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महाराष्ट्र-हरियाणा और उपचुनावों के नतीजे ‘विजयरथ पर लगाम’- 6 सबक

असली नतीजों ने जोरदार तरीके से सारे आंकड़ों को नकार दिया

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भारत के मतदाता हमारी सोच से भी ज्यादा समझदार हैं. जब भी आपको ये लगने लगता है कि आपने उनका दिमाग पढ़ लिया है और अपनी मर्जी से उनका इस्तेमाल कर सकते हैं, एक गुगली (क्रिकेट की ये उपमा ये साबित करने के लिए है कि आप भारतीय मतदाता को हल्के में नहीं ले सकते) आपका विकेट उड़ा ले जाती है.

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हर किसी ने ये सोचा था कि बीजेपी गठबंधन महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में अपने विरोधियों नेस्तनाबूद कर देगा. सत्ताधारी दल, राजनीतिक पंडित और चुनाव विश्लेषकों ने एक साथ एक स्वर में बीजेपी गठबंधन को महाराष्ट्र में 225+ और हरियाणा में 75+ सीटें दे दी थीं, जो कि हैरतअंगेज तौर पर दोनों चुनावों में तीन चौथाई बहुमत से कहीं ज्यादा साबित होता.

लेकिन असली नतीजों ने जोरदार तरीके से सारे आंकड़ों को नकार दिया. ये परिणाम 2014 के राज्य चुनावों में हासिल सीटों के मुकाबले 10 फीसदी कम थे, चौंकाने वाली बात ये रही कि ठीक पांच महीने पहले हुए 2019 आम चुनाव के मुकाबले गठबंधन को 25-50 फीसदी तक नुकसान हुआ. और भी बुरा ये (विरोधियों के नजरिए से देखा जाए तो अच्छा) कि अब तक ‘अजेय’ माने जाने वाले धुरंधरों को अपने गढ़ में ही झटके लगे – जैसे कि मोदी/शाह को गुजरात में, नीतीश कुमार को बिहार में, एमके स्टालिन को तमिलनाडु में और सुखबीर बादल को पंजाब में.

मुझे मालूम है इस तरह के विपरीत नतीजों वाले चुनाव के बाद ‘मील का पत्थर’, ‘गेम चेंजर’ और ‘वॉटरशेड’ (ऐतिहासिक) जैसे विशेषण खूब इस्तेमाल किए जाते हैं. सावधानी बरतने के बावजूद मैं इस हफ्ते के लेख को ‘विजयरथ पर लगाम’ कहना चाहूंगा. मेरे छह ‘दृष्टिकोण’ कुछ इस तरह से हैं.

पहला: ‘मोदी डेल्टा’ यानी 12%, शायद 15% वोट

हम सभी लगातार एक अजीबोगरीब हालात से जूझ रहे हैं – जब भी मतपत्र पर प्रधानमंत्री मोदी का नाम होता है (मतलब जब मतदाता सीधे मोदी को जनादेश दे रहा होता है) बीजेपी का वोट शेयर विशेष तौर बहुत ज्यादा होता है. यही वोट शेयर नाटकीय रूप से गिर जाता है जब मोदी विधान सभा चुनावों में अपनी पार्टी के लिए जनादेश मांग रहे होते हैं.

पीएम मोदी के पहले शासनकाल में मैंने गलती से इस ‘मोदी डेल्टा’ के 5+ फीसदी होने का अनुमान लगाया था, जिसकी वजह से 2019 में उनकी जीत का अंदाजा लगाने में बड़ी चूक हुई. मैंने उन्हें पूरे देश के हिसाब से 32% वोट शेयर दिया था, जबकि मई 2019 के नतीजों में मोदी ने करीब 38% वोट हासिल किए. अब पिछले अनुभव के आधार पर और दो लोकसभा चुनाव और 14 विधानसभा चुनावों (जिसमें 2014 और ताजा महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव भी शामिल हैं) के आंकड़ों के अंतर को देखते हुए ऐसा लगता है कि ‘मोदी डेल्टा’ 12% के करीब पहुंच गया है, जो शायद 15% भी हो सकता है.

मतलब अगर बीजेपी किसी विधानसभा चुनाव में 35% हासिल करती है तो राष्ट्रीय चुनाव में उसे 47-50% वोट मिल सकते हैं क्योंकि तब मतपत्र पर पीएम मोदी का नाम होता है.

किसी भी चुनावी लोकतंत्र में विरोधाभास से भरा ये सच अभूतपूर्व है.

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दूसरा: ‘कांग्रेस की हार तय’ की धारणा निराधार

देश भर में कांग्रेस गठबंधन की स्थिति में आई चौंकाने वाली उछाल से पार्टी में यह यकीन जरूर बढ़ना चाहिए कि 2019 चुनाव के बाद हार मान लेने की प्रवृत्ति गैर-जरूरी थी. राष्ट्रीय स्तर पर 20% वोट शेयर पार्टी के लिए ‘हेल्थी मिनिमा’ (स्वस्थ न्यूनतम आंकड़ा) है जिस पर नई रणनीति के साथ पार्टी का राजनीतिक पुनरुद्धार मुमिकन है.

कांग्रेस उस आम मतदाता की जरूरत है जिसे राजनीति में विकल्प की तलाश है. इनमें उत्तरी, पश्चिम और मध्य भारत में मौजूद असंतुष्ट और गरीब मतदाता शामिल हैं. दुनिया के किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी के लिए लगातार दो चुनाव में हार कोई नई बात नहीं है, ये हार उस पार्टी के लिए पुनरुत्थान का मौका साबित हो सकती है, बशर्ते कि पार्टी चुनौतियों का डट कर मुकाबला करे, ना कि हार मान जाए. बेशक इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस क्षेत्रीय नेता – चाहे वो अमरिंदर सिंह हों या अशोक गहलोत या कमलनाथ या भूपेन्द्र हुड्डा या गठबंधन के साथी शरद पवार – की ताकत बढ़ाई जाए और ‘दिल्ली लीडरशिप’ की दखल कम हो.

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तीसरा: विधायकों की तादाद की अहमियत ज्यादा

अमूमन हम लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी की जीत के आंकड़े से उसकी ताकत का अंदाजा लगाते हैं. लेकिन इससे कहीं बेहतर मौलिक तरीका है ये जानना कि पार्टी के खाते में विधायकों की तादाद क्या है? ध्यान रहे कि एक सांसद औसतन 20 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि एक विधायक पर करीब इसके दसवें हिस्से यानी दो लाख लोगों का दायित्व होता है. इसलिए, विधायक की पकड़ उस क्षेत्र में मौजूद लोगों पर ज्यादा घनिष्ठ और मजबूत होती है.

पिछले 12 महीनों में यूपीए और दूसरी विपक्षी पार्टियों के खेमे में विधायकों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, खास तौर पर पंजाब, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा और दूसरे उपचुनाव में यही देखने को मिला है. ठीक से गिनती करें तो इन विधायकों की संख्या 200+ या पहले के मुकाबले 20% ज्यादा हो सकती है.

ये गैर-एनडीए पार्टियों को एक मजबूत आधार देता है, जिस पर वो दोबारा अपना राजनीतिक भविष्य संवार सकते हैं.
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चौथा: राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अहमियत घटी

अब सत्ताधारी और विपक्ष दोनों खेमों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और नफरत या ध्रुवीकरण की राजनीति से दूरी बना लेनी चाहिए. साफ तौर पर, गिरती आर्थिक हालत और बेरोजगारी की मार झेल रहे मतदाताओं पर ना तो बालाकोट हमला, ना ही अनुच्छेद 370 के खात्मे की राष्ट्रवादी अपील – या अवैध घुसपैठियों की हत्या कर बंगाल की खाड़ी में फेंकने की धमकी – जैसे मुद्दों का कोई असर हुआ. इसलिए, गैर-राष्ट्रीय चुनावों में इन मुद्दों के आधार पर सियासी तानाबाना तैयार करना घाटे का सौदा साबित होता है.

अगर सत्ताधारी दल इन मसलों को हवा देते हैं, जनता से उनकी दूरी बढ़ती है, उनकी साख गिरती है. और अगर विपक्षी पार्टियां भी ऐसे ही मुद्दे उछाल कर बराबरी की कोशिश करती है तो ना सिर्फ माहौल बिगड़ता है बल्कि रोजी-रोटी के मुद्दों से ध्यान भटकता है. इसलिए वक्त आ गया है कि दोनों पक्ष लोगों को बांटने की राजनीति से बचें. जरूरत इस बात की है कि अब अर्थव्यवस्था के मुद्दों पर ध्यान दिया जाए.

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पांचवां: जनता को हमेशा झांसा नहीं दे सकते दलबदलू नेता

क्या आप बता सकते हैं कि पिछले हफ्ते के चुनाव के असली नाम कौन थे? नहीं, ना तो वो देवेन्द्र फडणवीस थे, ना ही मनोहर लाल खट्टर. ये थे तीन अपेक्षाकृत साधारण स्थानीय नेता उदयनराजे भोसले (पूर्व सांसद, एनसीपी), अल्पेश ठाकोर (पूर्व विधायक, गुजरात कांग्रेस), धवलसिंह जाला (पूर्व विधायक, गुजरात कांग्रेस) और मुट्ठी पर दूसरे दलबदलू नेता जिन्होंने जीत की उम्मीद में बीजेपी या शिवसेना का दामन थाम लिया. लेकिन जागरूक मतदाताओं ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

उदयनराजे भोसले की मिसाल तो अद्भुत है. मई 2019 में शरद पवार के आशीर्वाद से सतारा सीट से चुनाव लड़े और मोदी की सुनामी के खिलाफ भी तैर कर पार लग गए.

लेकिन चार महीने के अंदर अपने गुरू को झटका देते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ दी और बीजेपी के रथ पर सवार हो गए, इस अहंकारी आत्मविश्वास के साथ कि दोबारा चुना जाना तो पक्का है. लेकिन सतारा की जनता ने उन्हें पवार की पीठ में छुरा भोंकने की सजा दी और 85 हजार वोटों से करारी शिकस्त दे दी. गुजरात में अल्पेश ठाकोर और धवलसिंह जाला का हश्र भी ऐसा ही रहा, दोनों ने 2018 के चुनाव में ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की हवा का फायदा उठाकर जीत हासिल की, बाद में उस पार्टी से हाथ मिला लिया जिसे दिन-रात कोसते थे. लिहाजा, गुजरात के संवेदनशील मतदाताओं ने उन्हें हमेशा याद रहने वाली सजा दे दी.

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छठा: जेल का मतलब सियासी सितारा चमकना

अंत में, मोदी सरकार को 1977/78 के शाह कमीशन की मूर्खता को जरूर ध्यान में रखना चाहिए, जिसने अकेले दम पर बुरी तरह हार चुकी इंदिरा गांधी की राजनीतिक यात्रा को पुनर्जीवित कर दिया था. सही हो या गलत, हमारे देश का मतदाता सामंती है और वो ‘मिट्टी के लाल’ राजनेताओं को लेकर बेहद भावुक है. अगर मतदाताओं को लगता है कि उनके चेहते नेता के साथ नाइंसाफी हो रही है या उन्हें ‘जानबूझकर’ परेशान किया जा रहा है, फिर उनकी सहानुभूति की लहर अपने चरम पर पहुंच जाती है.

देखिए शरद पवार के साथ क्या हुआ? मराठा के वोट डालने से पहले प्रवर्तन निदेशालय ने उनके खिलाफ केस दर्ज किया, लेकिन शरद पवार की सियासी ताकत ने उल्टा आसमान छू लिया. हरियाणा में भूपेन्द्र हुड्डा केन्द्रीय जांच एजेंसियों के हमलों का सामना करते रहे और ‘सच्चा जाट’ – दुश्मनों के दांत खट्टे करने वाला- बनकर उभरे.

मुझे आशंका है कि ‘जेल से जंग के लिए तैयार’ डीके शिवकुमार जब कर्नाटक की लड़ाई में कूदेंगे तो कुछ ऐसा ही होने वाला है, जहां 6 हफ्ते के अंदर 15 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में बीजेपी सरकार का भविष्य तय होने वाला है.

सबक साफ है: सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग दोधारी तलवार के वार की तरह कई बार उल्टा पड़ सकता है. इसलिए उन पर नकेल कसना जरूरी है.

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