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मणिपुर हिंसा के छह महीने बीते, बीजेपी की विफलता की भारी कीमत चुका रहा प्रदेश

Manipur Violence: पुलिस शस्त्रागारों से चुराए गए हजारों हथियार अभी तक बरामद नहीं हुए हैं, और उनमें से 50% से अधिक स्वचालित हैं.

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मणिपुर त्रासदी (Manipur Violence) के छह महीने बाद, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस नरसंहार से बीजेपी या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ भी नुकसान नहीं उठाना पड़ा है. कुछ आलोचनाएं की गईं हैं, जो की बेअसर ही रही हैं.

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निस्संदेह, मरने वालों की संख्या का धर्म-आधारित विवरण घिनौनी कहानी कहता है. अब तक मारे गए लगभग 200 लोगों में से दो-तिहाई कथित तौर पर कुकी ईसाई हैं और एक-तिहाई मैतेई हिंदू हैं.

ये स्पष्ट रूप से एक असमान लड़ाई है. 16 मंदिरों की तुलना में 300 चर्चों को तोड़ दिया गया. ये आंकड़ा हिंदू बहुसंख्यक बीजेपी शासित राज्य में ईसाइयों पर योजनाबद्ध हमले किए गए, ये रेखांकित करता है.

मणिपुर में हिंसा अभी भी शांत नहीं हुई है. 3 मई को पूर्वोत्तर राज्य में पहली बार भड़की भयानक सांप्रदायिक हिंसा के ठीक आधे साल बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में चुनाव प्रचार जोरों पर है लेकिन कहीं भी मणिपुर का जिक्र तक नहीं है.

कोई भी मणिपुर के बारे में बात नहीं कर रहा है, इसके ठीक विपरीत इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष उन सभी चार राज्यों में बीजेपी बनाम कांग्रेस पार्टी की लड़ाई में एक मुद्दा बन गया है, जहां इस समय चुनाव प्रचार चल रहा है.

यदि मणिपुर का मुद्दा कहीं भी सुनाई दे रहा है तो वह केवल छोटे राज्य मिजोरम में है लेकिन वहां के चुनाव परिणाम का राष्ट्रीय राजनीति पर बहुत कम या कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.

संक्षेप में, कहे तो संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष, लेकिन तेजी से बढ़ते बहुसंख्यकवादी भारत में मणिपुर त्रासदी को चुनावी तौर पर दबा दिया गया है.

"बीरेन सिंह सरकार ने पूरा विश्वास खोया"

बीजेपी कुकी ईसाइयों को मैतेई हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करके अलग हट गई है. जबकि कुकी ईसाइयों की आबादी बमुश्किल 18 प्रतिशत है और मैतेई हिंदुओं की आबादी 53 प्रतिशत है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश हिंदुत्व प्रोजेक्ट के लिए भारी कीमत चुका रहा है.

सबसे पहले, धार्मिक हिंसा ने राज्य को मैतेई और कुकी इकाइयों में बांट दिया है और दोनों पक्षों को एक-दूसरे पर हमला करने से रोकने के लिए केंद्रीय बल "बॉर्डर" पर तैनात हैं. यहां तक ​​कि एक बफर जोन भी है, जो दोनों समुदायों को अलग करता है.

यह जितना अभूतपूर्व है उतना ही अकल्पनीय भी.

कुकी ईसाइयों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उन्होंने मैतेई हिंदू मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी राज्य सरकार पर पूरा विश्वास खो दिया है. अब, वे एक अलग प्रशासन पर जोर दे रहे हैं, जो उन्हें निशाना नहीं बनाएगा और उनका पीछा नहीं करेगा.


इसके मद्देनजर पहाड़ों में रहनेवाले ये अल्पसंख्यक समुदाय सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ हिंसा की निंदा करनेवाले बयान "लॉ एंड ऑर्डर का ब्रेकडाउन" का हवाला दे रहे हैं. कुकी इसाईयों की मांग औपचारिक रूप से और आधिकारिक तौर पर मणिपुर को दो भागों में विभाजित करने का आधार को बयां करता है.

जैसी स्थिति है, कम से कम कहें तो यह मांग पूरी तरह से उचित नहीं है लेकिन मैदानी इलाकों में रहने वाले मैतेई लोग हार नहीं मान रहे हैं और कुकी पीछे नहीं हट रहे हैं. जिससे अलगाववाद, विद्रोह और धार्मिक-जातीय संघर्षों के लंबे इतिहास वाले राज्य में विस्फोटक स्थिति पैदा हो रही है.

लूटे गए हथियारों और गोला-बारूद कहां गए?

छह महीनों में पुलिस शस्त्रागारों से चुराए गए हजारों हथियार अभी भी बरामद नहीं हुए हैं और वे ज्यादातर मैतेई मिलिशिया के हाथों में हैं. यह आने वाले दिनों, हफ्तों और महीनों में हिंसा फैलने की मुख्य रूप से वजह बन सकता है, जो उस संकट को लंबा खींच देगा, जिसका समाधान अभी तक नहीं हुआ है. अब तक लूटे गए हथियारों में से 25 फीसदी से भी कम हथियार बरामद किए जा सके हैं.

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आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, लूटे गए लगभग 5,600 हथियारों में से केवल 1,500 ही बरामद किए गए हैं और बंदूक की नोक पर छीने गए 6.5 लाख राउंड गोला-बारूद में से केवल 20,000 वापस किए गए हैं, जो पांच प्रतिशत से भी कम है.

हथियारों की लूट के संदर्भ में दो पहलू मुझे विशेष रूप से चिंताजनक लगते हैं. अधिकांश बंदूकें तीन जिलों इम्फाल पूर्व, चुराचांदपुर और बिष्णुपुर के पुलिस शस्त्रागारों से लूटी गईं लेकिन पुलिस ने लूटपाट रोकने के लिए एक भी गोली नहीं चलाई.

ये शब्दों से परे है. ये लुटेरों और प्रशासन के बीच सांठगांठ को रेखांकित करता है. समान रूप से चिंताजनक बात यह है कि चोरी किए गए 50 प्रतिशत से अधिक हथियार स्वचालित यानी ऑटोमेटिक है.

जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी भी ज्यादातर पिस्तौल से लैस हैं. कोई भी अच्छी तरह से कल्पना कर सकता है कि अगर चुराए गए स्वचालित हथियारों का खुलेआम इस्तेमाल किया गया तो निकट भविष्य में मणिपुर में क्या नर्क होगा?

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असम राइफल्स और मणिपुर पुलिस के बीच दरार

इसके अतिरिक्त, मणिपुर में हिंदुत्व के प्रोजेक्ट के कारण भारतीय सेना के सम्मान से समझौता किया गया है. बीजेपी के मैतेई नेताओं की ओर से सेना की आलोचना ने मणिपुर में आम भारतीयों की नजर में रक्षा बलों की प्रतिष्ठा को कम कर दिया है, जो निंदनीय है. ये सीधे तौर पर राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुंचाता है.

वैसे भी, सैनिकों को ऐसे समय में मणिपुर में तैनात करना पड़ा, जब चीन सीमा पर उनकी सख्त जरूरत थी. यदि बीजेपी ने सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़काना बंद कर दिया होता तो यह नौबत नहीं आती.

अपने कर्तव्य का पालन करनेवाले असम राइफल्स पर FIR दर्ज कर सशस्त्र बलों को टारगेट और अपमान किया गया. इससे पहले, असम राइफल्स की एक टुकड़ी के प्रति राज्य पुलिस का आक्रमक और अनावश्यक व्यवहार सामने आया था. जिसका एक वीडियो भी सामने आया था.

मैतेई नेता खुले तौर पर असम राइफल्स पर कुकियों के प्रति नरम रुख रखने का आरोप लगाते हैं, जबकि वे बिना किसी डर या पक्षपात के अपना कर्तव्य निभा रहे हैं. बीजेपी के मैतेई विधायकों ने असम राइफल्स के खिलाफ रैलियां निकाली हैं और उन्हें हटाने के लिए प्रधानमंत्री को ज्ञापन भी सौंपा.

मुझे आश्चर्य है कि अगस्त में असम राइफल्स के खिलाफ आपराधिक आरोप लगाने वाली FIR आधिकारिक तौर पर "सेना के नियंत्रण में आंतरिक सुरक्षा स्थिति में केंद्र सरकार की अंतिम हस्तक्षेपकारी शक्ति" के रूप में वर्णित करने जैसा था. इस FIR को बाद में वापस ले लिया गया. मामला इतना गंभीर था कि पूर्वी सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट-जनरल आरपी कलिता को सीएम से मिलने के लिए इंफाल जाना पड़ा, लेकिन FIR का क्या हुआ, ये रहस्य रह गया.

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पूरी दुनिया जानती है कि कैसे पीएम मोदी ने शांति-निर्माता की भूमिका निभाने के लिए मणिपुर का दौरा करने से इनकार कर दिया था और जब विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के कारण उन्हें संसद में बोलने के लिए मजबूर किया गया तो उन्होंने इस विषय को कैसे टाल दिया.

यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने बीजेपी के कुकी विधायकों और मिजोरम के NDA सांसदों को मिलने का समय देने से इनकार कर दिया है. अब समय आ गया है कि वे उनकी बात सुनें.

(एसएनएम आब्दी एक प्रतिष्ठित पत्रकार और आउटलुक के पूर्व डिप्टी एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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