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संडे व्यू: तीसरी इकॉनमी बनने पर दूर होगी गरीबी? आजादी के समर्थक नहीं थे अंबेडकर?

पढ़ें करन थापर, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, टीएन नाइनन, चाणक्य के विचारों का सार.

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तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने पर बहुआयामी गरीबी होगी दूर?

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि लंबी दूरी की प्रतियोगिताओं में साइकल चालक ऐसी आकृति बनाते हैं जो पक्षियों के एक समूह जैसी नजर आती है. बाद में आने वाले साइकिल चालकों को पता होता है कि उन्हें किस एंगल पर साइकल चलानी है ताकि उन्हें मुश्किल ना हो. थोड़ी-थोड़ी देर में कोई दूसरा साइकल चालक नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाल लेता है. लंबी अवधि में आर्थिक वृद्धि भी कुछ इसी तरह व्यवहार करती है. वहां अग्रणी क्षेत्र अर्थव्यवस्था की वृद्धि की गति तय करता है और समय के साथ अलग-अलग क्षेत्र सतत विकास की दर को बरकरार रखते हैं.

नाइन लिखते हैं कि भारत ने 1970 के दशक में 2.5 फीसदी विकास दर से आगे बढ़कर 1980 के दशक में 5.5 फीसदी विकास दर हासिल किया. इस दौरान मध्यमवर्ग का उदय हुआ. उपभोक्ता वस्तुओं की मांग हुई. वाहन उद्योग लाभान्वित हुआ. मारुति जैसी छोटी कारों से लेकर समकालीन दोपहिया वाहनों के मॉडलों की बाढ़ आ गयी. 90 के दशक में इन्फोटेक बूम आने पर तकनीकी विकास का दौर शुरू हुआ. भारत की किफायती इंजीनियरिंग श्रम शक्ति विदेश जाकर काम करने लगी. पेटेंट व्यवस्था में बदलाव हुए. औषधि उद्योग को यह अवसर मिला कि वह अमेरिका के जेनरिक बाजार का फायदा उठाए और तेजी से विकास करे.

नाइनन सवाल उठाते हैं कि आखिर कौन सा क्षेत्र भारत की वृद्धि के अगले चरण का नेतृत्व करेगा? सरकार ने नाकामी के क्षेत्र को लेकर साहसी दांव खेला है और वह क्षेत्र है विनिर्माण. ‘मेक इन इंडिया’ की पहल अपेक्षित परिणाम दे पाने में नाकाम रही. भारत अगले पांच सालों में इतनी वृद्धि की उम्मीद कर सकता है कि वह स्थिर हो चुकी जापान की अर्थव्यवस्था तथा धीमी से बढ़ती जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ सके. इस तरह वह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. अहम सवाल यह है कि क्या भारत तब बहुआयामी गरीबी से भी निजात पा सकेगा? गरीबी की यह अवधारणा न्यूनतम आय, शिक्षा और जीवन गुणवत्ता (पेजयल, स्वच्छता और बिजली) से संबंधित है.

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स्वतंत्रता के समर्थक नहीं थे अंबेडकर?

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने सवाल उठाया है कि क्या हम सचमुच अपने नायकों को जानते हैं जिनके बारे में हम बारबार बढ़-चढ़कर बातें करते हैं. हाल ही में लेखक ने जो किताब पढ़ी है उसमें बीआर अंबेडकर के उन पहलुओं का खुलासा किया गया है जिनसे वे अनजान थे. ये विवादित तथ्य नहीं हैं. कई प्रसिद्ध भी हो सकते हैं लेकिन वे इनकी लोकप्रिय छवि का हिस्सा नहीं हैं. उदाहरण के लिए क्या आप जानते हैं कि बीआर अंबेडकर वास्तव में स्वतंत्रता के समर्थक नहीं थे? 1942 से 1946 तक अंबेडकर श्रम मंत्री के रूप में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे. 1931 में अंबेडकर ने कहा था, “दलित वर्ग (जैसा कि उस समय अनुसूचित जाति कहा जाता था) चिंतित नहीं है, वे शोर-शराबा नहीं कर रहे हैं, उन्होंने यह दावा करने के लिए कोई आंदोलन शुरू नहीं किया है कि तत्काल स्थानांतरण होगा ब्रिटिशों से भारतीय लोगों को सत्ता का अधिकार.”

करन थापर ने अशोक लाहिड़ी की किताब ‘इंडिया इन सर्च ऑफ ग्लोरी’ के हवाले से लिखा है, “स्वतंत्रता संग्राम में अंबेडकर की भूमिका उनके अन्यथा शानदार करियर का सबसे विवादास्पद पहलू रहा है.”

ऐसा लगता है कि अंबेडकर लगभग कभी भी संविधान सभा में नहीं पहुंच सके. 1945-46 के चुनावों में उनकी पार्टी ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ने 151 आरक्षित सीटों में से केवल दो सीटें जीतीं. परिणामस्वरूप अंबेडकर “बॉम्बे की प्रांतीय विधानसभा से (संविधान सभा) के लिए नहीं चुने जा सके क्योंकि एससीएफ ने केवल एक सीट जीती थी.” इससे भी बुरी बात यह थी कि कोई भी मदद करने को तैयार नहीं था. वास्तव में सरदार पटेल ने घोषणा की, “...दरवाजों के अलावा संविधान सभा की खिड़कियां भी डॉ अंबेडकर के लिए बंद हैं.” उन्होंने आगे कहा, “देखें कि वे संविधान सभा में कैसे प्रवेश करते हैं.”

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भारतीय अर्थव्यवस्था नई ऊंचाई छू सकती है बशर्ते...

चाणक्य ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने वादा किया है कि उन्हें तीसरा कार्यकाल मिलता है तो भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. लेखक का मानना है कि यह लक्ष्य बहुत आसानी से प्राप्त होने वाला है.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के विश्व आर्थिक आउटलुक डेटाबेस से पता चलता है कि भारत 2026-27 तक जापान और जर्मनी दोनों को पीछे छोड़ देगा जो वर्तमान में क्रमश: तीसरी और चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं.

दो बड़े सवाल बने हुए हैं:

  1. क्या प्रधानमंत्री का बयान अपरिहार्य की राजनीतिक पुनरावृत्ति मात्र है?

  2. क्या तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने से हमें आर्थिक मोर्चे पर आत्मसंतुष्ट हो जाना चाहिए?

चाणक्य लिखते हैं कि 6 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनाए रखने के लिए पर्याप्त है लेकिन यह हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त नहीं है. यह एक ऐसा आंकड़ा है जो जीवन स्तर में सुधार के लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है. बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करना जरूरी है जो न्यूनतम आय की गारंटी देता हो. अधिकांश भारतीयों के लिए आय का स्तर सभ्य जीवन की गारंटी देने के लिए पर्याप्त नहीं है. सबसे बड़ी चुनौती कृषि है जहां अब भी 40 फीसदी कार्यबल को रोजगार मिलता है. रोजगार की संभावना को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाना जरूरी है. यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि समृद्धि की हमारी खोज पर्यावरण की सीमा का उल्लंघन न करे. जलवायु संकट और कार्बन उत्सर्जन चुनौती बनी हुई है.

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मणिपुर पर सुध-बुध खो चुकी है सरकार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जलते मणिपुर को देखते हुए भारत सरकार अपनी सुध बुध खो चुकी लगती है. मणिपुर में जो हो रहा है वह कभी-कभार होने वाला झगड़ा नहीं है. यह मौका पाकर पनपा अपराध नहीं है. ये हत्या या बलात्कार की आकस्मिक घटनाएं नहीं हैं. यह लूट और लाभ के लिए लूट नहीं है.

यह जातीय नरसंहार की शुरुआत है. लेखक यहां प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान आर्मेनियाई और यहूदी लोगों के नरसंहार के उदाहरणों का स्मरण कराते हैं.

मणिपुर में मैतेई घाटी में रहते हैं तो कुकी-जोमी चार जिलों और नगा चार पहाड़ी जिलों में. व्यावहारिक रूप में इन दिनों घाटी में कोई कुकी-जोमी नहीं है और कुकी-जोमी के प्रभुत्व वाले इलाकों में कोई मैतेई नहीं है. इनमें सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं. लेखक यह भी बताते हैं कि मुक्यमंत्र और उनके मंत्री अपने गृह कार्यालयों से बाहर काम करते हैं और प्रभावित क्षेत्रों की य्तारा नहीं करते या नहीं कर सकते हैं. स्पश्ट है कि उनका आदेश उनके घरों और कार्यालयों के पड़ोस से आगे नहीं चलता है.

चिदंबरम आगाह करते हैं कि एक बार जब जातीय सफाया शुरू हो जाता है तो यह संक्रामक होता जाता है. पड़ोसी राज्य मिजोरम में रहने वाले मैतेई समुदाय को राज्य छोड़ने की चेतवानी दी गयी है. छह सौ मैतेई अब तक कहीं और चले गये होंगे. मणिपुर संकट पर बहस किस नियम से होना चाहिए इस पर संसद में सहमति नहीं हो सकी. सरकार इस बात पर अड़ी हुई है कि माननीय प्रधानमंत्री संसद में बयान नहीं देंगे. यह गतिरोध इस निराशाजनक निष्कर्ष की ओर इशारा करता है कि संसद निष्क्रिय होगयी है और देश के लोगों को विफल कर दिया गया है.

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मणिपुर पर चुप रहकर घिर गये पीएम

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मणिपुर में पिछले तीन महीनों से गृहयुद्ध चल रहा है और इस पर आज तक देश के प्रधानमंत्री ने एक छोटा सा वक्तव्य देने के अलावा कुछ नहीं कहा है. वक्तव्य दिया भी तो संसद के बाहर, अंदर नहीं बोले. हृदय पीड़ा और क्रोध से भरने की बात कहने के बाद फौरन मणिपुर की तुलना राजस्थान और छत्तीसगढ़ में महिलाओं के साथ हुई हिंसा से कर दी. क्या प्रधानमंत्री नहीं जानते कि मणिपुर में गृहयुद्ध चल रहा है पिछले तीन महीनों से?

तवलीन लिखतीं हैं कि गृहयुद्ध के पीड़ित दिल्ली तक आ चुके हैं और उनमें एक पीड़ित बीजेपी विधायक वंग्जगीन वालते भी हैं. आज वे न चल सकते हैं, न बोल सकते हैं और न अपने आप खाना खा सकते हैं. वे मणिपुर के मुख्यमंत्री के करीबी सलाहकार थे. मई के पहले हफ्ते में उनकी गाड़ी को भीड़ ने रोक कर उनको और उनके कुकी चालक को इतनी बुरी तरह मारा कि अपाहिज बना दिया. हवाई एंबुलेस से वे दिल्ली लाए गये. कई हफ्ते इलाज के बाद उनको अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी. मणिपुर भवन में रहने तक का इंतजाम नहीं किया जा सका. न भारत सरकार और न ही मणिपुर सरकार वंग्जगीन वालते की सुध ले रही है.

सवालों की सीरीज लेखिका के पास है. प्रधानमंत्री जी क्या आपसे आप ही की पार्टी के इस बेहाल विधायक के बारे में सवाल करना गलत है? क्या मणिपुर में चल रहे गृहयुद्ध के बारे में आपसे सवाल पूछना गलत है? क्या देश सुरक्षित रह सकता है, अगर हमारे पूर्वोत्तर राज्यों में इस तरह आग फैलती रहेगी? क्या आपसे पूछना गलत है कि आपने संसद में अभी तक मणिपुर के बारे में बोलने से इनकार क्यों किया, इस हद तक अब अगले सप्ताह अविश्वास प्रस्ताव लाया जा रहा है आपकी सरकार के खिलाफ?

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