अटल बिहारी वाजपेयी से मेरी चार मुलाकातें हैं. स्टूडेंट से लेकर जर्नलिस्ट के सफर तक हर मुलाकात की बड़ी खास यादें हैं. अटल जी एकजैसे बने रहे जब विपक्ष के नेता थे तब भी वो उतने ही सहज थे और फिर प्रधानमंत्री बने तो भी उनके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आया.
अटल जी से चार मुलाकातें मेरे लिए बड़ी पूंजी हैं और ऐसा लगता है कि जैसे अभी कल की ही बात हो.
1. पहली मुलाकात | साल 1979, जगह- दिल्ली- जब मैं कॉलेज स्टूडेंट था
हम कॉलेज के पांच दोस्त दिल्ली और कश्मीर की यात्रा पर निकले थे. दिल्ली में घूमते हुए वाजपेयी जी का घर दिखा. उस वक्त वो विदेश मंत्री थे. तब सुरक्षा के ये हाल नहीं था. हम अंदर घुस गए. घर के लॉन में, हमारा नंबर आया तो उन्होंने कहां से आए हो, जैसे सवाल पूछे. वो मथुरा से लौटे थे.
उन्होंने अपने स्टाफ को कहा. इनके लिए पेड़े लाओ. पेड़े खाने के बाद हमने उनके साथ फोटो खिंचवाने आग्रह किया.
वो उस दिन पैंट-शर्ट में थे. उन्होंने अपने कपड़ों की तरफ इशारा किया और कहा कि चलो, फोटो ले लो, लेकिन तुम्हारे गांव के लोग कहेंगे देखो वाजपेयी शहर में कैसे कपड़े पहनता है.
2. दूसरी मुलाकात | साल - 1990, जगह- दिल्ली- बतौर पत्रकार
तब मैं नवभारत टाइम्स में था और बीबीसी रेडियो पर भी रिपोर्टिंग और कमेंट्री करता था. वो मंडल- कमंडल वाले दिन थे. मैंने वाजपेयी से इंटरव्यू का समय मांगा. मिलने पहुंचा और अपना परिचय देना शुरू किया तो उन्होंने बीच में टोका और कहा
मैं आपकी खबरें पढ़ता हूं. आपकी लेखनी बड़ी सशक्त है. तब मैं दिल्ली में नया था, लगा कि पहचान बन रही है.
3. तीसरी मुलाकात | साल -1998, जगह- दिल्ली
पोखरण विस्फोट के बाद
अब मैं आजतक में था. सूचना आई कि प्रधानमंत्री निवास में एक ब्रीफिंग है. समय कम था. रिपोर्टर दूसरी खबरों के लिए निकले हुए थे. एक टीम को वहां पहुंचने को कहा गया. (शायद उस दिन दीपक चौरसिया कहीं और थे और मैंने अखिलेश शर्मा को वहां बुला लिया था) और एहतियातन मैं भी पहुंच गया और इतिहास बनते हुए देखा.
हम सात रेसकोर्स रोड में लॉन में इकठ्ठा हुए थे. पहले प्रमोद महाजन आए. एक लाइन का ऐलान किया कि प्रधानमंत्री जी एक महत्वपूर्ण घोषणा करने आ रहे हैं. वाजपेयी जी आए. नपी तुली सी छोटी मुस्कान, शांत और गंभीर भाव के साथ उन्होंने पोखरण में परमाणु परीक्षण की जानकारी दी. मुश्किल से तीन-चार वाक्यों का ऐलान था वो. एक शब्द न ज्यादा, न कम. न कोई सवाल जवाब.
ये घटना बहुत याद रहती है, क्योंकि दुनिया के लिए 1974 के परमाणु विस्फोट के बाद भारत का ये बड़ा स्ट्रैटेजिक धमाका था. जो बेहद मद्धम स्वर और सौम्यता से बताया गया.
4. चौथी मुलाकात | साल- 2000, जगह- इटली, पुर्तगाल
मीडिया और सरकार के बीच वो दिन काफी मस्त मतलब “चिल्ड आउट” थे. तब प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों में मीडिया उन्हीं के विमान में साथ होता था. अशोक टंडन पीएमओ में सूचना सलाहकार थे. सभी रिपोर्टरों को लगता था कि अशोक जी बड़े हेल्पफुल हैं. प्रधानमंत्री तब यात्रा से वापसी के दौरान विमान में प्रेस से बात करते थे.
यात्रा के दौरान ही नहीं, चलते-चलते भी पीएम से बाइट मांगना मुश्किल था. लेकिन मुझे याद है कि लिस्बन में एक कार्यक्रम में हमने सीधे वाजपेयी जी को आवाज देकर, भारत की किसी घटना पर एक “रिएक्शन बाइट” ले ही ली. शायद उस क्षण सिर्फ दो कैमरा टीमें ही मौजूद थीं. हमने उसका फायदा उठा लिया.
एक और परंपरा थी. वापसी के दौरान अगर विमान में किसी का जन्मदिन होता तो केक कटता. जब हम लिस्बन से लौट रहे थे, तब मेरे सहयोगी कैमरामैन राजीव गुप्ता का जन्मदिन निकल आया. वाजपेयी जी को जानकारी दी गई तो उन्होंने राजीव को अपने कक्ष में बुलाकर केक काटा, बधाई दी और ऑटोग्राफ भी.
वाजपेयी जी की हैंडराइटिंग और दस्तखत से लोग काफी अच्छी तरह से परिचित थे. उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी लेखनी में छपते रहते थे. मेरे परिजनों के पास मैंने कई चिट्ठियां देखी थीं. राजीव ने जब मुझे उनके हस्ताक्षर दिखाए तो मैंने पहली बार नोटिस किया कि लिखावट में बदलाव है. हाथों का हल्का कंपन हर्फों में उतर आया था.
और उनका पॉज!
मेरी इन मामूली सी यादों को छोड़ भी दें तो हम सब टीवी पत्रकारों को जिस एक बात के लिए वाजपेयी जी खूब याद रहते हैं वो है उनकी बाइट की एडिटिंग. शब्दों के बीच वो लंबा विराम (पॉज) लेते थे. 60-120 सेकेंड का स्क्रिप्ट में वाजपेयी जी की बाइट को छोटा करना सबसे टेढ़ा काम होता था.
उनके सेंस ऑफ ह्युमर को देखते हुए मुझे तो लगता है कि वो हम बाइटवीरों को टीज करने के लिए ही लंबा पॉज लेते थे!
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