महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण (Maratha Reservation) का मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में है. एक मराठा युवा मनोज जरांगे पाटील (Manoj Jarange Patil) ने आरक्षण के लिए जालना जिले में अपना अनिश्चितकालीन अनशन शुरू किया तो एकनाथ शिंदे सरकार घिरती दिखाई दी. सरकार को आखिर में झुकना पड़ा और उसने जरांगे पाटील की मांग के अनुसार उन मराठों को कुनबी जाति (OBC) प्रमाणपत्र देने का आदेश जारी किया है जिनके पास 'निजाम युग' के कुनबी जाति का सर्टिफिकेट है.
ऐसे में बीजेपी-प्रभुत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के लिए आगे की राह चुनौतियों से भरी है. माना जा रहा है कि मामला इतना नाजुक है कि अगर सही से नहीं संभाला गया तो, चीजों और ज्यादा खराब हो सकती हैं.
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव नजदीक होने और उसके बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
मराठा आंदोलन और जालना में लाठीचार्ज
पिछले हफ्ते मराठवाड़ा के जालना जिले में मराठों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ. इस घटना ने संवेदनशील मामले पर फिर से चर्चा गर्म कर दी और इस पर राजनीति भी शुरू हो गई. उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस के माफी मांगने के बावजूद मामला शांत नहीं हुआ.
यह समस्या महाराष्ट्र की 12.5 करोड़ आबादी में से लगभग 32 फीसदी आबादी से जुड़ी हुई है. इसके लिए राज्य सरकार के पास कोई ऐसा समाधान नहीं नजर आ रहा, जो जल्दी हो सके. राजनीति में दबदबा रखने वाली प्रमुख जाति सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर कोटा की मांग कर रही है.
अब तक की लंबी कानूनी प्रक्रिया और राजनीतिक विचार-विमर्श के बावजूद कोई आसान हल नहीं निकल पाया है.
विरोधाभास यह है कि राज्य में सभी प्रमुख राजनीतिक दल मराठों के लिए आरक्षण का समर्थन करते हैं. इसकी पहुंच और प्रभाव को देखते हुए, अभी भी कोई अच्छा रास्ता नहीं दिख रहा है. एक-दूसरे को हराने के खेल में राजनीतिक दल इस मुद्दे पर खूब राजनीति करते हैं.
मराठा आरक्षण क्यों लागू किया गया?
महाराष्ट्र ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि मराठा परिवारों के बीच लोन लेने की रवायत और घटती आय की वजह से आत्महत्या की घटनाओं में बढ़ोतरी जैसी "असाधारण स्थितियां" सोशली एंड इकोनॉमिकली बैकवर्ड क्लासेस एक्ट 2018 (SEBC एक्ट 2018) को सही ठहराती हैं.
यह एक्ट महाराष्ट्र के राज्य शैक्षणिक संस्थानों और पब्लिक सर्विस में नियुक्तियों में मराठों के लिए 16% आरक्षण प्रदान करता है. लेकिन इसकी वजह से आरक्षण प्रस्तावित कोटे से अधिक हो गया.
तर्क यह था कि दशकों तक इस ग्रुप को पिछड़ा नहीं मानने की वजह से इसके सदस्य सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन में चले गए हैं.
भले ही राज्य के ज्यादातर मुख्यमंत्री मराठा रहे हैं, समुदाय का एक वर्ग शहरीकरण और वैश्वीकरण के बदलते वक्त और शिक्षा की कमी की वजह से तालमेल बैठाने में फेल रहने के कारण परेशानी का सामना कर रहा है.
कम शब्दों में कहा जाए तो, 'धनवान' थे, लेकिन 'कम पैसे वाले लोग' दिन-ब-दिन बढ़ रहे थे, खासकर कृषि संकट के वक्त में ग्रामीण इलाकों में.
SC ने पलटा सरकार का फैसला
इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने अपने उस फैसले की दोबारा जांच करने से इनकार कर दिया, जिसके द्वारा उसने मराठों को आरक्षण देने के लिए महाराष्ट्र के कानून को असंवैधानिक घोषित किया था. कोर्ट ने कहा था कि इस मुद्दे पर उसके 2021 के फैसले में कोई गलती नहीं थी.
सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई 2021 को अपना फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा को पार नहीं किया जाना चाहिए. चाहे मराठों के पिछड़ेपन की जांच करने वाला गायकवाड़ आयोग हो, बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला हो या SEBC एक्ट- सभी इस सीमा के अपवाद के अंतर्गत आने के लिए एक 'असाधारण स्थिति' साबित करने में फेल रहे.
राज्य सरकार ने कहा है कि वह कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए क्यूरेटिव पिटीशन फाइल करेगी. ऐसी याचिकाएं दायर होने और सुनवाई होने के मामले बहुत कम हैं.
एक वर्ग का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकार द्वारा दिए गए आरक्षण को रद्द करने के बाद, उसके पास केवल एक विकल्प मराठों को OBC कैटेगरी में शामिल करना है, जिसका मौजूदा OBC कैटेगरी में जातियां कड़ा विरोध कर रही हैं.
महाराष्ट्र में OBC भी बड़ी संख्या में हैं. लेकिन जब 1 मई 1960 को तत्कालीन बॉम्बे स्टेट दो भागों- महाराष्ट्र और गुजरात में बंटा तो महाराष्ट्र में मराठे प्रभुत्व में आ गए. इस कारण OBC सत्ता में उचित हिस्सेदारी पाने में असफल रहे हैं.
पर्यवेक्षकों का मानना है कि अगर मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से नहीं संभाला गया तो OBC और मराठों के बीच टकराव नहीं रोका जा सकेगा.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि जब तक केंद्र प्रभावी ढंग से कदम नहीं उठाता, समाधान संभव नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उठाए गए मुद्दों को केवल केंद्र द्वारा ही संबोधित किया जा सकता है.
मुद्दे पर सियासी रस्साकशी
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के नेता शरद पवार ने मांग की है कि केंद्र कोटा पर 50 फीसदी की सीमा को हटा दे और ज्यादा समुदायों को समायोजित करने के लिए इसे 15-16 प्रतिशत तक बढ़ा दे. उनका कहना है कि OBC आरक्षण के हिस्से के रूप में कोटा देने से पिछड़े वर्गों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
महाराष्ट्र के एक प्रमुख वकील असीम सरोदे को मराठा आरक्षण मुद्दे पर राजनीति की गंध आ रही है. उन्होंने सोशल मीडिया पर आश्चर्य जताते हुए कहा कि क्या इस मुद्दे के जरिए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए कुछ बहाने खोजे जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए था क्योंकि राज्य सरकार इस मामले को सुलझाने के लिए बहुत कम कोशिश कर सकी. यह केंद्र की जिम्मेदारी थी कि वह संविधान संशोधन लेकर आए.
राज्य कांग्रेस प्रमुख नाना पटोले इस मुद्दे पर चर्चा के लिए इस महीने संसद का विशेष सत्र बुलाना चाहते हैं. पटोले अन्य विपक्षी नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए कहते हैं कि बीजेपी के पास पिछले नौ सालों से केंद्र में बहुमत वाली सरकार है और वह मराठा समुदाय को आरक्षण देने के लिए जरूरी संशोधन कर सकती थी.
जारांडे पाटिल की मांग और शिंदे सरकार की सहमति
इस मुद्दे पर ध्यान तब गया, जब एक मराठा युवा मनोज जरांगे पाटील ने जालना जिले में अपना अनिश्चितकालीन अनशन शुरू किया. वे मराठवाड़ा इलाके में मराठों को 'कुनबी' का दर्जा बहाल करने की मांग कर रहे हैं.
उनका तर्क है कि कुनबी, जो हैदराबाद इलाके में रह गए, उन्हें ओबीसी आरक्षण का लाभ मिलता है.
जहां जरांगे पाटील आंदोलन कर रहे थे वहां 1 सितंबर को पुलिस की सख्ती के बाद यह आंदोलन पूरे राज्य में फैल गया. आखिर में शिंदे सरकार झुकी और गुरुवार को 'निजाम युग' के कुनबी जाति (ओबीसी) दस्तावेजी प्रमाण वाले लोगों को कुनबी जाति प्रमाणपत्र देने का आदेश जारी किया. इसका मतलब यह होगा कि कुनबी जाति प्रमाण के साथ मराठा ओबीसी आरक्षण के लिए पात्र होंगे.
महाराष्ट्र में आरक्षण के लिए कब-कब हुई जंग?
9 जुलाई 2014 को महाराष्ट्र ने मराठा समुदाय को शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में 16 फीसदी आरक्षण देने वाला एक अध्यादेश जारी किया. इसके बाद 'मराठा आरक्षण' की मांग को लेकर दशकों तक विरोध प्रदर्शन हुआ.
14 नवंबर 2014 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने अध्यादेश के लागू होने पर रोक लगाते हुए एक अंतरिम आदेश जारी किया. इसको दी गई चुनौती को सुप्रीम कोर्ट ने उसी साल 18 दिसंबर को खारिज कर दिया था.
इसके बाद, महाराष्ट्र ने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम, 2014 लागू किया. इसने शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को 16 फीसदी आरक्षण दिया, जिनमें मराठा समुदाय भी गिना जाता था.
7 अप्रैल 2016 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने अध्यादेश के समान होने की वजह से अधिनियम के लागू होने पर रोक लगा दी.
4 जनवरी 2017 को महाराष्ट्र राज्य सरकार ने महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की एक अधिसूचना जारी की.
जस्टिस गायकवाड़ की अध्यक्षता वाले आयोग ने शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक सेवाओं में नियुक्तियों में मराठों के लिए क्रमशः 12 फीसदी और 13 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की.
आयोग की सिफारिशों पर महाराष्ट्र ने 29 नवंबर 2018 को SEBC अधिनियम, 2018 पारित किया. यह अधिनियम प्रस्तावित कोटा से ज्यादा है, जो महाराष्ट्र के राज्य शैक्षणिक संस्थानों और पब्लिक सर्विस में नियुक्तियों में मराठों के लिए 16 फीसदी आरक्षण देता है.
अधिनियम की संवैधानिक वैधता को कई अन्य रिट याचिकाओं के साथ तीन प्रमुख याचिकाओं द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी.
संवैधानिक एक्सपर्ट्स चेतावनी देते रहे हैं कि अगर एक समुदाय को इस तरह का कोटा दिया जाता है, तो इससे अन्य राज्यों में प्रमुख जातियों के पक्ष में आरक्षण के रास्ते खुल जाएंगे. उनका तर्क है कि अगर 50 फीसदी आरक्षण से आगे जाने की तमिलनाडु जैसी कोई वैध वजह होती, तो इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला जा सकता था.
(सुनील गाताडे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के पूर्व एसोसिएट एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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