मोदी कैबिनेट (Modi Cabinet) में फेरबदल हो गया और जनता को यह संदेश दिया गया कि कोविड-19 महामारी को काबू करने में सरकार से जो कमियां रह गई थीं, उन्हें दूर कर लिया गया है. खास तौर से दूसरी लहर के दौरान. लेकिन यह पूरी कवायद राजनैतिक बंदोबस्त से ज्यादा कुछ नहीं है.चूंकि इस मोर्चे पर भी, कुछ ऐसे चेहरों को कैबिनेट में शामिल किया गया है, या ऐसे लोगों को पोर्टफोलियो बांटे गए हैं, कि हैरानी होती है. ऐसा महसूस होता है कि इनके अलावा कोई चारा नहीं था.
जैसे वीरेंद्र कुमार- वह मोदी 1.0 में जूनियर मंत्री थे. लेकिन 2019 में उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली. अब उन्हें कैबिनेट में शामिल कर लिया गया है. क्या यह सामाजिक संतुलन बनाने का हताशा भरा फैसला है- चूंकि वह एक दलित हैं और थावरचंद गहलौत की एवज में लाए गए हैं.
अब स्वास्थ्य, श्रम, शिक्षा और सामाजिक न्याय जैसे अहम मंत्रालयों के प्रभारी मंत्रियों को मंत्रिपरिषद से बाहर का रास्ता दिखाया गया है लेकिन वित्त मंत्री को बख्श दिया गया है. क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वह एक महिला हैं. महामारी के दौरान ये मंत्रालय फ्रंटलाइन पर थे.निर्मला सीतारमण न सिर्फ कैबिनेट में बरकरार हैं, बल्कि वित्त मंत्री भी बनी हुई हैं. इसके बावजूद कि अर्थव्यवस्था डांवाडोल है.
लेकिन अगर उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई की जाती, चाहे उन्हें कम महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो दिया जाता, तो भी सरकार की शान में बट्टा लग जाता. अभी तो वह सीना ठोंककर कह रही है कि यह 11 महिला मंत्रियों वाली सरकार है.दूसरी तरफ तुलनात्मक रूप से एक बेनाम चेहरा देबश्री चौधरी को अलविदा कह दिया गया- क्योंकि पश्चिम बंगाल से ऐसे मुखड़ों को मंत्रिमंडल में शामिल करना था जिनका राजनैतिक फायदा उठाया जा सके.
उलट-पुलट फैसले
हर्षवर्धन, संतोष गंगवार और रमेश पोखरियाल निशंक जैसे मंत्रियों को हटाने की दलील दी गई, उनका कामकाज खराब था. यह एक बेतुकी बात है, और विरोधाभासी भी. चूंकि यह वह सरकार है, जिसके बारे में मशहूर है कि वहां सभी फैसले केंद्रीय स्तर पर लिए जाते हैं. इसके ज्यादातर मंत्री फाइलों को आगे बढ़ाने का काम करते हैं, या सिर्फ फैसलों को अमल में लाने का. मार्च 2020 में कोविड-19 की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय ने स्वास्थ्य संबंधी सभी मामलों को रोजाना खुद ही देखना शुरू कर दिया था.
केंद्र ने आपदा प्रबंधन कानून के जरिए सारे अधिकार अपने हाथों में ले लिए थे. राज्य सरकारों की राय और उनके अधिकारों को नजरंदाज किया जा रहा था और देश का संघीय स्वरूप तहस नहस हो गया था.
रवि शंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर को भी हाशिए पर धकेल दिया गया. सोशल मीडिया और मीडिया इंटरमीडियरीज कंपनी पर सरकार ने जिस तरह धावा बोला था, असल में दोनों ने इसी की कीमत चुकाई है. यूं यह समझना मुश्किल है क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि ये दोनों सिर्फ अपनी निजी राय रख रहे हों.उनके इस उत्साह को पहले भी काबू किया जा सकता था लेकिन उन्हें जिस तरह हटाया गया, उससे यही लगता है कि सरकार को अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते बलि के बकरे की तलाश थी.इन दोनों की विदाई के भी वही कारण हैं, जो उन तीनों के थे जिनका हमने ऊपर जिक्र किया है.
भले ही सारे फैसले शीर्ष नेतृत्व की तरफ से लिए जाते हों लेकिन सरकार के अनाड़ीपन और लापरवाही की सजा प्यादों को भुगतनी पड़ती है. लोगों के गुस्से को शांत करने का यही रास्ता होता है.
सामाजिक संतुलन बनाने की कोशिश
कहा गया है कि ‘प्रतिभा’ और ‘प्रदर्शन’ को कबूल किया गया है और लोगों को इनाम दिया गया है. लेकिन सच्चाई क्या सिर्फ इतनी भर है. जैसा कि हमने महामारी के दौर में देखा. नए रंगरूट अनुराग ठाकुर ने सिर्फ एक ही हुनर दिखलाया. इलेक्शन कवरेज के शुरुआती दिनों में जो प्रणय राय के लिए विनोद दुआ किया करते थे. जो अंग्रेजी में कहा गया, उसका हिंदी में तुरत फुरत तर्जुमा कर दिया.इसी तरह क्या नए कानून मंत्री किरण रिरिजू युवा मामलों और खेल के ‘सफल’ मंत्री थे?
अगर जिन लोगों को ऊंचा चढ़ाया गया है, उनका चयन व्यक्तिपरक था, तो ऐसा उनके लिए भी होना चाहिए जिनकी उपलब्धियां जबरदस्त रही हैं. उन्हें भी राजनीति और सरकार, दोनों में जगह मिलनी चाहिए. लेकिन जैसा कि सुशील मोदी के मामले में हुआ, व्यक्तिगत पूर्वाग्रह और मनमुटाव के चलते उन्हें नहीं चुना गया.मंत्रियों के कामकाज की दलील तो दी ही गई. एक और बात का खास ध्यान रखा गया. वह है सोशल इंजीनियरिंग. मंत्रिपरिषद में फेरबदल की पूरी कवायद का लब्बोलुआब यही रहा.
मंत्रिपरिषद से जितने भी लोगों को हटाया गया, उन्हें एक थावर चंद गहलौत को छोड़कर, बाकी के सभी अगड़ी जातियों के हैं. उनकी बजाय बहुत सोच-समझकर, माथापच्ची करके, अनुसूचित जातियों और दूसरी पिछड़ी जातियों के नेताओं को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया है.
राष्ट्रपति भवन में कार्यक्रम के खत्म होने से पहले पार्टी ने अनौपचारिक रूप से एक बैकग्राउंड नोट बांटा था जिसमें कहा गया था कि नई कैबिनेट में 12 दलित समुदायों से 12 दलित होंगे (यहां यह बताने की कोशिश की गई कि बीजेपी सिर्फ उन जातियों को मजबूत नहीं बना रही, जोकि पहले से ताकतवर हैं, जैसा कि बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियां करती हैं). यह भी फैलाया गया कि नई मंत्रिपरिषद में आठ आदिवासी सदस्य होंगे (अलग अलग जातियों के) और अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 मंत्री होंगे. इनमें से पांच केंद्रीय कैबिनेट में शामिल होंगे.
इस नोट में जोर दिया गया कि 47 गैर सवर्ण नेताओं की मौजूदगी इस बात की तरफ इशारा करती है कि मोदी 2.0 दरअसल सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों की सरकार है- गरीबों की, पीड़ितों की, शोषितों की, वंचितों की सरकार है.
अगड़ी जातियों के गुस्से को शांत करने की कोशिश में पार्टी के नेता यह बताने की भी कोशिश कर रहे हैं कि 29 मंत्री अन्य समुदायों हैं, जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, भूमिहार और कायस्थ. चूंकि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं जिसमें लोकसभा के चुनावों सरीखी टीमटाम होने की उम्मीद है.
लेकिन मंत्रिपरिषद के जातीय और लिंग आधारित समीकरणों का अच्छा असर, शायद ‘सामान्य हालात’ में जरूर पड़ता. पर उस राज्य पर इसके असर का अंदाजा लगाना मुश्किल है जहां ज्यादातर लोग महामारी की चपेट में हैं. यह एक ऐसा पहलू है जिसका आकलन तब किया जा सकेगा, जब व्यावहारिक स्तर पर आंकड़े इकट्ठा करना संभव होगा.
क्या इस फेरबदल से उत्तर प्रदेश के लोग शांत होंगे?
जिन राज्यों में पार्टी को चुनौतियों का सामना करना पड़ा रहा है, या जहां आने वाले कुछ सालों में चुनाव होने वाले हैं, उनके लिए प्रधानमंत्री और उनके साथियों ने तरकश से तीर निकाले हैं. उन राज्यों में सोशल इंजीनियरिंग पर खास ध्यान रखा गया है. मंत्रिमंडल में सात सदस्य उत्तर प्रदेश से हैं, पश्चिम बंगाल-महराष्ट्र-
कर्नाटक में से हरेक से तीन-तीन नेताओं को चुना गया है. गुजरात से तीन और बिहार-मध्य प्रदेश-ओड़िशा से दो-दो लोग चुने गए हैं.
अब हम इस पर बहस कर सकते हैं कि क्या उत्तर प्रदेश जैसे अहम राज्य के लोग, जोकि 2022 के शुरुआती महीनों में वोट करेंगे, इस उठा-पटक से शांत हो जाएंगे.
लोगों की इतनी बड़ी खेप को भर्ती करना, सरकार की मायूसी को दर्शाता है. इससे यह भी साबित होता है कि जनता को एहसास है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार में राजपूतों का सामाजिक बोलबाला मजबूत हुआ है.
सिर्फ पिछड़े और दलित ही नहीं, ब्राह्मण भी बीजेपी से नाखुश हैं क्योंकि वह अपने मुख्यमंत्री को काबू में नहीं रख पा रही. 2017 और 2019 के चुनावों में जो सामाजिक गठबंधन बने थे, उनका पकड़ कमजोर पड़ी है. क्या आखिरी पहर में पिछड़े और दलित मंत्री बनाने से कोई फायदा होने वाला है.
इसके अलावा यह भी देखना है कि क्या आदित्यनाथ राज्य में नए केंद्रीय मंत्रियों में कोई राजनैतिक भूमिका निभाने देंगे और उस इलाके में सेंध लगाने देंगे जिसे उन्होंने बहुत कामयाबी से संभाला हुआ है. उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में केंद्र के दखल को भी मंजूर नहीं किया है.
आने वाले समय में इतिहासकार मोदी 2.0 के दौर को इस बात से आंकेंगे कि उसने कोविड-19 महामारी को कैसे काबू किया. कैसे इंतजामात किए गए. अब यह फेरबदल भरोसा नहीं जताता क्योंकि इसमें भी नेताओं की काबलियित कमोबेश पहले जैसी ही है.
पहले इस पर चर्चा की गई थी कि बाहर से प्रतिभाशाली लोग, टेक्नोक्रैट्स लाए जाएंगे लेकिन नए चेहरे भी उसी पिछली जमात का हिस्सा हैं.
इसमें सिर्फ एक अपवाद है. रेलवे, कम्यूनिकेशंस और इलेक्ट्रॉनिक्स तथा आईटी मंत्रालयों की कमान अश्विनी वैष्णव को सौंपी गई है. वह पूर्व ब्यूरोक्रेट और प्राइवेट सेक्टर प्रोफेशनल हैं. बीजद के समर्थन से वह ओडिशा से बीजेपी के टिकट पर राज्यसभा चुनाव जीते थे.
कैबिनेट की फेरबदल एक राजनैतिक दांवपेंच है और उम्मीद नहीं कि इससे सरकार की छवि एकाएक सुधरेगी. शासन व्यवस्था सुधरे, इसके लिए मोदी के ही शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है- ‘गो लोकल’. महामारी ने राज्यों में उप क्षेत्रीय स्तर तक सरकार के विकेंद्रीकरण को जरूरी बनाया है.
हां, फेरबदल से पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच संदेश जाएगा कि मोदी ने बुरी धारणाओं को मिटा दिया है और नया नेरेटिव गढ़ा है. वह यह कि टूटे हुए रिश्तों को फिर से जोड़ा जाए और नए समाजिक गठबंधन बुने जाएं. इस फेरबदल से उनमें यह उम्मीद जगेगी कि उनका नेतृत्व पर कमजोर नहीं हुआ है और उसमें कुछ नया करने की क्षमता बची हुई है.
(लेखक दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @NilanjanUdwin है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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