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प्राइवेट सेक्‍टर से नौकरशाह चुनेगी मोदी सरकार, UPSC की कीमत पर?

जिन लोगों ने निजी कंपनियों में काम किया है, उन्हें सरकार से जोड़ने से गवर्नेंस में सुधार होगा, न कि नुकसान.

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बाहर से ज्वाइंट सेक्रेटरी लेवल पर नियुक्ति (लेटरल एंट्री) के सरकार के हालिया विज्ञापन को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. सरकार ‘प्रतिभाशाली और जुनूनी’ लोगों को लाना चाहती है. वह कृषि, पर्यावरण, रेवेन्यू, वित्तीय सेवाओं, सड़क परिवहन, शिपिंग, अक्षय ऊर्जा, सिविल एविएशन और कॉमर्स जैसे क्षेत्रों में बाहरी लोगों की ज्वाइंट सेक्रेटरी पद पर नियुक्ति करना चाहती है, जो आमतौर पर किसी मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी होते हैं. उसने इसके लिए तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट ऑफर किया है, जिसे बढ़ाकर पांच साल तक किया जा सकता है.

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पहली नजर में इसमें कोई बुराई नहीं दिखती. आखिर जिन लोगों ने निजी क्षेत्र या पीएसयू या एनजीओ या कंसल्टेंसी कंपनियों में काम करते हुए अपना लोहा मनवाया है, उन्हें सरकार से जोड़ने से गवर्नेंस में सुधार होगा, न कि नुकसान.

UPSC से खिलवाड़ ठीक नहीं

लेकिन यह कोई नया आइडिया नहीं है. सरकार में बाहर से पहले भी कई लोगों को लाया गया है, जिनमें लवराज कुमार, मंतोष सोढ़ी, डॉ. मनमोहन सिंह, विजय केलकर, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, जयराम रमेश सहित कई अन्य नाम शामिल हैं. फिर लेटरल एंट्री के हालिया प्रस्ताव को लेकर लोगों के मन में आशंका क्यों है?

ऐसा लगता है कि सरकार ने यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन का रोल खत्म कर दिया है, जो सिविल सर्विसेज के लिए नियुक्ति करने वाली संवैधानिक संस्था है. यह संस्था 92 साल पुरानी है और इसके पास अलग-अलग सरकारी पदों पर नियुक्त का तजुर्बा, कौशल और इंफ्रास्ट्रक्चर है, जो यूपीएससी को इस काम के लिए सबसे भरोसेमंद एजेंसी बनाता है.

संविधान के तहत यूपीएससी को स्वायत्तता मिली हुई है और वह पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से काम करता आया है. यूपीएससी पर किसी का जोर या दबाव नहीं चलता.

बहुत कम पदों पर नियुक्ति को इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है. उनमें खास तौर पर साइंटिफिक स्पेशलाइजेशन वाले पद शामिल हैं. हालांकि, ऐसी नियुक्ति के नियम बनाने के लिए भी यूपीएससी से सलाह करना जरूरी है. इस सरकार ने जो प्रस्ताव पेश किया है, उसमें यह संवैधानिक अनिवार्यता खत्म कर दी गई है. अगर मेरी यह बात गलत हो, तो मैं स्पष्टीकरण के बाद इसे वापस लेने के लिए तैयार हूं. इसलिए लेटरल एंट्री की पहल पर कानूनी तौर पर सवालिया निशान लग गया है.

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सेलेक्शन कमेटी पर दुविधा

यूपीएससी की जगह नियुक्ति का काम एक खास समिति करेगी. इससे और भी सवाल खड़े होते हैं. इस समिति का गठन कौन करेगा? इसके सदस्यों को चुनने की जिम्मेदारी किसे दी जाएगी? इसकी क्या गारंटी है कि जो लोग समिति में होंगे, वे अपने राजनीतिक आकाओं का हुक्म नहीं बजाएंगे?

क्या 10 में से हरेक पद के लिए अलग सेलेक्शन समिति होगी या एक ही समिति सारे पदों पर भर्तियां करेगी? वह कैसे तय करेगी कि किसी क्षेत्र के लिए किस तरह की योग्यता की दरकार है? समिति कैसे पता लगाएगी कि कोई कैंडिडेट ‘प्रतिभाशाली और प्रेरित’ होने के साथ अद्भुत क्षमता रखता है?

यहां प्रेरित का क्या मतलब है? यह वैसा ही लगता है, जैसे इंदिरा गांधी को ‘प्रतिबद्ध’ नौकरशाही की तलाश थी. सेलेक्शन प्रोसेस को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाए रखने के लिए क्या तरीके अपनाए जाएंगे?

इस सरकार ने सीईसी, यूपीएससी, सीवीसी और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं, उच्च शिक्षण संस्थानों, एकेडमिक और सांस्कृतिक संगठनों में जो नियुक्तियां की हैं, वह निष्पक्ष नहीं रही हैं. एक खास विचारधारा के लोगों को इनमें बिठाया गया है और मेरिट को उतनी तवज्जो नहीं दी गई है. इसलिए ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद पर बाहरी नियुक्तियों को लेकर ऐसी आशंका बेवजह नहीं है.

आखिर इससे क्या हासिल होगा?

अच्छे एडमिनिस्ट्रेशन और मैनेजमेंट के लिए पहला सिद्धांत समस्याओं की पहचान करना होता है. उसके बाद ही उनका समाधान ढूंढा जा सकता है. अभी यह समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार लेटरल हायरिंग से क्या हासिल करना चाहती है. क्या नौकरशाहों के पास वह स्किल नहीं है, जिसकी सरकार को जरूरत है? क्या उसने पता करने की कोशिश की है कि अधिकारियों के पास वैसी एक्सपर्टाइज है या नहीं? जिन क्षेत्रों में जरूरी स्किल की कमी सरकार को लग रही है, क्या उसने उन क्षेत्रों की पहचान की है?

जिन लोगों ने निजी कंपनियों में काम किया है, उन्हें सरकार से जोड़ने से गवर्नेंस में सुधार होगा, न कि नुकसान.
अभी यह समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार लेटरल हायरिंग से क्या हासिल करना चाहती है.
(Photo: PTI)
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लकीर के फकीर क्यों बन रहे हैं हम

सरकार के प्रस्ताव में जहां संबंधित क्षेत्रों के एक्सपर्ट्स को लाने की बात कही गई है, वहीं इसके लिए शैक्षणिक योग्यता ग्रेजुएट रखी गई है और भारत सरकार के ज्वाइंट सेक्रेटरी के मुकाबले के किसी पद पर 15 साल के वर्क एक्सपीरियंस की मांग की गई है. जो लोग आईएएस की आलोचना करते हैं, वे अक्सर उनके सामान्य शैक्षणिक बैकग्राउंड का मजाक उड़ाते हैं. वे कहते हैं कि आईएएस को जो ट्रेनिंग मिलती है, उसके और उनके कामकाज के बीच कोई तालमेल नहीं होता.

ऐसे में सरकार को नई पहल के जरिये इस कमी को दूर करना चाहिए था. हालांकि इसके लिए योग्यता की जो शर्तें रखी गई हैं, उससे किसी सेलेक्शन समिति के लिए सही तजुर्बे वाले शख्स की पहचान करना असंभव होगा. यूपीएससी तो कम से कम एग्जाम के जरिये प्रतिभा की पहचान करता है, इस समिति के पास तो वह रास्ता भी नहीं होगा.

ब्यूरोक्रेसी को फिर से फैशनेबल बनाना

कुछ समय से गवर्नेंस में स्पेशलिस्टों को लाने पर काफी जोर दिया जाता रहा है और कथित तौर पर आईएएस के गवर्नेंस के ‘आदिम तौर-तरीकों’ की आलोचना की जाती रही है. यह फिजूल की बहस है, क्योंकि इसकी बुनियाद औद्योगिक युग से जुड़ी है, जब मैनेजमेंट को एकेडमिक डिसिप्लिन माना जाता था. तब बड़ी कंपनियां के अपनाए गए सिस्टम को पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन और गवर्नेंस की बहस में शामिल किया गया. यह बकवास बहस है और इस बारे में मैं कभी और लिखना चाहूंगा.

अभी तो मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आज की नॉलेज इकनॉमी में ऐसे लीडर्स की जरूरत है, जिन्हें कई विषयों का ज्ञान हो. दूसरी बात यह है कि सरकार और पब्लिक पॉलिसी के साथ कॉरपोरेट सर्कल में स्पेशलाइजेशन की जगह टीम बेस्ड अप्रोच ने ले ली है.

गुड गवर्नेंस के लिए अलग-अलग आइडिया को साथ लाने की जरूरत है. आईएएस में यह स्किल है. इसे बढ़ावा देने के बजाय अगर बाहरी लोगों को गवर्नेंस से जोड़ने जैसे रिफॉर्म किए गए तो यह टैलेंट हाशिये पर चला जाएगा. ऐसे में लेटरल एंट्री का आधा-अधूरा आइडिया एक बंटे हुए एडमिनिस्ट्रेशन को जन्म देगा.

(लेखक पूर्व आईएएस अध‍िकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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