प्रधानमंत्री मोदी को मेरे शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने के मौके मिलते रहते हैं, और इस बार भी मेरे शब्दों से उन्हें हमेशा की तरह बिल्कुल झूठा दावा करने का मौका मिल गया कि मैंने राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की तुलना मुगलों की वंशवादी प्रणाली से की थी.
दरअसल, मैंने तुलना नहीं की थी बल्कि अंतर बताया था कि मुगल प्रथा के विपरीत कांग्रेस में लोकतांत्रिक तरीके से नेता चुने जाने की प्रथा है. साथ में ये भी जोड़ा था कि शहजाद पूनावाला को 24, अकबर रोड में कांग्रेस मुख्यालय में चल रही चुनाव प्रक्रिया में नामांकन दाखिल करने की छूट है.
राहुल गांधी ने तो खुद सालों पहले घोषणा की थी कि वो चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं. शायद उनके दिमाग में 2000 में सोनिया गांधी के खिलाफ जितेंद्र प्रसाद के चुनाव लड़ने की बात रही होगी. अगर किसी और ने, यहां तक कि शहजाद पूनावाला ने भी, अपना नामांकन दाखिल नहीं किया तो इसमें राहुल गांधी का क्या दोष है.
मोदी, जिनका इतिहास का कमजोर ज्ञान बार-बार दिखता है, को याद दिलाने की जरूरत है कि स्वतंत्र भारत का इतिहास महात्मा गांधी के इस फैसले से शुरू होता है कि जवाहर लाल नेहरू को देश का पहला प्रधानमंत्री होना चाहिए. हालांकि पार्टी के भीतर सरदार पटेल को ज्यादा समर्थन था.
और यही सरदार थे जिन्होंने नेहरू के इस्तीफे के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया जब वो कांग्रेस संसदीय दल में अप्रैल 1950 के नेहरू-लियाकत समझौते को मंजूरी नहीं दिला पाए थे. अगर नेहरू को इस्तीफे की इजाजत मिलती तो स्वाभाविक रूप से सरदार पटेल उत्तराधिकारी होते. लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत को शीर्ष पर नेहरू की जरूरत है, और उनके इस कदम को महात्मा गांधी के पोते और सरदार पटेल के जीवनी लेखक राजमोहन गांधी (जो एक प्रतिष्ठित और सम्मानित विद्वान और लेखक रहे हैं) ने सबसे महान क्षण बताया है.
यानी, नेहरू प्रधानमंत्री बने महात्मा गांधी के कारण और इस पद पर बने रहे सरदार पटेल के कारण. ये आधुनिक भारत के निर्माण से नेहरू परिवार के जुड़ाव की शुरुआत थी.
लोकतांत्रिक ढंग से उत्तराधिकारी चुनने का इतिहास
नेहरू ने अपनी बेटी, इंदिरा को अपना उत्तराधिकारी नामांकित करने से इनकार कर दिया था. इंदिरा गांधी की नवीनतम जीवनी लेखक सागरिका घोष बताती हैं कि नेहरू नहीं चाहते थे कि इंदिरा उनकी उत्तराधिकारी हों. उनकी अचानक मृत्यु की वजह से लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई के बीच प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव करवाना पड़ा था.
कामराज ने सभी राज्यों में पूरे कांग्रेस नेतृत्व का मत जानने के बाद लाल बहादुर शास्त्री को विजेता घोषित किया. नए प्रधानमंत्री सिर्फ 62 साल के थे. सामान्य रूप से वो शीर्ष पर कम से कम 15 साल तक रह सकते थे. लेकिन ताशकंद में सिर्फ 20 महीनों के भीतर उनकी मृत्यु अप्रत्याशित थी.
एक बार फिर, मोरारजी ने अपना दावा पेश किया. चुनाव हुआ और अनिच्छा से राजनीति में कदम रखने वाली इंदिरा गांधी जीत गईं. उत्तराधिकारी का ये चुनाव बिलकुल लोकतांत्रिक तरीके से हुआ था.
जब प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी ने अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए रुपए का 57 फीसदी भारी अवमूल्यन कर दिया, तब उन नेताओं ने, जो सामूहिक रूप से सिंडिकेट कहलाते थे, उन्हें जरूरत से ज्यादा आजाद नेता घोषित कर दिया.
उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया और कांग्रेस नेतृत्व के एक बड़े हिस्से को उनके खिलाफ कर दिया. लेकिन इंदिरा गांधी ने पलटवार किया बेंगलुरू में अर्थव्यवस्था पर अपने ‘स्ट्रे थॉट्स’ के साथ.
इंदिरा गांधी की लोकतांत्रिक जीत जारी रही
कामराज की अगुवाई वाले धड़े ने इंदिरा गांधी पर हमले शुरू कर दिए. कुछ हफ्तों बाद, इंदिरा ने दिखाया कि पार्टी में किसकी चलती है, जब उन्होंने वरिष्ठ कांग्रेसी नेता वी वी गिरि को राष्ट्रपति के चुनावों में जीत दिलाई.
सिंडिकेट ने इसका बदला लेते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया. क्या इन सब में किसी तरह के वंशवाद की झलक दिख रही है? इंदिरा को सिंडिकेट और उनके सहयोगियों से मुकाबले के लिए अलग चुनाव चिह्न लेना पड़ा और एक अलग पार्टी बनानी पड़ी और उन्होंने दिखा दिया कि इंदिरा गांधी कौन थी.
मार्च 1971 में, चुनाव में दो-तिहाई बहुमत से ये साफ हो गया कि इंदिरा गांधी ना सिर्फ असली कांग्रेस की चहेती नेता हैं, बल्कि उनके साथ दोबारा प्रधानमंत्री बनने के लिए देश की जनता का समर्थन भी है. नौ महीने बाद,जनसंघ भी उन्हें ‘दुर्गा माता’ कहकर तारीफ कर रहा था!
और फिर आया आपातकाल का दुखद अध्याय.
इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाया, उन्होंने ही इसे हटाया- एक ऐसे चुनाव के साथ जिसमें वो अपनी सीट तक बुरी तरह हार गईं, इससे बेफिक्र वो लोकतांत्रिक मुकाबले में डटी रहीं.
जल्दी ही, वैकल्पिक जनता सरकार ताश के महल की तरह ढह गई. आम चुनाव हुए और इंदिरा फिर से सत्ता में थीं, वंशवादी कारणों से नहीं बल्कि पूरी तरह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से.
कांग्रेस को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाना चाहते हैं राहुल
इंदिरा गांधी की हत्या, और राजीव गांधी को अस्थायी कमान मिलने के बाद, उम्मीद थी कि वो चुनाव कराने के पहले अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए थोड़ा समय लेंगे. इसकी बजाय राजीव ने देश को चौंकाते हुए कमान संभालने के कुछ ही दिनों के भीतर चुनाव का एलान कर दिया. निस्संदेह, उस चुनाव में उन्हें और उनकी पार्टी को जबरदस्त फायदा हुआ और किसी भी प्रधानमंत्री को अब तक मिला सबसे बड़ा जनादेश उन्हें हासिल हुआ, क्या ये वंशवाद में मिला उत्तराधिकार था?
सोनिया गांधी के पति राजीव गांधी की निर्मम हत्या के बाद सात सालों के दौरान, दो कांग्रेस अध्यक्ष, पी वी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी आए और गए. पार्टी ने सोनिया के पास जाकर कमान संभालने की याचना की. अनिच्छा के बावजूद सोनिया ने अपनी जिम्मेदारी निभाई.
राजनीतिक भेड़िए जैसे उन पर झपट पड़े. गंदी और नस्लवादी बयानबाजी के बीच उनके भारत में चुनाव लड़ने की वैधता पर सवाल उठाए जाने लगे. लेकिन पार्टी उनके साथ खड़ी रही, और अंत में कामयाब हुई जब उन्होंने सबसे बड़े बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी को हराया. इसमें वंशवाद कहां दिखता है?
अब राहुल पंद्रह सालों तक काम सीखने के बाद अध्यक्ष बन रहे है. राहुल ने ना सिर्फ पार्टी में लोकतंत्र को मजबूत करने का इरादा जाहिर किया है, उन्होंने छात्र कांग्रेस और युवा कांग्रेस के साथ अपने प्रयासों और प्रखंड प्रमुख से लेकर पार्टी अध्यक्ष तक—हर स्तर पर हर कार्यकर्ता के पार्टी चुनाव में भागीदारी को सुनिश्चित कर इसे दिखाया भी है.
विपक्ष में खड़े होने के लिए राहुल ने खुला आमंत्रण दिया है
साथ ही, राहुल ने खुलेआम और बार-बार उम्मीदवारों को उनके खिलाफ लड़ने के लिए आमंत्रित किया है. केवल उनका नामांकन भरा जाना इस बात का सबूत है कि उन्हें देश के कोने-कोने में लाखों कांग्रेस कार्यकर्ताओं का समर्थन और स्नेह हासिल है.
ये उस भरोसे का प्रतीक है कि राहुल अपने पूर्व अध्यक्ष की ही तरह 2004 का करिश्मा दोहराएंगे और विपक्षी दलों को साथ लाकर 2019 में मोदी और सहयोगियों के खिलाफ संयुक्त मोर्चा पेश करेंगे.
राहुल ने गुजरात में अपनी राजनीतिक दिलेरी दिखा दी है, जहां उन्होंने सरकार से असंतुष्ट लोगों को एक साथ लाकर पागल विकास के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बना लिया है. राहुल ने पहले भी बिहार में ऐसा जादू दिखाया है.
अब उनका मुख्य काम होगा उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश के बीच सुलह कराना ताकि 2019 में योगी आदित्यनाथ और मोदी को चुनावी पटखनी दी जा सके.
जैसे 2004 में सोनिया गांधी ने अपने नस्लवादी आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था (सुषमा स्वराज के सिर पर बाल अभी भी हैं!), वैसे ही राहुल देश के सबसे भरोसेमंद नेता बनकर उभरेंगे जब आज से करीब अठारह महीने बाद वो मोदी को बुरी तरह हराएंगे.
(मणिशंकर अय्यर कांग्रेस के पूर्व सांसद हैं और ‘ए टाइम ऑफ ट्रांजिशन: राजीव गांधी टू दि ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ के लेखक हैं. इस लेख में उनके विचार हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)