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जन्मदिन विशेष: मायावती जी! अब ‘सर्वजन हिताय’ से आगे बढ़ा जाए?

साल 2017 विधानसभा चुनाव में बीएसपी दोहरा सकती है साल 2007 चुनाव का गणित.

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(आज 60 साल की हो गईं मायावती के सामने कई राजनीतिक चुनौतियां हैं, जो लगभग तैयार खड़ी हैं.)

मैं हाल ही में वेस्टर्न यूपी का दौरा करके लौटा हूं. इस ट्रिप के दौरान मुझे एक नेता के किस्से सुनने को मिले, जिसके बारे में लोगों ने बताया कि जिला स्तर पर लोगों के ट्रांसफर पोस्टिंग से लेकर ठेके दिलवाने और लोगों के फौजदारी मामलों में बीच बचाव करने का काम नेता जी ने अपने हाथों में ले रखा है. लेकिन जब से नेता जी ने बहुजन समाज पार्टी जॉइन की है, तब से उनके तेवर कुछ बदले-बदले हैं.

लोग आज भी नेता जी के पास अपनी सिफारिशें लेकर जाते हैं, लेकिन अब उनका जवाब होता है कि मैं बसपा का कार्यकर्ता हूं और पार्टी में सिफारिशी फैसले लेने का अधिकार सिर्फ बहन जी के पास है. बाकी लोगों को उन फैसलों का पालन करना होता है.

क्या है मायावती का पार्टी फॉर्मूला?


यह एक आम उदाहरण है, कि कैसे अपनी पार्टी को मायावती ने इतने लंबे वक्त तक बांधे रखा. पार्टी के मेंबर्स के लिए उन तक पहुंचना आसान नहीं है. इसके दो कारण रहे हैं. एक तो यह कि मायावती अपनी राय को अटल रखती हैं और दूसरा यह कि वह पार्टी में आसानी से किसी पर भी भरोसा नहीं करतीं.

और जो चर्चा सबसे ज्यादा उनके बारे में रहती है, वो यह कि मायावती भले ही संकट में हों, उन्हें किसी के ऑर्डर पर चलना पसंद नहीं है. चाहें वो उनकी राजनैतिक जरूरत ही क्यों न हो.

साल 2017 विधानसभा चुनाव में बीएसपी दोहरा सकती है साल 2007 चुनाव का गणित.
लखनऊ में पार्टी के संस्थापक कांशीराम की 9वीं पुण्यतिथि पर रैली को संबोधित करती बीएसपी चीफ मायावती (फोटोः PTI)

60 की हो चुकी हैं मायावती


आज 15 जनवरी को बसपा सुप्रीमो मायावती अपना 60वां जन्मदिन मना रही हैं. इस मौके पर लखनऊ में रैली समेत कई दूसरी जगहों पर भी कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है. सभी जिला मुख्यालयों पर भी मायावती के जन्मदिन के मौके पर खास इंतजाम किए गए हैं और पार्टी के सभी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की नजरें साल 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की मुखिया की रणनीति के हिसाब से मिलने वाले आदेश पर हैं.

उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में आए परिणामों से ऐसे संकेत मिले हैं कि जिससे उम्मीद की जा रही है कि साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में जीरो पर सिमटने वाली बसपा आगामी विधानसभा चुनाव में वापसी कर सकती है.

2017 विधानसभा चुनावों के लिए मायावती के कड़े फैसले

  • दलित वोट बैंक पार्टी की पहली प्राथमिकता.
  • दलित वोट बैंक को मायावती ने हमेशा ही महत्व दिया है.
  • पार्टी ने चुनाव के लगभग दो-ढाई साल पहले से ही अच्छे प्रत्याशियों का चयन करना शुरू कर दिया है.
  • पार्टी द्वारा घोषित किए गए प्रत्याशी अपने क्षेत्र में अपने पक्ष में माहौल बना पाएंगे.

2007 के समीकरण की बदौलत जीत की आस

साल 2017 के विधान सभा चुनाव में उम्मीद की जा रही है कि बीएसपी साल 2007 के चुनावी गणित को ही दोहराएगी. साल 2007 के चुनाव में बीएसपी ने दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण वोटों के दम पर ही 403 विधानसभा सीटों में से 206 सीटों पर जीत दर्ज कराई थी. इस चुनाव में बीएसपी को कुल 30.43 फीसदी वोट मिले थे.

2017 के लिए क्या है मायावती की तैयारी?

  • पार्टी में दलितों को प्रमुख पदों पर बिठाने के साथ ही बसपा चुनाव मैदान में करीब 25 फीसदी सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशियों को उतारने पर विचार कर रही है.
  • साल 2017 के चुनाव के लिए जय मीम जय भीम समीकरण के साथ मायावती को उम्मीद है कि दलित और मुसलमानों का गणित ही उन्हें जीत दिलाएगा.
  • चुनाव से पहले गरीबी रेखा से नीचे के उच्च जातियों के लोगों को आरक्षण दिए जाने की वकालत कर मायावती ने उच्च जाति के वोटों को भी साधने की कोशिश की है.
  • प्रदेश में 20 फीसदी दलित और करीब 18 फीसदी मुस्लिम वोट है. इसके साथ ही राज्य में करीब 11 फीसदी ब्राह्मण वोट भी है.

बीएसपी को है सकारात्मक एजेंडे की जरूरत

क्या ये पर्याप्त होगा? हालांकि बीएसपी नेताओं को इस पर संदेह है. मैं हाल ही में कई नेताओं से मिला. कई नेता पार्टी मुखिया की रणनीति के प्रति आशावादी हैं, वहीं कई नेताओं का कहना है कि प्रदेश में पार्टी के पक्ष में माहौल नहीं है.

जब भी मैं किसी से 2017 विधानसभा चुनाव के परिणामों के बारे में पूछता हूं, तो मुझे एक ही जवाब मिलता है कि मायावती की वापसी हो रही है. लेकिन जब मैं उनसे पूछता हूं कि क्या वे हमें वोट देंगे तो उनका जवाब होता है कि देखेंगे.

बीएसपी नेता, मुजफ्फरनगर
साल 2017 विधानसभा चुनाव में बीएसपी दोहरा सकती है साल 2007 चुनाव का गणित.
साल 2012 में वोट डालकर मतदान केंद्र से बाहर आती पूर्व मुख्यमंत्री मायावती (फोटोः Reuters)

आखिर पार्टी कार्यकर्ताओं में ये संदेह की स्थिति क्यों है?

मुझे लगता है कि वे यथार्थवादी हैं. जिस तरह से चीजें चल रही हैं, उससे लगता है कि वह पार्टी के आधार कहे जाने वाले दलित वोट बैंक में भी उनकी लोकप्रियता कम हुई है. उन्हें 2007 विधानसभा चुनाव में आए परिणामों को दोहराने के लिए और मेहनत करनी होगी.

विशेष मौकों पर प्रेस कांफ्रेंस, कुछ एक रैलियों और राज्यसभा के भीतर कभी कभार बोलने के अलावा मायावती साल 2012 विधानसभा चुनाव के बाद से सुर्खियों से दूर ही रही हैं. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उन्हें उत्तर प्रदेश में एक बार फिर सकारात्मक एजेंडे के साथ जोर लगाना होगा.

उन्हें उस नेता से एक या दो सबक सीखने चाहिए जिसके साथ वह खुद की तुलना कर चुकी हैं.

बीते साल जारी की गई अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि, “ब्रिटिश पीएम विन्सटॉन चर्चिल को साल 1945 में हुए द्वितीय विश्व युद्ध में जीत हासिल हुई थी लेकिन इस युद्ध के तुरंत बाद ही हुए चुनाव में वह हार गए थे. चुनाव में हारना कोई मायने नहीं रखता, मुझे इस बात पर गर्व है कि मैंने अपने शासन में क्या हासिल किया और बहुजन समाज के सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य तक पहुंचने की दिशा में कोशिश जारी रहेगी.”

चर्चिल को नई टीम और नई दिशा के साथ छह साल बाद जीत हासिल हुई थी, भले ही वह बहुत ही कम अंतर से जीते थे. ठीक ऐसे ही उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को भी मायावती से शायद यही उम्मीद है.

(मयंक मिश्रा अंग्रेजी अखबार बिजनेस स्टेंडर्ड के नियमित स्तंभकार हैं.)

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