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'लक्ष्मण रेखा' करोगे पार तो नहीं बचेगी सरकार

गलत हैं वो सियासी पंडित जो कहते हैं भारतीय राजनीति में विचारधारा का कोई मोल नहीं रह गया है?

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“विचारधारा भारतीय राजनीति में मायने नहीं रखती". यह बात मीडिया पंडितों, सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट और अकेडमिक एक्सपर्ट बार-बार बहुत निराशा और कुछ नहीं हो सकता के भाव से दोहराते रहे हैं.

“भारतीय नेता इतने मौकापरस्त हैं कि सत्ता और पैसे की लालच उनके किसी भी वैचारिक कमिटमेंट को खत्म कर सकता है. विचारधारा जाए भाड़ में, अगर कुछ मायने रखता है तो वो है सिर्फ अपना फायदा.” ये लाइनें इतनी गहन भरोसे के साथ कही जाती हैं, जैसे कि ये सबसे बड़ा ज्ञान हो.

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दरअसल, महाराष्ट्र में अभी जो प्रकरण हुआ है वो इस तरह के ‘सिद्धांत’ का सबसे सही प्रमाण है. जब उद्धव ठाकरे ने शरद पवार और सोनिया गांधी जैसे कट्टर सियासी विरोधियों के साथ हाथ मिलाया तो, इसे 'बेईमान गठबंधन' का नायाब नजीर बताया गया. और अब, जब ठाकरे को उनके 'लालची' गुर्गे ने गिरा दिया है, तब वो भी उसी राजनीतिक सिद्धांत की पुष्टि करता है. लेकिन क्या यह थोड़ा अजीब नहीं लगता? चित भी मेरी, पट भी मेरी?

जरा याद कीजिए सन 1977 की कहानी

मैं महाराष्ट्र पर लौटूंगा लेकिन पहले मेरा दिल दिमाग जरा पीछे घुमकर 1977 में हुई घटनाओं की तरफ जाता है जब मुझे थोड़ी सियासी समझ आई ही थी. इंदिरा गांधी ने अप्रत्याशित तौर पर इमरजेंसी को हटा दिया और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शुरू कर दिया. तब उनके खिलाफ लोगों का जो दबा हुआ गुस्सा था उसे भांपने में वो पूरी तरह से नाकाम रही थीं. इंदिरा के राजनीतिक विरोधी जो 18 महीने के कैद से बाहर निकले उन्होंने उनके सामने जबरदस्त चुनौतियां पेश कर दीं. शक्तिशाली इंदिरा गांधी को हराया जा सकता था, अगर वो एकजुट होकर लड़ते.

लेकिन इसमें एक समस्या थी. वैचारिक तौर पर, आधा दर्जन के करीब विपक्षी दल पूरी तरह से अलग थे, यहां तक कि विरोधी भी. स्वतंत्र पार्टी के खुले बाजार नीति वाले लिबरल्स. कांग्रेस से नाराज मध्यममार्गी पूर्व कांग्रेसी जो इंदिरा गांधी से अलग होकर एंटी इंदिरा गुट में थे, एंटी कांग्रेस, एंटी संघ लोहियावादी समाजवादी. परंपरावादी आरएसएस समर्थित जन संघ, और कई अन्य वामपंथी और लेबर यूनियन वाले.

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फिर भी उस समय की राजनीतिक मजबूरी बहुत गंभीर थी. सभी ने अपनी विचारधाराओं को ना सिर्फ ठंडे बस्ते में डाला. बल्कि भंग भी कर दिया और 'एकजुट' जनता पार्टी बनाया. इसका अंकगणित और उस वक्त जो हवा चल रही थी वो अजेय थी. इंदिरा गांधी की सत्तारूढ़ कांग्रेस का ना सिर्फ सफाया हुआ. पश्चिम-उत्तर-पूर्व में इसे कामयाबी मिली, हालांकि विंध्य के दक्षिण में इंदिरा को जीत मिली.

अजीब गठबंधन का अंत

लेकिन जीत की ये खुमारी जल्द टूट गई. सबसे पहले तत्कालीन जनसंघ और आरएसएस के सदस्यों की 'दोहरी सदस्यता' के मुद्दे पर. शीघ्र ही, क्षुद्र अहंकार, महत्वाकांक्षाओं और विश्वासों ने लाखों नई बगावत पैदा कर दी. भानुमति का कुनबा जनता सरकार ढेर हो गई. इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने किसानों के दिग्गज नेता चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में नई सरकार का समर्थन किया. यह एक विलक्षण स्थिति थी. लेकिन यह ‘अपवित्र गठबंधन’ भी संसद में पास होने से पहले बिखर गया क्योंकि चौधरी चरण सिंह ने फ्लोर टेस्ट से पहले इस्तीफा दे दिया.

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1989 ने तारीख को दोहराया

एक दशक बाद ही, भारत एक और ‘जोरदार गठबंधन’ के लिए तैयार था जब 1989 में 'मौकापरस्त' वीपी सिंह ने समाजवादियों और पूर्व कांग्रेसियों को मिलकार जनता दल बनाया. इस बार दक्षिणपंथी और वामपंथी, यानी BJP और कम्युनिस्ट सरकार में शामिल नहीं हुए लेकिन वीपी सिंह को 'बाहर' से समर्थन देकर खड़ा कर दिया. राजीव गांधी की पराजित कांग्रेस अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत से बहुत कम थी, इसलिए विपक्ष में बैठ गई.

लेकिन फिर '1977 के संकट' ने दूसरे ‘जनता प्रयोग’ को फिर से प्रभावित कर दिया. BJP ने आडवाणी के राजनीतिक रथयात्रा से हिंदुत्व को हवा दी और वीपी सिंह ने मंडल के जातीय अंकगणित से जवाबी हमला किया. ये दो विचारधाराएं - एक जिसने भारत को एक अखंड हिंदू राष्ट्र के रूप में देखा, और दूसरी जिसने जातियों के आधार पर अलग/बंटा समाज का नेतृत्व किया, आपस में ही टकरा गईं. वामपंथी दल अपनी अडिग धर्मनिरपेक्षता पर टिके रहे. 11 महीनों के भीतर ही ‘एक और अपवित्र, असंगत राजनीतिक प्रयोग’ बिखर गया. 1979 में जो कुछ चौधरी चरण सिंह की सरकार में हुआ उसका एक असल रीप्ले बाद में चंद्रशेखर ने किया. राजीव गांधी के समर्थन के साथ प्रधानमंत्री बने लेकिन इस सरकार की नियती पहले से ही तय थी. वो छह महीने भी नहीं चली.

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1996 में ‘1989 वाले वीपी सिंह’ जैसा प्रयोग

लेकिन जो इतिहास से सबक नहीं लेते वो इसे दोहराने के लिए मजूबर होते हैं. साल 1996 में ‘1989 वाले वीपी सिंह’ जैसा प्रयोग का सियासी ढांचा खड़ा किया गया. इस बार लेफ्ट पार्टी के साथ कांग्रेस आई. और देवगौड़ा की अगुवाई वाली संयुक्त मोर्चा सरकार (जनता सरकार जैसा ही कुछ कुछ नाम) को ऑक्सीजन दिया. जबकि विपक्ष में बीजेपी बैठी. इस बार भी पहले से ही सबकुछ तय दिख रहा था क्योंकि यूनाइटेड फ्रंट की सरकार में शामिल दल जमीन पर कांग्रेस विरोधी रहे थे और वो रुख जारी रहा.

स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस ने दूसरी बार यूनाइटेड फ्रंट की सरकार को गिराया और इंदर गुजराल की सरकार बनवाई और फिर बाद में उनसे भी समर्थन लेकर सरकार गिरा दिया. दो और ‘एक्सीडेंटल प्राइमिनिस्टर’ चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर की लाइन में आ गए. इस तरह मतलब और मक्खन के लिए बना गठबंधन गिर गया.

लालू-नीतीश का अटपटा याराना

मैं यहां इतिहास के अपने ज्ञान को रोकना चाहूंगा लेकिन यहां एक और सनसनीखेज एपिसोड को बताए बिना बात पूरी नहीं होगी. साल 2015- सबसे बड़ा सियासी यू-टर्न लेते हुए बीजेपी को हराने के लिए नीतिश कुमार ने अपने धुरविरोधी रहे लालू यादव और कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया. ये अध्याय राजनीतिक विडंबना का सबसे बड़ा बिंदु था. क्योंकि दो नेता, जो एक-दूसरे के लिए सिर्फ अपशब्दों का इस्तेमाल करते थे, ने प्रधानमंत्री मोदी को हराने के लिए एक दूसरे को गले लगा लिया. बेशक यह टिक नहीं पाया. ऐसा चलता है नहीं और ये इतिहास से साबित भी हो चुका है. ज्यादा वक्त नहीं बीता था कि नीतीश अपने 'स्वाभाविक सहयोगी' बीजेपी के पास 'घर वापस' चले गए.

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तो क्या विचारधारा मायने नहीं रखती?

तो क्या अब भी हम कह सकते हैं कि "भारतीय राजनीति में विचारधारा मायने नहीं रखती है"? ऐसा निष्कर्ष निकलना जल्दबाजी और सियासी समझ की कमी होगी. दुनिया में कहीं भी दूसरे नेताओं की तरह, भारतीय नेता भी 'लचीले' हैं, शायद दूसरों की तुलना में कुछ ज्यादा. अगर फायदा हो रहा है तो दूसरी विचारधाराओं से समझौता करने के लिए तैयार रहते हैं. लेकिन जब भी पूरी तरह से असंगत विचारधाराओं वाली पार्टियों ने जो दशकों से एक दूसरे दुश्मन हैं - एक अप्राकृतिक गठबंधन बनाने की कोशिश की है, यह टिकता नहीं .. कभी नहीं.

तो विचारधारा मायने रखती है. कुछ सीमाएं आप पार नहीं कर सकते. एक लक्ष्मण रेखा जिसके आगे जाना राजनीतिक विनाश तय है. ठीक ऐसा ही महाराष्ट्र में हुआ. ठाकरे परिवार ने लक्ष्मण रेखा को तब पार किया जब उन्होंने दो कांग्रेसी संरचना वाली पार्टियों के साथ गठबंधन का फैसला किया, जिनके साथ वे आधी सदी से खूनी रंजिश रखते हैं. वे इतिहास को दरकिनार कैसे कर सकते थे.. वो कर भी नहीं पाए.

मेरी अवधारणा पर अंतिम प्रहार सभी राजनीतिक गठजोड़ों के कड़े आलोचकों करेंगे, लेकिन वे जो कहते हैं वह ‘मान्य’ नहीं होगा:

''बीजेपी और शिवसेना कट्टरपंथी हैं, पॉलिटिक्ल एक्टिविस्ट नहीं.'' जवाब में मैं कहूंगा मुझे माफ करें लेकिन आप चाहें पसंद करें ना करें रूढ़िवादी, दक्षिणपंथी राजनीतिक लाइन एक वैध तर्क है. इसका मजाक उड़ाकर इसे ध्वस्त नहीं किया जा सकता है. इसे राजनीतिक रूप से लड़कर बेअसर करना होगा.

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इसी तरह कम्युनिस्टों की विचारधारा कई लोगों को पसंद नहीं आती है लेकिन फिर भी, यह तार्किक है.

इसके अलावा कांग्रेस और उसके क्षेत्रीय टूटे हुए गुटों के साथ मध्यमार्गियों के साथ. हो सकता है कि वे अक्सर अलग-अलग विचारों में फंसे रहते हों लेकिन मध्यमार्गी, उदारवादी राजनीतिक बात भी अपनी जगह पर सही है.

इसलिए आमफहम नजरिया के उलट मैं मानता हूं कि भारतीय राजनीति में एक दूसरे से मुकाबला करने वाली विचारधाराओं के लिए जगह है. तो जरूर कोई पार्टी विचारधार से समझौता कर सकती है, लेकिन जब वो लक्ष्मण रेखा पार करती है तो उसे नुकसान होता है. पार्टी जब त्वरित फायदे के लिए विचारधारा से समझौता करती है तो उसके कोर सपोर्टर और कार्यकर्ता विद्रोह कर देते हैं.

क्योंकि ये विचारधाराएं चाहे जैसी हों, भारतीय राजनीति में पूरी तरह से अप्रासंगिक नहीं हैं.

वैचारिक बंधनों को लापरवाही से नहीं छोड़ा जा सकता.

विचारधारा मायने रखती है.

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