रोलॉजी, मास बैलेंस, ग्लेशियल डायनामिक्स, ग्लेशियल हैजर्ड के साथ इंटीग्रेटेड ग्लेशियल प्रोसेस के क्षेत्र में एक रिसर्च कराना चाहती थी. इस कमेटी ने ग्लेसिओलॉजी के क्षेत्र में एक निगरानी स्टेशन की स्थापना का सुझाव दिया था, जिससे कि हाई क्वालिटी का डेटा प्राप्त किया जा सके. उस समय देश में ग्लेसिओलॉजी के क्षेत्र में काम करने वाला कोई विशेष संस्थान नहीं था. दुर्भाग्य की बात है कि इस योजना पर अमल नहीं किया गया.
जून 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (NAPCC) को लॉन्च किया था.
इस योजना का उद्देश्य अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता को कम करना और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करके अनुकूल बनाने पर था. इस योजना में 8 मिशन शामिल थे.
नेशनल मिशन फॉर स्टेनेबल हिमालयन इकोसिस्टम (NMSHE) यह उन 8 मिशनों में से एक था. NMSHE का पूरा फोकस हिमालयन इकोसिस्टम पर था.
NMSHE उन 8 मिशनों में से एक था जो कि विशेष तौर पर जियोग्राफी से संबंधित था. NAPCC प्लान का हिस्सा होने और इसे योजना आयोग की अनुशंसा पर आगे ले जाने के लिए, डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी ने यह तय किया कि हम देहरादून और मसूरी के क्षेत्र में सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी की स्थापना करेंगे. शुरुआत में WIHG, इस नई संस्था की निगरानी करेगा, जो कि आगे चलकर नेशनल सेंटर फॉर हिमालयन ग्लेसिओलॉजी के रूप में विकसीत होगा.
ग्लेसिओलॉजी सेंटर का महत्व
मनमोहन सिंह सरकार में साइंस और टेक्नोलॉजी मिनिस्टर रहते हुए हम ने देहरादून में 4 जुलाई 2009 को सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी का उद्घाटन किया. इस अवसर पर WIHG के निदेशक और डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सेक्रेटरी उपस्थित रहे. सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी में हिमालय पर्वत ऋंखलाओं से जुड़े अध्ययन और अनुसंधान जैसे विषयों को लेकर समर्पित वैज्ञानिकों की एक टीम को तैनात किया गया. यह केंद्र विशेष रूप से माउंटेन हैर्जड्स (पहाड़ से संबंधी खतरे) से संबंधित रिसर्च करता था, जिसमें ग्लेशियल हैजर्ड, ग्लेशियल के फटने से आने वाली बाढ़ और भूस्खलन से आने वाली बाढ़ से संबंधित विषयों पर ध्यान केंद्रित था.
28 फरवरी 2014 को कैबिनेट ने ‘’मिशन ऑन सस्टेनिंग हिमालयन इकोसिस्टम’’ को मंजूरी दी थी. इस योजना को 550 करोड़ के फंड के साथ 12वीं पंचवर्षीय परियोजना में स्वीकृत किया गया था.
डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी को NMSHE के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इसके अलावा मसूरी में इस केंद्र को विकसित करने के लिए एक 50 एकड़ की जमीन तैयार की गई थी.
मोदी सरकार के फैसले से निराशा
2017 में सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी के वैज्ञानिकों ने हिमालय में आई बाढ़ पर एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी थी. इस रिपोर्ट में वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने हिमालय क्षेत्र में नए पॉवर प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दिए जाने के फैसलों पर चिंता जताई थी. हालांकि जुलाई 2020 में मोदी सरकार ने सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी को बंद कर दिया. इस संबंध में डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सेक्रेटरी ने 25 जून 2020 को पत्र भेजा था. इसके बाद ग्लेसिओलॉजी से संबंधित गतिविधियां WIHG में पूर्ण रूप से बंद हो गई थी.
क्या यह फैसला खर्चों को कम करने के उद्देश्य से लिया गया था, या फिर दिल्ली में बैठे नेताओं ने वैज्ञानिकों की रिपोर्ट की अनदेखी की?
मोदी सरकार का ये फैसला न केवल विज्ञान विरोधी रहा बल्कि लाखों लोगों के जीवन को खतरे में डालने वाला भी रहा. उत्तर-पूर्व के राज्यों में करीब 9500 ग्लेशियर हैं जो कि अलग-अलग साइज के हैं. ये ग्लेशियर्स जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में फैले हुए हैं. गंगा बेसिन में 1578 ग्लेशियर हैं जो कि करीब 3.78 लाख स्क्वेयर किलोमीटर के क्षेत्र को को कवर करते हैं.
इसके अलावा बचे हुए 8 हजार ग्लेशियर इंडस बेसिन के हिस्से हैं जो कि 36 हजार 431 स्क्वेयर किलोमीटर के क्षेत्र को कवर करते हैं. जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार ज्यादातर ग्लेशियर अपने स्थान से पीछे हट रहे हैं या खतरनाक स्थिति में हैं.
विज्ञान और पर्यावरण के प्रति उदासीनता
2010 में पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए डिस्क्शन पेपर के अनुसार, ग्लेशियर के हटने की वार्षिक दर करीब 5 मीटर है. लेकिन कुछ ग्लेशियर्स जैसे पिंडर ग्लेशियर में यह दर वार्षिक दर से अधिक, लगभग 8-10 मीटर तक है. यह स्थिति हमारे लिए बहुत ही चिंताजनक है.
लेकिन इन सबके बावजूद, मोदी सरकार ने हिमालयन ग्लेशियर्स से संबंधित अध्ययन करने वाले संस्थान को बंद कर दिया.
इससे पता चलता है कि सरकार ने वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट की अनदेखी की है. अहम सवाल है कि क्या सेंटर फॉर ग्लेसिओलॉजी तपोवन त्रासदी का अनुमान पहले से लगा सकता था? लेकिन मौजूदा सरकार की बुनियादी साइंस एंड रिसर्च को लेकर उदासीनता और लापरवाही वाला रवैया देश को महंगा पड़ सकता है.
(पृथ्वीराज चव्हाण महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री हैं. @prithvrj उनका ट्विटर हैंडल है. इस ओपिनियन पीस में लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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