पिछले महीने मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना, ‘मेक इन इंडिया’ के शुभारंभ को पांच वर्ष पूरे हो गए. जिम्मेदार नागरिकों के तौर पर हमारे लिए यह वक्त पीछे मुड़कर देखने और विचार करने का है कि इस “ऐतिहासिक” पहल का प्रदर्शन कैसा रहा? यह योजना एक बड़े आर्थिक परिवर्तन के वादे के साथ आई थी, लेकिन पिछली तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में महज 0.6 फीसदी की वृद्धि दर से यह तो स्पष्ट है कि अब कम लोग ही भारत में वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं.
पांच साल बाद हम देख सकते हैं कि पूरे भारत के उद्योग जगत में उथल-पुथल का माहौल है. देश की बिस्कुट बनाने वाली प्रमुख कंपनी पारले ने पिछले महीने नौकरियों में बड़ी कटौती की. टेक्सटाइल क्षेत्र में बांग्लादेश एक लीडिंग मैन्युफैक्चरर के रूप में अपनी स्थिती मजबूत कर रहा है, जबकि भारत का घाटा बढ़ता ही जा रहा है. अशोक लेलैंड और मारूती सुजूकी को अपने प्लांट समय-समय पर बंद करने पड़ रहे हैं. टाटा, जो साल 2008 में ‘मेक इन इंडिया’ के बगैर जगुआर और कोरस का अधिग्रहण कर रहे थें, को अपने जमशेदपुर यूनिट के ब्लॉक क्लोजर के लिए मजबूर होना पड़ा.
मेक इन इंडिया की शुरुआत सरकार ने बड़े ही धूमधाम से अपने लिए तीन ‘साध्य लक्ष्यों’ के साथ किया था:
- विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 12-14 फीसदी सालाना तक बढ़ाना.
- 2022 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी 16 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करना.
- 2022 तक विनिर्माण के क्षेत्र में 10 करोड़ रोजगार का सृजन करना.
ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए इनमें से एक भी लक्ष्य प्राप्त होता नहीं दिख रहा, क्योंकि:
- विनिर्माण विकास दर (कार्यक्रम की शुरुआत से पहले 10.2 फीसदी) पिछली तिमाही में गिरकर 0.6 फीसदी पर आ गई.
- जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी संकुचित है और 16.5 फीसदी पर स्थिर है.
- रोजगार की बात करें तो अब तक के दर्ज इतिहास में बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर है.
मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में भारतीय रिजर्व बैंक के हाल में जारी औद्योगिक संभावना सर्वेक्षण, बिजनेस में व्याप्त निराशा के संकेत देता है. सितंबर में समाप्त होने वाली पिछली तिमाही में व्यवसायिक माहौल, साल 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे खराब रहा, जिसमें विनिर्माण क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों के बुकिंग ऑर्डर में एक चौथाई की कमी आई.
उत्पादन के साथ भारतीय निर्यात में तेजी से वृद्धि की उम्मीद की गई थी, वास्तविकता इसके उलट है: रुपये की कीमत में गिरावट के बावजूद, निर्यात फीका पड़ा है. मोदी सरकार के पांच साल में कुल निर्यात 2,22,695 करोड़ रुपये से बढ़कर महज 2,34,425 करोड़ रुपये हुआ, जो कि सलाना वृद्धि के लिहाज से 1 फीसदी से भी कम है. जहां निर्यात स्थिर रहा, आयात में काफी वृद्धि हुई जिससे व्यापार घाटा और बढ़ता गया. इन पांच वर्षों में, चीन के साथ हमारा व्यापार संतुलन लगभग 50 फीसदी बढ़ा गया.
अब जबकि कुछ ही लोग भारत में बना रहे हैं, ज्यादा चिंता का विषय यह है कि इससे भी कम लोग भारत में निवेश करने के इच्छुक हैं. नया निजी निवेश 16 साल के निचले स्तर पर आ गया है. जुलाई-सितंबर 2019 की तिमाह में, एक साल पहले इसी तिमाही की तुलना में नई निवेश घोषणाएं 59 फीसदी कम रही.
रुकी हुई परियोजनाओं की संख्या ऐतिहासिक ऊंचाई पर हैं. जब हम इंडस्ट्रीज के वार्षिक सर्वेक्षण पर नजर डालते हैं तो यह खराब परिदृश्य और भी गंभीर हो जाता है.
इंडस्ट्रीयल ग्रॉस कैपिटल फॉर्मेशन (इंवेस्टमेंट) विकास दर, जो कांग्रेस की यूपीए सरकार में सालाना 19 फीसदी थी, अब गिरकर 0.66 फीसदी हो गई है. निवेश का गिरता स्तर भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास की कमी को दर्शाता है. माइक्रो, छोटे और मीडियम बिजनेस, जो विनिर्माण उत्पादन का लगभग 45 फीसदी हिस्सा हैं-और स्टार्ट अप्स, की हालत सबसे ज्यादा खराब रही है. माइक्रो, छोटे और मीडियम बिजनेस को धन संकट और कमजोर विकास का सामना करना पड़ रहा है. वहीं स्टार्ट-अप इंडिया कार्यक्रम ने केवल 129 कंपनियों के लिए धन प्राप्त किया है, जबकि इसके इंडिया हब के तहत लगभग 3 लाख कंपनियां रजिस्ट्रेड हैं.
यदि कोई मेक इन इंडिया की शुरुआत से पहले की अवधि के सभी प्रासंगिक सूचकांकों पर नजर डाले, तो वो पाएगा कि हमारी अर्थव्यवस्था विनिर्माण क्षेत्र में एक उभार के लिए तैयार थी. लेकिन आज, यह स्पष्ट है कि हमने वो अवसर खो दिया है और अब एक गहन समीक्षा के बाद इस कार्यप्रणाली में सुधार की तत्काल आवश्यकता है.
मेक इन इंडिया पर सबसे बड़ा प्रहार सरकार की तरफ से ही डीमॉनेटाइजेशन और जल्दबाजी में जीएसटी लागू करने की घोषणा के साथ किया गया था. व्यवधान, अनुपालन लागत में वृद्धि, और एक जटिल कर प्रणाली अर्थव्यवस्था में ठहराव लाती हैं. तभी से, खपत में तीव्र गिरावट (जो कि दो तरफा झटके का परिणाम है) ने औद्योगिक गतिविधि में और अधिक संकुचन के लिए बाध्य कर दिया.
क्या सरकार के उपाय पर्याप्त हैं?
इसमें कोई शक नहीं कि भारत के विनिर्माण क्षेत्र को तेजी से वृद्धि की आवश्यकता है. यह एक ऐसे देश के लिए एकमात्र विकल्प है जो अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का बेहतर उपयोग करना चाहता है. इस लक्ष्य के लिए हमें एक ठोस प्रयास की आवश्यकता होगी जिसमें महज ब्रांडिंग और सौंदर्यबोध की दृष्टि से तैयार किए गए क्रिएटिव से काम नहीं चलेगा.
अपने बजट भाषण और कई अतिरिक्त-बजटीय प्रेस वार्ता में, वित्त मंत्री ने विनिर्माण विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई उपायों की घोषणा की. पीएम मोदी ने कहा कि कॉरपोरेट टैक्स में कटौती से मेक इन इंडिया को बड़ी प्रेरणा मिलेगी और यह दुनिया भर से निजी निवेश को आकर्षित करेगा. लेकिन क्या ये पर्याप्त हैं?
विदेशी निवेशक "आने और मेक इन इंडिया" के आह्वान पर तभी ध्यान देंगे, जब सरकार अपने प्रयासों (गलत) को सही करने के प्रति गंभीर दिखाई दे.
बार-बार बदलाव हानिकारक
अगर भारत को अपने उद्यमियों में ऊर्जा का संचार करना है और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में उच्च विकास दर हासिल करनी है, तो जीएसटी प्रणाली को मौलिक रूप से सरल बनाने के साथ शुरूआत करनी होगी. और यह कर आतंकवाद को समाप्त करने के उद्देश्य के साथ होना चाहिए. क्योंकि भय के वातावरण में समावेशी धन सृजन नहीं हो सकता.
सरकार को जल्द से जल्द क्रेडिट संकट पर ध्यान देना चाहिए. इसके अलावा नीति बनाने में निरंतरता होनी चाहिए. परीक्षण और त्रुटि विधी को अब शासन व्यवस्था से जाना होगा. एक नीति की घोषणा और तीन सप्ताह बाद इसे बदलना मुसीबत को दावत देना है. निवेश को आकर्षित करने के लिए नियमों और अधिनियमों में बार-बार बदलाव हानिकारक हैं.
सरकार के लिए अच्छा होगा कि वह जाने-माने अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री, डॉ. मनमोहन सिंह की सलाह पर ध्यान दे, और रोजगार सृजन के क्षेत्रों में, विशेष रूप से माइक्रो, स्मॉल और मीडियम बिजनेस को प्राथमिकता देने पर विचार करे. माइक्रो, स्मॉल और मीडियम बिजनेस के निर्यातकों को प्रोत्साहन पैकेज दिया जाना चाहिए.
मेक इन इंडिया विफल हो गया है, यह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है. अब इसे सही करना सरकार पर निर्भर है, और बर्बाद करने का समय नहीं है.
(ललितेश पति त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से कांग्रेस विधायक रह चुके हैं. आकाश सत्यावली कांग्रेस के रिसर्च डिपार्टमेंट के साथ काम करते हैं.)
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