यह पूरी मानवजाति के लिए उथल-पुथल का दौर है और इसने दुनिया के तमाम देशों को हिला कर रख दिया है. सारी मान्यताएं उड़ गयी हैं. जिसे कुछ लोगों ने विवादास्पद रूप से ‘वुहान वायरस’ कहा था, उस कोविड-19 ने हमारी दुनिया को अव्यवस्थित कर दिया है और पीएम मोदी की योजनाओं को भी. प्रधानमंत्री ने अपने लगातार दूसरे कार्यकाल में जिस गति से चीजें शुरू की थीं, उसने कई लोगों को चौंकाया था. इनमें उनके दुश्मन भी थे. स्पष्ट तौर पर वे ऐसे नेता के रूप में दिखे, जो बहुत हड़बड़ी में थे.
मोदी 1.0 ने समाज के निचले तबके तक पहुंचने और गरीबों को सम्मान दिलाने का काम किया, जिसकी कमी आजादी के 70 साल बाद तक लोगों ने महसूस की. पीएम मोदी ने जितने भी कदम उठाए वे कोरोना काल में वरदान साबित हुए. पहला कार्यकाल भारत को विश्व मानचित्र पर ग्लोबल प्लेयर के तौर पर स्थापित करने से भी जुड़ा था.
इंटरनेशनल सोलर एलायंस का तेजी से तैयार होना उस ग्लोबल वार्मिंग लॉबी को शानदार जवाब था जो कोशिश कर रहे थे कि उच्च खपत वाले विकसित अर्थव्यवस्थाओं के पापों का खामियाजा विकासशील अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़े. जिन देशों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता था उनके साथ मोदीजी ने बहुआयामी संबंध विकसित किए.
जो देश आपस में शत्रु थे और शीत युद्ध काल के गुजर जाने के बाद जिन देशों के साथ भारत कभी एक साथ डील करने का साहस नहीं कर सकता था, उन्हें भी वे इस अलायंस में जोड़ सके.
करीब 10 साल तक आर्म्स की खरीद रुके रहने के बाद उन्होंने रक्षा सौदा हासिल किया. उन्होंने विश्व समुदाय को भरोसा दिलाया कि भारत का मकसद कारोबार है. मोदी 2.0 ने विदेश नीति की गति को बनाए रखा.
साहसिक कदम लेकिन खराब संवाद
भारत के संदेश को सही तरीके से व्यवस्थित करते हुए मोदी 2.0 की शुरुआत हुई, जिसे अब तक सेकुलर लॉबी ने बंधक बनाकर रखा था. सबसे साहसिक फैसला था आर्टिकल 370 को बेअसर करना और जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा और बेहद पक्षपातपूर्ण आर्टिकल 35ए को खत्म करना. 70 का दशक जिस कायराना राजनीति से आगे बढ़ा, उससे यह बिल्कुल अलग साहसिक एप्रोच था. इससे कश्मीर घाटी से बाहर के लोगों को न्याय मिला, जो घाटी के राजनीतिज्ञों के ‘खेल’ के कारण इससे वंचित थे. पाकिस्तान की हर कोशिश आक्रामक तरीके से विफल कर दी गयी. वर्षों से चल रहा राम मंदिर का मुद्दा भी आखिरकार अदालत के माध्यम से हल कर लिया गया.
पीएम मोदी अलग-अलग लॉबी के दबाव के सामने नहीं झुके और विधायिका का रास्ता चुना. यह शानदार शुरुआत थी.
सीएए को लागू करना साहसिक कदम था, जो बंटवारे का अधूरा एजेंडा है. एक मजबूत संदेश दुनिया को, और खासकर पड़ोसी देशों को दिया गया कि भारत अपने उन पूर्व नागरिकों के साथ है जो इस्लामिक देशों में गैर मुस्लिम होने की वजह से सताए जाते रहे हैं.
हालांकि उनकी संख्या बहुत कम है. एनपीआर को लागू करने की तत्परता दिखलाती है कि बीजेपी अवैध प्रवासियों का मुद्दा उठाने को तैयार है और भारतीय राजनीति को वह अपने तरीके से हांकने की कोशिश कर रही है. हालांकि यह साफ है कि यह कदम राजनीतिक रूप से आत्महत्या भी साबित हो सकती थी. लेकिन मोदी के लिए राष्ट्र सबसे पहले था.
दुर्भाग्य से सरकार और सत्ताधारी दल की ओर से खराब संवाद के कारण वाम-इस्लामिक धुरी दुनिया भर में यह कोलाहल मचाने में कामयाब रही कि भारतीय मुसलमानों के अधिकार कम हो रहे हैं. हालांकि यह दिन के उजाले की तरह बहुत साफ था कि सीएए भारतीय समुदाय में किसी के खिलाफ नहीं था.
करों के लिए एकांगी सोच, एमएसएमई सेक्टर को कोई फायदा नहीं
दूसरा दर्द था कराधान के लिए अधूरी सोच और टैक्स व्यवस्था का सरलीकरण. बड़े कॉरपोरेट घरानों को टैक्स में छूट मुद्दा नहीं है. मगर, एमएसएमई सेगमेंट को तकरीबन कोई फायदा नहीं होना हतोत्साहित करने वाला है जो कॉरपोरेट की तुलना में कहीं अधिक धन और रोजगार पैदा करता है.
जटिल जीएसटी को तेजी से लागू करने में सरकार को बड़ी सफलता मिली, लेकिन छोटे कारोबारियों की जिन्दगी को आसान बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया, जो टैक्स व्यवस्था में बदलाव की वजह से जीएसटी के दायरे में आ गये थे. लेकिन कुलमिलाकर अब भी माहौल मोदी सरकार के साथ है.
राज्यों को एक साथ लाने की कोविड रणनीति : सही मायने में संघवाद
और, फिर कोरोना वायरस का हमला हुआ. समय पर उनकी साहसिक कार्रवाई ने उन्हें लोगों से जोड़ा. आम लोगों से सहयोग हासिल करने की उनकी क्षमता देखकर, जिसे देश भर में स्वैच्छिक संगठनों का भी समर्थन है, दुनिया ईर्ष्याभाव से चकित होकर देखती रह गयी.
राजनीतिक रूप से आरम्भिक हिचकिचाहट के बाद अब मोदी इस महामुश्किल प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने के लिए तकरीबन सभी राज्यों को साथ लेकर साझा राष्ट्रीय प्रयास करने में सक्षम हो चुके थे. सही मायने में संघीय व्यवस्था काम करती नजर आयी.
प्रवासी संकट जो कारोबार और उद्योगों के लिए नियमों की कमी से पैदा हुआ
हालांकि मैंने मोदीजी का ज्यादातर समय समर्थन किया है, मैंने समय पर वित्तीय गतिरोध को दूर करने में उनकी अक्षमता को भी नोट किया है जो एक बार फिर खुद सरकार के लिए ही घातक साबित हुई है.
हालांकि डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर्स के जरिए मदद निचले तबके तक अद्भुत तरीके से पहुंचा है लेकिन उस तबके को उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया गया जो राजस्व पैदा करता है. वित्तीय पैकेज ने 1.0 जितना भरोसा दिलाया था उतना वह प्रभावी नहीं दिखा. प्रवासी समस्या का एक कारण समय पर उद्योग और कारोबार की नीति का न होना रहा है.
गांवों की तरफ प्रवासियों का उमड़ पड़ना कई हफ्ते पहले शुरू हो गया था. वित्तीय पैकेज 2.0 एक महीने की देरी से आया. जलधारा का प्रवाह बाढ़ बन गया. ऐसा तब हुआ जब मजदूरों ने महसूस किया कि उनके बॉस अब और सैलरी नहीं दे पाएंगे और इस बेमियादी लॉकडाउन का अंत कब होगा, पता नहीं.
अब जब उद्योग गति पकड़ने को तैयार हैं तो कहां हैं प्रवासी मजदूर?
बहरहाल मैं केंद्र के बजाए राज्य सरकारों को इस संकट के लिए जिम्मेदार ठहराता हूं. यह याद रखें कि उद्योग और श्रमिक दोनों के पास खोने के लिए कुछ नहीं था और न ही इस पलायन से उन्हें कुछ हासिल होना था.
हम जानते हैं कि राजकोषीय नीतियां धीमी चलती हैं और हम इस बात से भी अवगत हैं कि बैंकर्स छोटे कारोबारियों को सरकारी निर्देशों के बावजूद एडवांस लोन देने में अनिच्छा दिखाते हैं. मैंने कई बार यह देखा है कि देर से मिली राहत किसी ऐसे मरीज को मुंह में दी जाने वाली दवा की तरह होती है जो गंभीर अवस्था में पहुंच चुका हो.
अब जबकि ऐसा लगता है कि वित्तीय पैकेज 2.0 के कारण उद्योग धीरे-धीरे गति पकड़ रहे हैं, प्रवासी गायब होते दिख रहे हैं.
कौन निर्माण करेगा? कौन मशीनों पर काम करेगा? विचलित करने वाली और दिलों को छूने वाली तस्वीरें इतनी जल्दी जेहन से नहीं जाएंगी. लोगों को मोदीजी पर इतना भरोसा है कि राज्य सरकारों की अकर्मण्यता का असर उनके काम पर दिखेगा.
‘स्वदेशी’ और ‘आत्मनिर्भरता’ पर जोर आजादी के बाद से हमारा लक्ष्य होना चाहिए था
विनाशकारी कोरोना वायरस का एक अच्छा नतीजा यह सामने आया है कि इसने राजस्व सुधार को आगे बढ़ाया है जिसकी लंबे समय से प्रतीक्षा थी. वित्तमंत्री की ओर से घोषित वित्तीय पैकेज का सबसे बेहतरीन हिस्सा है कृषि सुधार, कृषि के लिए प्रेरणा, फूड चेन में सुधार और संबंधित उद्योग-धंधे. टैक्स में सुधार भी इस रीफॉर्म का हिस्सा बन चुका है. मैं आश्वस्त हूं कि ये सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था का चेहरा बदल देंगे.
स्थानीय (स्वदेशी) और आत्मनिर्भरता पर जोर की बहुत ज्यादा आवश्यकता है और आजादी के बाद से ही यह हमारा लक्ष्य होना चाहिए था.
ये सिद्धांत आज और अधिक प्रासंगिक हैं क्योंकि ज्यादातर देशों ने खुद को बचाने के लिए अपनी सीमाओं पर बाड़ लगा रखे हैं. इसके लिए आगे जमीन पर कार्रवाई जरूरी है जो बाबुओं को काम पर मुस्तैद करे. एक सरकार स्वदेशी पर काम नहीं कर सकती अगर सलाहकार विदेशी हों. आर्थिक नीतियों पर नियंत्रण निश्चित रूप से भारतीयों के हाथों में आना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से रोमांस का वक्त खत्म हो चुका है.
अगर नीतियां ‘बाबूक्रेसी’ में उलझी रहेंगी तो काम कैसे चलेगा?
आखिर में, इस सरकार को मखमली ग्लोव्स से अपनी मजबूत पकड़ नौकरशाहों पर दिखानी होगी. हालांकि यही काफी नहीं है. 6 साल सत्ता में रहने के बाद कोई भी सत्ताधारी दल नौकरशाहों पर आरोप नहीं लगा सकती. बस एक उदाहरण काफी है यह बताने के लिए कि नौकरशाही कैसे किसी अच्छी सरकारी पहल को खत्म कर देती है.
एक जिम्मेदार चार्टर्ड अकाउंटेंट ने सोशल मीडिया से नोट किया कि लॉकडाउन के बाद से 4,119 सर्कुलर जारी किए गये, जिनमें से कई स्पष्टीकरण हैं और स्पष्टीकरण पर भी स्पष्टीकरण हैं. यह बढ़ा-चढ़ाकर कही गयी बात हो सकती है. लेकिन अगर सरकारी नीतियां बाबू-क्रेसी के अंतहीन दलदल में फंस जाएं तो लोग काम कैसे कर सकते हैं?
कोरोना वायरस कहीं नहीं जा रहा है. लोग मोदीजी के नेतृत्व की ओर देख रहे हैं. आने वाले महीनों में मुधे ज्यादा हार्ड टास्क मास्टर, अधिक महत्वाकांक्षी और हमेशा की तरह ऊर्जावान मोदी 2.1 का मुझे इंतजार है.
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