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ममता बनर्जी Vs अरविंद केजरीवाल: मोदी से मुकाबले के लिए कौन ज्यादा फिट?

केजरीवाल का दिल्ली में होना उन्हें लाइमलाइट में लाता है, लेकिन कांग्रेस के प्रति नजरिया ममता को बेहतर रखता है.

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एक खास टोटके के चलते भारत की क्षेत्रीय पार्टियां मानो ‘श्रापित’ हैं. इस तर्क के साथ मैं पहले एक आर्टिकल लिख चुका हूं. उसमें मैंने बताया था कि किस तरह किसी क्षेत्रीय पार्टी की चुनावी छाप उस राज्य की सरहद को पार नहीं कर पाती, जहां उसके/उसकी मुखिया की रिहाइश होती है. लेकिन फिर मैंने शर्त लगाई थी कि दो तूफानी शख्सीयतें- यानी ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल इस टोटके को तोड़ने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. वे दोनों विपक्षी गठबंधन में ‘उन्नीस के बीच बीस’ के तौर पर उभर रहे हैं, जोकि 2024 में नरेंद्र मोदी के सामने चुनौती पेश करने की उम्मीद करती है.

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ममता और केजरीवाल, इनमें से कौन इस श्राप को तोड़ेगा?

ममता बनर्जी वरिष्ठता के क्रम में और राजनैतिक रूप से आगे हैं. करीब 10 करोड़ लोगों वाले राज्य की राजनीतिक महारथी हैं. युद्ध आहत योद्धा हैं जिसका रिश्ता हर छोर से है. खासकर, भारत के उन राजनेताओं से जो कभी भी तीखे मोड़ ले सकते हैं, यानी वे क्षेत्रीय दिग्गज जो खरगोश (बीजेपी) के साथ दौड़ लगा सकते हैं और शिकारी कुत्ते (विपक्ष) के साथ शिकार भी कर सकते हैं. कौन, आप पूछिए? आप किसी ऐसे मंच की कल्पना कीजिए जिसमें नवीन पटनायक (ओडिशा), के. चंद्रशेखर राव (तेलंगाना), वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी (आंध्र प्रदेश), गौड़ा परिवार (कर्नाटक), नीतीश कुमार (बिहार), चौटाला परिवार (हरियाणा) और यहां तक कि बादल परिवार (पंजाब) मौजूद हों. ये सभी ऐसी शख्सीयतें हैं जोकि ममता को खुशी खुशी समर्थन देंगे, अगर वह लोकसभा में पर्याप्त सीटें बटोर लेती हैं.

दूसरी तरफ, अरविंद केजरीवाल एक जूनियर और कम वजनदार विपक्षी नेता हैं. उनका बोलबाला सिर्फ दिल्ली ‘राज्य’ में है जिसकी आबादी 3 करोड़ है और उंगलियों पर गिनाने लायक संसद सदस्य.

जिन नेताओं के नाम हमने ऊपर गिनाए हैं, उनके लिए केजरीवाल बेमायने हैं. लेकिन वह युवा हैं और शहरी युवाओं के बीच लोकप्रिय भी. भारत की उभरती हुई राजनीति में सबसे मुखर तबका. उनका आईआईटी से होना उनकी लोकप्रियता में चार चांद लगाता है. ममता की ‘पक्की धर्मनिरपेक्ष या अल्पसंख्यक समर्थक’ गर्जना के मुकाबले अरविंद केजरीवाल हल्की आवाज में ‘धर्मनिरपेक्षता और उसके साथ दबे-छिपे राष्ट्रवाद’ की दुहाई दे रहे हैं- जैसे बीजेपी किया करती है. यकीकनन केजरीवाल के राजनीतिक कद में बदलाव आ रहा है, और हर गुजरते दिन के साथ वह कद ऊंचा हो रहा है.

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लेकिन जहां तक सियासी दुस्साहस का सवाल है, ममता का सितारा बुलंद है. इसका सबूत है कि किस तरह उन्होंने बीजेपी के कई कद्दावर नेताओं को अपने पाले में खींच लिया. इसमें बाबुल सुप्रियो जैसे नेता भी शामिल हैं जो हाल तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में थे. विपक्ष के नेता ऐसा करतब करने के बारे में सोच भी नहीं सकते. असल में जहां ममता ने 2019 में पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में मोदी के खिलाफ मोर्चा संभाला, वहीं केजरीवाल दिल्ली के अपने मजबूत गढ़ में ही परास्त हो गए. तो, राजनीतिक मोर्चे पर ममता, केजरीवाल से आगे हैं.

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बंगाली बनाम भारतीय

लेकिन अरविंद केजरीवाल को लेकर एक ऐसी धारणा है, जोकि राजनीति में बुनियादी है. दिल्ली एक क्षेत्र नहीं, भारत का एक लघु रूप है. इस शहर की अपनी कोई जाति नहीं, न ही भाषा है. हर भारतीय राजधानी से अपनी पहचान जोड़ता है. किसी को भी वर्जित, बहिष्कृत या अलग-थलग नहीं किया गया है. इससे केजरीवाल एक राज्य की सरहद से आजाद हो जाते हैं. उनकी राजनीतिक शख्सियत विविध भारत में मुक्त रूप से भ्रमण कर सकती है. वह अंग्रेजी और हिंदी दोनों बेलते हैं जिससे उनकी छवि अखिल भारतीय बन जाती है.

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दूसरी तरफ, ममता बनर्जी को शेष भारत में ‘बंगाली नेता’ के तौर पर देखा जाता है. वह बंगाल में जमावड़ा लगा सकती हैं, लेकिन हिंदी पट्टी जिसे काऊ बेल्ट कहा जाता है, में साफ तौर पर लड़खड़ा जाती हैं.

अरविंद केजरीवाल के मुकाबले वह उस टोटके से ज्यादा श्रापित हैं, यानी अपने राज्य की सीमा के भीतर कैद रहने को मजबूर. अगर उन्हें ऐसी बेरोकटोक राष्ट्रीय छवि चाहिए तो उन्हें कुछ प्रभावशाली कदम उठाने होंगे. शायद वैसे ही धुआंधार हिंदी बोलनी होगी, जैसी वह बांग्ला बोलती हैं? या ‘मोदी की तरह’ लखनऊ या नई दिल्ली से चुनाव लड़ना होगा. शायद इन कामों के लिए तीन साल काफी नहीं, चूंकि 2024 में तो लोकसभा चुनाव होने ही हैं.

दिल्ली ने अरविंद केजरीवाल को एक और इक्का थमाया है. राजधानी पर शासन करने की वजह से वह राष्ट्रीय मीडिया में अपेक्षाकृत ज्यादा छाए रहते हैं. दिल्ली के अतिरिक्त बजट का इस्तेमाल वह अखबारी विज्ञापनों, टेलीविजन और डिजिटल स्क्रीन्स के लिए करते हैं.

दूसरी तरफ, ममता बंगाल के टैक्सपेयर के पैसे को दिल्ली में उसी लापरवाही से खर्च नहीं कर सकतीं. केजरीवाल बड़े राजनीतिक आयोजन करा सकते हैं, उदाहरण के लिए विदेशी मेहमानों की मेजबानी- जहां वह ‘मिनी मोदी’ बन सकते हैं. लेकिन ममता पूरे साल भारत के पूर्वी छोर में कैद रहती हैं. इसलिए उन्हें राष्ट्रीय चेतना में सेंध लगाने के लिए दस गुना ज्यादा मेहनत करनी होगी, जबकि दिल्ली के ‘नंबर दो बादशाह’ के लिए यह सब बहुत सहज है.

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क्षेत्रीय गोलची बनाम राष्ट्रीय ‘अड़ंगेबाज’

ममता और केजरीवाल की ताकत और कमजोरियों को गिनाने के बाद हम उनकी चुनावी रणनीतियों की तरफ नजर घुमाते हैं. ममता इस टोटके से वाकिफ हैं. इसलिए वह बंगाल के निकट, असम और त्रिपुरा में अपनी पार्टी को फैलाने के लिए ठोस कदम उठा रही हैं. पूर्व में वह कांग्रेस को आड़े हाथ ले रही हैं, और दूसरी जगहों पर अपने फायदे के लिए उसके साथ कदमताल कर रही हैं. यह एक व्यावहारिक कदम है और अक्लमंदी से भरा भी. क्षेत्रों की सरहद से परे, लेकिन अखिल भारतीय नहीं. इससे लोकसभा में उनका आंकड़ा बढ़ेगा, यानी मेज पर जब बड़े पत्ते खुलेंगे तो गठबंधन वाली राष्ट्रीय सरकार में उनका ओहदा सबसे ऊंचा हो सकता है.

इससे उलट, केजरीवाल हर जगह कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे हैं- पंजाब, गोवा, गुजरात, उत्तराखंड. यह कांग्रेस की जगह कब्जाने की ढिठाई भरी (हताशा भरी भी) कोशिश है, खास तौर से जब वह अपनी पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं पर हावी रहते हों.

हां, बीजेपी के लिए केजरीवाल अभिशाप जैसे हैं. यह बात जितनी फायदेमंद है, उतनी ही नुकसानदेह भी. वह दोनों तरफ के असंतुष्ट वोट तो बटोर सकते हैं लेकिन उन्हें दोकोणीय लड़ाई लड़नी पड़ती है. आज के हिसाब से केजरीवाल दहलीज पार करने लायक वोट तो नहीं समेट सकते लेकिन उन पर कांग्रेस और एकजुट विपक्ष का खेल बिगाड़ने का आरोप जरूर लगाया जाएगा.

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कांग्रेस बताए कि कौन बेहतर है?

अब यह जानिए कि इन दोनों के बीच का असली फर्क क्या है. इनके बीच असली फर्क है, कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार का नजरिया. कांग्रेस और गांधी परिवार, दोनों अरविंद केजरीवाल के धुर विरोधी हैं पर ममता बनर्जी उनके लिए विपक्ष में पुरानी दोस्त की तरह हैं. सोनिया गांधी से ममता का अच्छा तालमेल है, और अगर ममता को कहीं से धक्का लगता है तो वे अपनी पुरानी बॉस के समर्थन पर भरोसा कर सकती हैं.

मजे की बात यह है कि ममता जी-23 से भी मेल-मिलाप कर रही हैं. जी 23 यानी कांग्रेस का कुख्यात चिट्ठी गुट. ये जी 24 या जी 25 भी हो सकता है (शायद अमरिंदर सिंह और भूपेश बघेल के बाद). ममता पूर्व कांग्रेसियों शरद पावर और जगन रेड्डी जैसों के भी साथ खड़ी हो सकती हैं, जिनके लिए अनजान अरविंद केजरीवाल के मुकाबले ममता से जूझना ज्यादा आसान होगा.

सीधे शब्दों में कहें तो ममता को शीर्ष पर पहुंचने के लिए सिर्फ गांधी और पूर्व कांग्रेसियों को साधने की जरूरत है, लेकिन केजरीवाल को इसके लिए कांग्रेस को रौंदना पड़ेगा.

यानी ममता को चतुराई से सिर्फ सौदा पक्का करने की जरूरत है, लेकिन केजरीवाल को कांग्रेस जैसी पुरानी वैभवशाली इमारत को तहस-नहस करने का भारी काम करना होगा.

फिर अगर यह मेहनत बेकार हो गई तो... क्योंकि कौन जानता है कि 2024 में प्रधानमंत्री कार्यालय में कोई वेकेंसी होगी भी या नहीं?!?

(राघव बहल क्विंटिलियन मीडिया के को-फाउंडर और चेयरमैन हैं, जिसमें क्विंट हिंदी भी शामिल है. राघव ने तीन किताबें भी लिखी हैं- 'सुपरपावर?: दि अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉइस', "सुपर इकनॉमीज: अमेरिका, इंडिया, चाइना एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड" और "सुपर सेंचुरी: व्हाट इंडिया मस्ट डू टू राइज बाइ 2050")

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