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मणिपुर में शांति बहाली में किस तरह मददगार हो सकते हैं ट्रक?

Manipur violence: ज्यादातर मामलों में राहत सामग्री किसी भी बड़े मानवीय अभियान की बुनियादी जरूरत होती है.

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(नोट: यह मौके से की गई रिपोर्टिंग की एक सिरीज का हिस्सा है जो मणिपुर में जारी लड़ाई (Manipur violence) से पैदा होने वाली मानवीय समस्याओं पर रौशनी डालती है. लड़ाई के सामाजिक-आर्थिक असर को समझने के अलावा इन रिपोर्टों में विविधता के उदाहरणों, लोगों की मदद के लिए स्थानीय नवाचारों और इन कोशिशों में सामुदायिक शांति बहाली के उदाहरणों की भी पड़ताल की गयी है. ह्यूमैनिटेरियनिज्म इनिशिएटिव मैपिंग (MHI) का काम सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES) द्वारा चुमौकेदिमा में कार्यरत पीस सेंटर (PCN) नागालैंड के सहयोग से किया जा रहा है.)

आपदा या मानवीय राहत की जटिलताओं से वाफिक लोग जानते होंगे कि विस्थापित आबादी, खासतौर से राहत शिविरों में रहने वाले लोगों, को खाना और खाने से इतर दोनों तरह की चीजों की नियमित आपूर्ति पक्का करना जरूरी है.

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ज्यादातर मामलों में राहत सामग्री की आपूर्ति, चाहे जिस पैमाने पर हो, किसी भी बड़े मानवीय अभियान का आधार होती है. भारत के संदर्भ में, खासतौर रूप से पिछली आपदाओं और संघर्षों में, राहत सामग्री आपूर्ति के साथ ही आपूर्तिकर्ताओं, वाहनों, ड्राइवरों, सहायकों और मरम्मत का काम करने वाले, सरकार और सिविल सोसायटी दोनों के कार्यकर्ता किसी भी राहत कार्य की बुनियाद रहे हैं.

देश में मानवीय रसद के पूरे इको-सिस्टम को श्रेय दिया जाना चाहिए जो तमाम तरह के ढुलाई और परिवहन के तरीकों को एक साथ लाया और एकाकार किया है, जिससे यह पक्का किया जा सके कि दूर-से-दूर के राहत शिविरों में भी रहने वाले सबसे ज्यादा जरूरतमंदों की बुनियादी जरूरतें पूरी की जा सकें.

यह राहत का जरूरी हिस्सा है जिस पर कई बार ऐसे हालात में ध्यान देना रह जाता है. यह तो सभी मानेंगे कि चाहे जितना भी मुश्किल हो, इंसानी तकलीफों को कम करना ही होगा. राहत सामग्री का काफिला और कुछ नहीं बल्कि एक नाजुक डोर है जो उन लोगों को जोड़ती है जिन्हें अपने घर छोड़कर भागना पड़ा और अब वे राहत शिविरों में हैं. उन लोगों के लिए जो मानते हैं कि, दूसरों का छोटा-सा योगदान भी उनके हालात में मामूली ही सही, सुधार लाएगा.

मणिपुर में संघर्ष प्रभावित इलाकों के आंकड़े ठीक से काम करने वाली सप्लाई चेन बनाने की जरूरत पर जोर देते हैं. जून में उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि मणिपुर के अंदर ही 349 शिविरों में 50,000 से ज्यादा लोग थे. मिजोरम राज्य में इस समय 12,000 से ज्यादा लोगों ने शरण ले रखी है, जबकि असम और नागालैंड में कुल मिलाकर 3000 लोगों ने शरण ले रखी है. मणिपुर में राहत व्यवस्था बाहरी और स्थानीय लोगों की समुदाय-आधारित मदद का एक जटिल ताना-बाना है.

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जो चीज संकट की गंभीरता को सबसे ज्यादा बढ़ा रही है, वह है नाकेबंदी और जरूरी सामान लाने वाली गाड़ियों पर सीधे हमलों से पैदा गंभीर तनाव. पहले भी मुख्य राजमार्गों को बंद किया जाता रहा है, लेकिन इस बार बड़े पैमाने पर राहत सामग्री को रोका जा रहा है, जैसा कि इलाके में पिछली लड़ाइयों में नहीं देखा गया है. राहत सामग्री छीन लेने की घटनाएं हुई हैं और यह हालात की सबसे गंभीर निशानियों में से एक है. इसके अलावा, नाकाबंदी और असुरक्षा के चलते बताया जा रहा है कि दो सीमावर्ती जिले (यानी, टेंगनौपाल और चंदेल) में लोग जिंदगी चलाने के लिए म्यांमार पर निर्भर हो गए हैं.

उदाहरण के लिए, सप्लाई ले जाने वाले ट्रक पर कोई भी हमला उसके लक्षित लाभार्थी तक अदृश्य नतीजों की एक लंबी श्रृंखला बनाता है. इसके नतीजे में प्रभावित इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए हालात और खराब हो जाएंगे.

याद रखना होगा कि ट्रक चलाने वाले खुद आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोग हैं. वे सामाजिक और आर्थिक मदद के पर्याप्त साधनों के बिना लड़ाई वाले इलाके में गाड़ी ले जाकर भारी जोखिम उठा रहे हैं. इसलिए ड्यूटी के दौरान अपहरण, चोट पहुंचाने या हत्या ड्राइवरों, उनके सहायकों और उनके परिवारों के लिए तबाही है.

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मदद में रुकावट से लोगों को पहुंचने वाली मनोवैज्ञानिक चोट को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. हिंसा में शामिल सभी लोग सप्लाई के परिवहन में रुकावट नहीं डालते हैं. थोड़े बहुत मानवीय मूल्यों, जो पहले भी थे, के बचे रहने की हमेशा गुंजाइश होती है.

जमीनी राहत मुहैया कराने में पिछले मामलों के उदाहरण

यह जानना दिलचस्प होगा कि 1990 के दशक की शुरुआत में मणिपुर में उग्रवाद के दौर में ऐसा उदाहरण है, जब चंदेल में सक्रिय एक प्रमुख अंडरग्राउंड ग्रुप ने उस मासिक आपूर्ति काफिले पर हमला करने से परहेज किया था, जो एक दूरस्थ सीमा चौकी पर सैनिकों के लिए पत्र और खाद्य सामग्री ले जा रहा था. (भारत-म्यांमार सीमा पर एक पूर्व सैनिक की बताई दास्तांन के अनुसार, जो अपना नाम नहीं बताना चाहता.)

ऐसा नहीं है कि उग्रवादी गुटों ने इसके बाद यूनिट के सैनिकों/गाड़ियों पर घात लगाकर हमला नहीं किया. बहरहाल, उन्हें इस बात की पूरी जानकारी थी कि काफिला महीने में एक खास दिन जाता है. हालांकि, सिर्फ उस एक दिन के लिए उन्होंने हमला बंद कर दिया, खासकर तब जबकि वे जानते थे कि ये पत्र ही सैनिकों और उनके अजीजों के लिए अपनी बात पहुंचाने का इकलौता जरिया थे.

बड़े पैमाने पर जारी हिंसा में स्थानीय स्तर की ऐसी परंपराओं की अनदेखी हो रही है. मौजूदा संकट में संघर्ष समाधान के लिए नाकाबंदी को खत्म करने के वास्ते की गई समाज की कोशिशें हथियारबंद लड़ाकों के हमलों के सामने ध्वस्त हो गईं. 5 जून को कमेटी ऑन ट्राइबल यूनिटी (COTU) कांगकपोकी ने इम्फाल में राष्ट्रीय राजमार्ग-2 पर सात दिन के लिए नाकाबंदी में ढील देने का ऐलान किया.

मगर खोकान में हत्याओं के बाद COTU ने 9 जून को नाकाबंदी फिर से लागू कर दी. उस घटना में बिना निशानी वाले वाहनों में फौजी पोशाक में आए अनजान बंदूकधारियों ने सुबह करीब 4:00 बजे कांगकपोकी के खोकान गांव में 70, 50 और 40 साल की उम्र के तीन लोगों की हत्या कर दी, जबकि 45 और 20 साल के दो और लोगों को घायल कर दिया. इस घटना को केवल उकसावे के लिए किया गया झूठा फौजी हमला लगने वाले के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन इसने शांति का एक मुमकिन रास्ता बंद कर दिया.
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इन सारी घटनाओं का कुल मिलाकर नतीजा बेहद गंभीर है. मीडिया में संघर्ष पर चल रही तमाम चर्चाओं के बीच इन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है. बिना पुष्टि वाली खबरों की भरमार के माहौल में, तजुर्बे से हासिल जमीनी समाधानों पर बमुश्किल ही किसी का ध्यान जाता है.

इस तरह खाने-पीने की चीजों और जरूरी चीजों की बढ़ती कीमतें परेशानी के नापे जा सकने लायक पैमाने हैं, जिन्हें सचमुच महसूस किया जाता है. ये हालात खासतौर से मध्यम और दीर्घकालिक अवधि की लामबंदी और हिंसक हमलों के स्वाभाविक नतीजे होंगे.

शिविरों के भीतर सटीक हालात और परेशानियों के आंकड़े तैयार करना बेहद मुश्किल है, लेकिन संघर्ष के बीच मदद पहुंचाने के रास्तों पर खड़ी की गई कृत्रिम बाधाओं को देखते हुए कुछ न कुछ असर जरूर पड़ता है.

इन हालात से खुद गुजरे एक शख्स ने इसके बारे में बताया: “……. मौजूदा हालात दयनीय हैं. पर्याप्त सहायता और राहत सामग्री आ रही है लेकिन पीड़ितों को हासिल नहीं हो पा रही है क्योंकि कई दूसरी वजहों से वाहन शिविरों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. हमने जिन राहत शिविरों का दौरा किया, उनमें बच्चों और महिलाओं के लिए चिकित्सा सहायता, खाने-पीने की चीजें, सरकारी सपोर्ट सिस्टम, ट्रॉमा ट्रीटमेंट और काउंसिलिंग पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है.

संघर्ष से प्रभावित लोगों के लिए बातचीत की जरूरत को समझना जरूरी है, सबसे पहले उन बातों से शुरुआत करें जो साफ महसूस की जा सकती हैं. सभी द्वारा उठाए गए सामूहिक दुख के लिए असरदार समाधान की जरूरत है. वितरण प्रणाली में बड़ी रुकावटों को दूर करने, मुख्य राजमार्गों को खोलने के लिए बातचीत और पैरोकारी से शुरुआत की जा सकती है.

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इसके अलावा, समाधान बाहर से आने की जरूरत नहीं है. मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम और असम इस संकट से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित हैं. उनके पास पुरानी परंपराओं के जरिये मेल-मिलाप की समृद्ध परंपरा है. इस लेख में बताई गई समस्या को दूर करने के लिए क्षेत्र के भीतर काफी महारत है

मणिपुर के बाहर की मानवतावादी संस्थाओं को भी राहत में शामिल स्थानीय समुदाय-आधारित संगठनों (CBO) की मदद से नेटवर्क बनाने और सप्लाई को ज्यादा विकेंद्रीकृत करने की कोशिश करनी होगी. ये CBO बाहर से आने वाली मदद के स्तर (मात्रा और वितरण श्रृंखला दोनों के संदर्भ में) से काफी आगे निकल गए हैं. लड़ाई से सभी समुदायों पर थोपे जा रहे सामूहिक दुख को कम करने के लिए अभी वक्त खत्म नहीं हुआ है और शुरुआती छोटे कदम उठाए जाने की जरूरत है.

ऐसे में मणिपुर में शांति सबसे पहले ट्रकों की आवाजाही के जरिये आएगी.

(डॉ. सम्राट सिन्हा जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल (JGLS), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी (JGU), सोनीपत में प्रोफेसर हैं और पीस सेंटर (चुमौकेदिमा-नागालैंड) में विजिटिंग रिसर्चर हैं. प्रोफेसर दीपांशु मोहन ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी (JG) के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक स्टडीज (CNES) में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस और निदेशक हैं. लेखक फादर डॉ. सी.पी. एंटो और पीस चैनल-नागालैंड और पीस सेंटर (चुमौकेदिमा-नागालैंड) के आभारी हैं जो. सभी तस्वीरें पीस चैनल नागालैंड की फील्ड टीम से ली गई हैं, जो मणिपुर में संघर्ष से प्रभावित लोगों को राहत मुहैया करा रहा है.)

(यह एक ओपिनियन लेख है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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