Manipur violence: दो कुकी-ज़ो महिलाओं को नग्न घुमाने और इंसान से राक्षस बने लोगों द्वारा उनके प्राइवेट छूने का जो वीडियो सामने आया है वे इसलिए डरावना है क्योंकि मणिपुर में जो कुछ हुआ वह केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की निगरानी में होने दिए गया. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि असहाय महिलाओं के खिलाफ क्रूरता की इस गाथा से केंद्र और राज्य दोनों सरकारें अविचलित हैं.
मणिपुर पुलिस के एक बयान में कहा गया है कि इस जघन्य अपराध को करने वाले अज्ञात हथियारबंद बदमाशों के खिलाफ FIR दर्ज की गई है. सूबे के सीएम बीरेन सिंह ने दावा किया है कि एक आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है.
लेकिन आते हैं FIR पर. जब हथियारबंद बदमाशों के चेहरे और उनके जघन्य कृत्य साफ तौर पर नजर आ रहे हैं, तब भी क्या वे अज्ञात हैं? क्या पुलिस व्यवस्था ऐसी ही हो गई है? यह लगभग वैसा ही है जैसे मानो अपराध के लिए जिम्मेदार लोग कुकी-ज़ो समुदाय की अपने मूल निवास स्थान पर लौटने की उम्मीदों पर गहरा आघात करना चाहते हैं.
यूरोपीय संसद ने 3 मई (जिस दिन चुराचांदपुर में पहली बार हिंसा भड़की थी) के बाद से कुकी-ज़ो समुदाय पर किए गए अत्याचारों के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया.
ऐसी हिंसा जो रोजाना होने वाली बंदूक की लड़ाई के साथ इतने लंबे समय तक चल सकती है, उसका केवल दो ही मतलब हो सकता है- या तो सरकार बुरी तरह से विफल हो गयी है या मणिपुर की पहाड़ियों से आखिरी आदिवासी तक को बाहर निकालने के इरादे से हिंसा को होने दिया गया है.
और सभी कुकी-ज़ो लोगों को 'अवैध प्रवासियों' के एक व्यापक समूह के साथ लेबल करने से बेहतर तर्क क्या हो सकता है? मणिपुर सरकार के लिए यह कितना सुविधाजनक है, जिसे अब 1.4 बिलियन आबादी (जिनमें से अधिकांश को यह भी नहीं पता है कि मणिपुर क्या है और यह मानचित्र पर कहां स्थित है) की ओर से भारत की सीमाओं की रक्षा करने वाले शाश्वत सतर्क लेविथान के रूप में देखा जा रहा है.
प्रधानमंत्री की चुप्पी क्या कहती है?
बदला लेने और प्रतिशोध की यह घिनौनी गाथा, बेहद घृणित स्तर पर पहुंच गई है. ऐसे में कलम से दवाब बनाने वाले हम जैसे लोग भारतीयों की आत्माओं को झकझोरने के लिए केवल इतना ही कर सकते हैं कि उन्हें दूरियों की वजह से पैदा होने वाली आत्मसंतुष्टि से बाहर निकाल सकें, और उनसे पूछ सकें कि क्या वे भी इस संकट के उस दर्द को महसूस कर सकते हैं जो उनके ही देश के एक हिस्से में उनकी बहनें सह रही हैं.
मणिपुर में जो कुछ हो रहा है वह मौलिक और नैतिक स्तर पर गंभीर रूप से गलत है, लेकिन जो बात डराने या चौंकाने वाली बात देश को चलाने वाले शीर्ष व्यक्ति (प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी) की चुप्पी है. हिंसा के शुरू होने के लगभग 77 दिन बाद पीएम मोदी ने अपनी यह चुप्पी तोड़ी.
वह (प्रधानमंत्री) एक जहरीले (विषैले) पक्षपातपूर्ण मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाले राज्य में नासमझ कट्टरपंथियों द्वारा किए गए इन सभी क्रूर अमानवीय कृत्यों से क्यों अप्रभावित या अविचलित हैं?
एक तरफ मणिपुर तेजी से हिंसा की आज में जल रहा है, लेकिन फिर भी केंद्र कुछ नहीं कर रहा है. केंद्र के इस कदम ने मणिपुर के निकटवर्ती राज्यों को चौंका दिया है. उन राज्यों में इस बात की अटकले लगने लगी हैं कि क्या वोट बैंक की राजनीति के इस मॉडल (जहां राजनीति का भयंकर ध्रुवीकरण होता है) को उनके यहां भी चलने दिया जाएगा.
कुकी-ज़ो लोगों के लिए न रुकने वाला अघात
मणिपुर में सुरक्षा बल असल में एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि वे उस मानव ढाल को नहीं तोड़ सकते हैं, जो उन्हें कानून लागू करने और कानून तोड़ने वालों को गिरफ्तार करने से रोकती है.
स्थिति ऐसी है कि इंफाल घाटी में कानून तोड़ने वाली ब्रिगेड ने खुद म्यांमार आये बदनाम 'अवैध प्रवासियों' (पोस्ता उत्पादक और ड्रग माफिया, जो मणिपुर के मूल निवासी नहीं हैं) के खिलाफ अपने समुदाय को बचाने वाले रक्षक का दर्जा प्राप्त कर लिया है. पहाड़ियों में जमीन (जिस पर उनकी वर्षों से नजर थी) के उनके लालच को छुपाने के लिए यह कितना सुविधाजनक नैरेटिव है. लेकिन इसमें उनकी गैर-आदिवासी स्टेटस एक बाधा बन गया है, क्योंकि अनुच्छेद 371सी के तहत, कोई भी गैर-आदिवासी आदिवासी इलाके में जमीन नहीं खरीद सकता है.
एक विकसित होते या उभरते इकोसिस्टम में, शासन की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भूमि सुधार है- और शासन का मुख्य तत्व कानून का शासन स्थापित करना है जहां न्याय कायम हो.
अगर मणिपुर में भूमि एक बड़ा विवादित मुद्दा है और यह समूह के अस्तित्व से भी जुड़ा है, तो संक्षिप्त में अतीत और वर्तमान सरकारों को इस मामले को सुलझाना चाहिए था. क्या ऐसी नफरत और आक्रोश को 77 दिनों तक सड़कों पर फैलने देना जरूरी था?
वास्तव में, हर दिन मणिपुर के लोग (खास तौर पर कुकी-ज़ो लोग) एक नए आक्रोश के प्रति जाग रहे हैं. वे अब आघात के एक अविश्वसनीय चक्र में फंसे हुए हैं और सोच रहे हैं कि भ्रष्ट आचरण का कौन सा नया स्तर उन्हें देखना होगा. जरा कल्पना कीजिए कि ऐसी दर्दनाक स्थिति में रहना कैसा लगता होगा?
बर्बरता की निम्नतम सीमा तक उतरना
मणिपुर में हर दिन की घटनाओं को ध्यान से देखने पर हमें पता चलता है कि मुख्यमंत्री बीरेन सिंह अपने ही लोगों (मैतेई लोगों, जिनके बारे में उनका मानना है कि पूरे मणिपुर पर उनका अधिकार है) को उन लोगों के खिलाफ खड़ा करने के अंधे अहंकार से प्रेरित हैं जिन्हें उन्होंने बार-बार म्यांमार से आए उपद्रवियों और घुसपैठियों के रूप में परिभाषित किया है. आज, मणिपुर में जो बात पूरी तरह से प्रदर्शित हो रही है वह है लिंच-मॉब मानसिकता (भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डालने की मानसिकता), जहां आम लोगों की अपूर्व क्रूरताएं आम दृश्य बन गई हैं.
इंटरनेट शटडाउन से मणिपुर में ब्लैकआउट हो गया है. लेकिन इंटरनेट शटडाउन भी आंशिक या पक्षपातपूर्ण है क्योंकि प्रभावशाली शासक वर्ग के पास हर समय इस तक पहुंच है. यह आम जनता ही है जिन्हें इन 77 दिनों के दौरान हुए अकथनीय अत्याचारों की कहानियां भी न बता पाने की बदनामी झेलनी पड़ी है. पिछले 77 दिनों से मणिपुर में जो हो रहा है उसे गृह युद्ध (सिविल वार) के रूप में वर्णित किया जा सकता है.
महिलाओं को नग्न घुमाने और फिर उनके साथ बलात्कार करने और गांव के युवा वॉलेंटियर की हत्या करने और उसके सिर को खंभे पर लटकाने की बर्बरतापूर्ण हरकतें ऐसी भूली-बिसरी क्रूरताओं की कहानियां हैं जिनके बारे में किसी ने अतीत में सुना होगा.
लेकिन इस तरह की क्रूरता का साक्षी बनना हमें बताता है कि मनुष्य आज भी बर्बरता की गहराई (निम्नतम सीमा) में जा सकता है. वैसे 21वीं सदी में भी इंटरनेट प्रतिबंध के कारण शायद और भी बहुत कुछ सामने आना बाकी है.
सबसे खराब मानवीय भावनाएं सामने लाने के लिए केवल किसी मुद्दे के इर्द-गिर्द एक उत्तेजक नैरेटिव रचने की जरूरत होती है. जैसा कि हमने मणिपुर में देखा है, शब्दों को हथियार बनाना ही अंतहीन हिंसा के चक्र को बढ़ावा देता है.
तथ्य यह है कि मणिपुर में हिंसा दो महीने से अधिक समय से जारी है और जल्द ही अगले कुछ दिनों में तीसरे महीने तक पहुंच रही है, इसका मतलब है कि हमलावर अच्छी तरह से तैयार हो चुके हैं. आग को इतने लंबे समय तक जीवित रखने के लिए तैयारी और प्रशिक्षण की जरूरत होती है. घाटी में चरमपंथी संगठन तैयारी की स्थिति में नजर आ रहे हैं. इसलिए, मणिपुर में हिंसा न तो अचानक हुई है और न ही कोई नासमझी वाली कल्पना (विचार) है. यह एक अच्छी तरह से बनाई गई योजना है जिसे सटीकता के साथ क्रियान्वित किया गया है, जमीन पर उतारा गया है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार इस मुद्दे पर उदासीन दर्शक बनी हुई है.
(लेखिका द शिलॉन्ग टाइम्स की एडिटर और NSAB की पूर्व सदस्य हैं. उनका ट्विटर हैंडल है, @meipat. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी विचार हैं.)
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